
सुधा गोयल
बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
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बहुत दिन क्या बरसों हो गए। कोंपल न फूटनी थी न फूटी। कितने ही बसंत आए और चले गए पर काकी आशा का दामन थामे उस ठूंठे नीम के वृक्ष को देखती रहती, इसी आशा में कि कभी तो कोंपल फूटेंगी, कभी तो बहार आएगी। पत्तियां आंगन में झड़ झड़ कर कूड़े का ढेर बना देंगी। पक्षी गुटर गूं करेंगे। अकेले एकांतवासी काकी का आंगन चहक उठेगा। मन बहलाने को दो-चार साथी मिल जाएंगे।
पर कहां होता था काकी का सोचा हुआ पूरा। बसंत आता व चला जाता। सारे पेड़ हरे हो जाते पर काकी का पेड़ काकी की तरह ही तपस्वी सा अविचल खड़ा रहता। सोचते-सोचते काकी की आंखें भर आतीं। वह अपनी पीड़ा में पेड़ को भी शामिल कर लेतीं। जितनी अकेली वे थीं उतना ही अकेला उनका लाड़ला पेड़ था जिसे कभी अपने हाथों से उन्होंने आंगन में रोपा था।
इस आंगन में उन्होंने बहुत कुछ रोपा था। बहुत से सपने देखे थे, पर समय की वेगवती हवा अपने साथ बहुत कुछ बहा ले गई। केवल ठूंठ पेड़ और जर्जर मकान काकी की यादों को संजोए काकी का साथ दे रहा था।
जब भी कोई कौवा उसे ठूंठ पर बैठकर कांव कांव करता काकी खीज उठतीं। फौरन कंकड़ मार कर उसे उड़ा देती। कोए को देख उनके घाव रिसने लगते। कौवा और अपने बड़के, दोनों में उन्हें समानता नजर आती और वे होंठों ही होठों में बुदबुदा उठतीं- “अपशकुनी धूर्त”! पर ढ़ीट कौआ जब तब कांव-कांव करता आ धमकता। कभी काकी की एकाध रोटी उड़ा ले जाता, कभी सालन में चोंच डाल उसे गंदा कर देता। काकी उस दिन भूखी रह जाती या किसी प्रकार पानी में भिगो-भिगोकर रोटी गले के नीचे उतारती। दोबारा चूल्हा जलाकर सब्जी बनाना उनके लिए संभव न था। फिर इतनी सब्जी कहां थी। एक ही बार मिल जाती यही काफी था उनके लिए।
काकी अस्सी पार कर चुकी थी। आंखों से भी बस काम चलाऊ नजर आता। पोपले मुंह से चूल्हा फूंकने बैठतीं तो हवा एकदम मुंह से निकल जाती। चूल्हे की राख और धुआं काकी की आंखों में भर जाता आंखें पनियाली हो जाती। काफी देर तक पल्लू के फटे कोने से आंखें पोंछती रहतीं।
कितनी मुश्किल थी काकी की। कहीं कागज के टुकड़े पड़े मिल जाते तो संभाल कर रखतीं। उनसे आग सुलगती काकी कागजों के लिए रमेश के घर चली जातीं। उसका बेटा दुकान से रद्दी कागज लाकर काकी को दे जाता। काकी रद्दी कागजों के बदले ढ़ेरों आशीष देतीं। जब भी रमेश कपड़े की गांठ खोलता तमाम कूड़ा काकी के दरवाजे पर डाल जाता और काकी खुश हो कागज चुनती रहती। एक-एक कागज को तहा कर सहेज कर रखतीं।
एक बार काकी के घर का छज्जा गिर गया। कड़ियों में दीमक लग गई थी। काकी ने खुद बूढ़े हाथों से मिट्टी हटाई और कड़ियां काट -काट कर छोटे-छोटे टुकड़े बना लिए। बस उन्हीं से अपना काम चलातीं। काकी को धुन सवार हो जाती तो काम करके छोड़तीं वरना अकेली पड़ी पेड़ से बतियाती रहतीं।
