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बदलते मूल्य

बृज गोयल
मवाना रोड, (मेरठ)
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१३ जनवरी की कड़कती सर्दी में रजाई पर कंबल डाल लिया, फिर भी पैर गर्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं। ‘सारा दिन मौजे में बंद रहने पर भी न जाने कैसे इतने ठंडे हो जाते हैं !’ अपनी गर्माहट समेटते-समेटते अचानक गुमटी की छत पर गोबर के उपले बनाती चमेली का ख्याल आ गया।
दोपहर धूप की तलाश में मैं ऊपर छत पर गई तो सामने बैठी शांता उपले बना बनाकर यत्न से रख रही थी। उसकी साड़ी हवा में बुरी तरह उड़ रही थी। वह सिर ढकने का असफल प्रयास बार-बार कर रही थी। लेकिन ठंडी हवा उससे जिद्दी बच्चों जैसी ठिठौली कर उसकी साड़ी को पतंग बना लेना चाहती थी। बेचारी बेबस सी शांता ठंडी हवा के सामने खिसियानी सी बैठी, उपले बनाने में व्यस्त थी। मैंने उसे टोका- ‘कहो शांता ठंडी हवा का आनंद ले रही हो…?’ वह हल्के से हंसी, फिर उड़ती साड़ी का कौना मुंह में दबाकर उपले बनाने लगी। पिछले बारह सालों में कितनी बदल गई है शांता… जब मैं आई थी इस कॉलोनी में, तभी रामदास ऑपरेटर ने भी दो कमरों वाला क्वार्टर लिया था बस सड़क का फासला है। इधर इंदिरा कॉलोनी – तीन कमरों के क्वार्टर, उधर कमला कॉलोनी है। इधर मेरा क्वार्टर कौने का है, उधर रामदास का भी कौने वाला है, जिससे रामदास के यहां होने वाली हर छोटी बड़ी बातों की भनक मुझे होती रहती है। वैसे भी रामदास की जोरू शांता बहुत व्यवहार कुशल है। पास पड़ोस के घर में उसका अच्छा आना जाना है। वह अपनी जरूरत के लिए हमेशा गाय या भैंस जरूर रखती है, जिससे मुझे बहुत फायदा है। वह होली से दो दिन पूर्व ही बरकुले की पांच माला बनाकर भेज देती है। जाड़ों में रामदास खेत से कभी बथुआ, चने का साग या सरसों ले आता, तो साफ करके काट कर भेज देती, साथ में कटोरा भर मक्के का आटा भी लाना नहीं भूलती। शांता के इस प्यार भरे व्यवहार ने छोटे बड़े की सब सीमाएं मिटा दी हैं।
शांता के यहां जब भी कुछ कीर्तन, जन्मदिन आदि होता, मैं जरूर जाती थी। शांता का बेटा नरेश बड़ा उद्दंड है। वह ना तो पढ़ने लिखने में ही रुचि रखता है और ना ही कुछ काम सीखने में। मां बाप का कहना बिल्कुल नहीं मानता। कोई और भी समझाए तो उल्टा जवाब हाजिर है। शांता की एक बेटी भी है जो पढ़ाई में होशियार होने के साथ-साथ घर के हर काम में निपुण है। उसको देखकर नरेश और चिढ़ता रहता है। बाइस साल का होने पर भी जब नरेश इंटर पास नहीं कर पाया, तो हताश और उदास होकर शांता व रामदास उसकी शादी की बात सोचने लगे। मैंने उन्हें
समझाया- ‘बेरोजगार की शादी करोगे तो मुसीबत होगी।’ पर उनकी दलील थी कि जब कंधों पर गृहस्थी का बोझ पड़ेगा तो कमाना जरूर सीख लेगा। अकेला बेटा था, रिश्तों की क्या कमी गंगा पार गांव से नरेश का विवाह हो गया और सुंदर सी चमेली दुल्हन बन छम छम करती आ गई।

रामदास, शांता, रुचि सब चमेली से बहुत खुश थे। शांता को बहू के रूप में घर की सहायिका मिल गई थी। गांव की सीधी, भोली-भाली चमेली ने आते ही चौका चूल्हा संभाल लिया था। शांता की बहू आने की साध पूरी हो गई थी। वह खुश खुश घर के कामों में चमेली का हाथ बंटाती रहती थी। पर न जाने क्यों नरेश की त्योरी चढ़ी रहती। वह जब भी घर में होता कुछ ना कुछ बहाना लेकर दंगा शुरू कर देता, कभी खाने की थाली तो कभी सब्जी की कटोरी या चाय का कप ही फेंक चमेली को मार देता। जबकि उसके आते ही चमेली उसकी सेवा में लग जाती। वह बेचारी सुबक कर रह जाती। अगर रामदास या शांता कुछ कहते तो उनसे भी वह लड़ता था। सब उससे दुखी थे। चमेली को मायके नहीं जाने देता। उसके भाई या पिता आते, तो उनसे भी झगड़ा करता, इसी तरह एक साल निकल गया। एक दिन नरेश नहीं था चमेली का भाई आया तो झट शांता ने चमेली को मायके भेज दिया। जब नरेश आया तो उसने खूब कोहराम मचाया और अगले ही दिन चमेली को लेने चला गया, पर वहां पहुंचकर तो चमेली शेरनी हो गई थी। उसने उसके साथ आने से साफ इंकार कर दिया और चमेली के पिता भाई ने भी उसे उल्टे पांव लौटा दिया।

अब नरेश को कुछ चेतना सी हुई और वह काम की तलाश में घूमने लगा। मगर छोटा काम करने में उसकी मानहानि थी। बड़ा पाने की योग्यता नहीं थी, पर सड़कों पर घूमते घूमते एक नेता ने जन्म ले लिया। इसके लिए किसी डिग्री या तजुर्बे की जरूरत नहीं थी। थोड़े ही दिनों में वह बढ़िया खददर के कुर्ते पजामे में दिखने लगा। देखते देखते उसके ठाठ बाट बढ़ गए। मैंने एक दिन शांता से कहा- ‘अब तो नरेश कमाने लगा है… सब ठीक हो जाएगा। ‘ शांता परेशान सी बोली- ‘ क्या कमाता है बहन जी, गांव के सीधे-साधे आदमियों को झूठे आश्वासन देकर बहकाता रहता है। वह इसकी चाल में फंसकर कुछ पैसे दे देते हैं, जिससे यह अपनी नई-नई पोशाक बनवाता रहता है। अब तो ये भी रिटायर हो गए हैं, बस पेंशन पर ही निर्भर हैं। इधर चमेली भी नहीं आ रही कि इसे कुछ फिक्र हो।‘
यहां से जाने के आठ महीने बाद चमेली ने बेटे को जन्म दिया। रामदास खबर पाते ही दौड़