काकी बीमार पड़ जाती तो बड़ी परेशानी होती। बेचारे पड़ोसी काकी की सेवा करते। हालांकि काकी का भरा पूरा परिवार था और सभी शहर में रहते थे पर जैसे काकी का अस्तित्व सबके लिए नगण्य था। डॉक्टर ने काकी से दूध के साथ दवा लेने को कहा। काकी ने बसेसर दूध वाले को बुला लिया और आधा पाव दूध प्रतिदिन लेने लगीं। इतना ही दूध में पानी मिल लेतीं। एक घूंट दूध के साथ दवाई सटक लेतीं। पता नहीं काकी दूध को दवाई दिखातीं थीं या दवा को दूध, पर काकी की सामर्थ्य इससे अधिक न थी।
एक दिन बसेसर से ना रहा गया बोला- “काकी कहो तो बड़के भैया को बोल दूं। उनके यहां भैंस है।”
“नहीं बसेसर, ऐसा बड़के से कुछ मत कहना। वहां फालतू दूध है ही कहां? कितना बड़ा परिवार है उसका। उन्हीं को पूरा नहीं पड़ता। बड़के की बहू बता रही थी। भैया वे सब दूधों नहाए पूतों फलें।” काकी ने अशीषते हुए कहा।
“काकी कितनी भोली हैं”- कहते हुए बसेसर ने अपनी आंखें पोंछ ली। जब तक काकी बीमार रही बसेसर प्रतिदिन दूध दे जाता रहा। एक दिन काकी ने अपने फटे पल्लू से गुड़ी मुड़ी हुआ पचास का नोट निकाल कर बेससर को देते हुए कहा- “अरे बसेसर इस समय तो केवल इतनी ही रुपए हैं और कितने निकालते हैं।”
बसेसर जैसे बेहाल हो उठा। पचास का नोट काकी के पैरों में रख हाथ जोड़ता बोला- “क्या करती हो काकी, पैसे देने वाले और बहुत हैं। तुम्हारे हिस्से का दूध जरा-जरा कम नापने से निकल आता है। काकी आगे से पैसों की बात मत करना। क्या बड़का ही तुम्हारा बेटा है मैं नहीं।”
बसेसर के मुंह से ऐसी अपनत्व भरी बात सुन काकी हलकान हो उठी थी। पराया जाया अपने जायों से अधिक लगा था। वे बसेसर के सिर पर हाथ फिरातीं आषीशों की झड़ी लगा बैठी थीं। धीरे-धीरे यही बसेसर अपनों से ज्यादा सगा हो गया था। वक्त बेवक्त काकी का हाल पूछ जाता और काकी का मन रह जाता।
एक बार डरते-लड़ते काकी ने बड़के की बहू से कहा था- “बहू, डॉक्टर बाबू ने दवाई दूध से लेने को कहा है”।
“मांजी, अभी पेट नहीं भरा है। पैर कब्र में लटक रहे हैं और बुढ़िया को जवान का स्वाद याद आ रहा है। तन की फिक्र लगी है। बच्चों के लिए तो पूरा पड़ता नहीं तुम्हारे लिए कहां से लाएं। अरे इस उम्र में कैसी दवा? भगवान का स्मरण करो स्वयं भी मुक्त हो और हमें भी शांति से रहने दो।”
काकी बहू के जवाब से सहम गई थी। वह बेशक अशक्त और बूढ़ी थीं पर शारीरिक कष्ट किसी भी अवस्था में सह पाना क्या सहज है? फिर वृद्धावस्था में हाथ पांव न चलेंगे तो कोई एक टूक भी न देगा। काकी भी शारीरिक कष्टों से मुक्ति पाने के लिए ही दवाई खाकर क्या गुनाह कर रही थीं। जीवन कच्चे सूत का धागा नहीं जिसे एक ही झटके से तोड़कर फेंक जा सके। काकी तो स्वयं मुक्त होना चाहती थीं। सारे सुख दुख उन्होंने देख लिए थे। अब कोई इच्छा शेष न थी। यूं सिसक सिसक कर जीना उन्हें ही कब पसंद था, पर यहां वे ईश्वर के हाथ की कठपुतली थीं और डोर उसके हाथ में थी। जब तक नचाएगा नाचना ही पड़ेगा।
जब हाथ जलता है तो जलन सभी को एक जैसी होती है। पर काकी की बहू को इतनी समझ कहां थी? वे जब भी आती काकी को कौंचती रहती। काकी के रसोई के साबुत बर्तन ले जाती और कटे टूटे वहां छोड़ जाती हैं जिन्हें साफ करते समय अक्सर काकी की हथेली या उंगलिया कट जाया करती थीं। परंतु काकी वह सब कुछ सहे जा रही थी।
कितनी भी ठंड पड़ती काकी ठंडे पानी से नहाती। पानी गर्म करने के लिए न तो उनके पास कोई बर्तन था और ना इतना ईंधन। काकी के रजाई गद्दे बीस साल पुराने काका के जमाने के थे। गद्दे की नरमाई और गुदगुदापन का एहसास खुरदरी मोटी दरी के रूप में परिवर्तित हो गया था। काकी किसी प्रकार उन्हीं में सिमटी पड़ी रहतीं।
बड़ी और मझली बहू सास के लिए तीज त्योहार पर एक दो का नोट रख गुड़ के गुलगुलों का वायना निकाल भेज देतीं। काकी समझती सब थी। वे उन गुलगुलों को पड़ोस के बच्चों में बांट देती। काकी ने कभी किसी का बुरा नहीं माना। मानती भी किसका? मान मनुहार अपनों से चलता है। जब अपने ही पराए निकल गए तब किसका गिला शिकवा।
काकी का छोटा बेटा ही कभी कभार काकी को कुछ रुपए भेज देता था बस किसी प्रकार गाड़ी खिंच रही थी। छोटी बहू अपनी पहनी धोती बूढ़ी सास को पकड़ा जाती। सास का तन ढ़क जाता। एक बार काकी ने बड़के से गुजारे लायक रुपए मांगे। बड़का एकदम बिफर पड़ा- “अम्मा मेरे हिस्से में रह रही हो यही क्या काम है? मकान आज किराए पर उठा दूं तो पूरे दो हजार रुपए मिलेंगे।”
काकी सहम गई थीं। क्या घर उनका अपना नहीं। उसके बाद उन्होंने कभी बड़के से कुछ नहीं मांगा पर उनके मन में हमेशा एक टीस उठा करती- “इसी लड़के के लिए कितने व्रत उपवास किए थे। कितनी मनौती मानी थीं। तब कहीं इसका मुंह देखा था। एक के बाद एक जब तीन बेटे हुए तो सास घर से बाहर न निकलने देतीं। कहती- “बहू बच्चों को अंदर ड्योढ़ी में बुला ले नजर लग जाएगी।” काकी अतीत में खो जातीं।
सासूजी का तो अपना एकलौता ही बेटा था ।बड़ा लाड़ करती थी अपने तीनों पोतों पर। मेरा भाग्य भी आशीषती थीं। कहतीं- “घर में खूब रौनक रहा करेगी जब तीन-तीन बहुएं घर में आएंगीं। घर भर जाएगा। किलकारियां गूंजे़गी खूब सेवा करेगी, और आज सासूजी होती तो देखतीं कि उनकी पतोहू अपनी सास की कितनी सेवा कर रही है। घर कितना हरा भरा है। जिस घर में ब्याह कर आईं उस घर से अधिकार ही उठ गया।
सोचते-सोचते काकी ने एक निःश्वास खींची। आज सुबह बड़के चार आदमी लेकर आया था। कह रहा था- “अम्मा पेड़ कटेगा। मैंने पांच सौ में सौदा कर दिया है। ठूंठ है। व्यर्थ ही जगह घेरे खड़ा है” एक ही तो साथी है उनके सुख दुख का। कहां कह पायीं। काकी उल्टा सीधा बकने लगी थी। बड़के जाते समय कह गया था- “अम्मा खूब सोच समझ लेना। पेड़ भी कटेगा और घर भी किराए पर उठाऊंगा। तुम्हारे लिए एक कोठरी काफी है।”
काकी तभी से गुमसुम है। पेड़ से लिपटी खड़ी हैं। पेड़ नहीं जैसे उनका कोई बेहद आत्मीय हत्यारों के हाथों मार दिया जाने वाला हो। तभी एक कौआ पेड़ की फुंगी पर बैठ कांव-कांव कर उड़ जाता है। काकी को लगता है कि बड़के आ गया है। आज उनमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि कंकड़ मारकर कौए को उड़ा दें। काकी आकाश में उड़ते कौए को देखतीं हैं और वितृष्णा से थूक देती है। “अपशकुनी धूर्त!” बड़के अगले रोज आता है। काकी पेड़ के नीचे चिर निद्रा में सोई हैं।
परिचय :– सुधा गोयल
निवासी : बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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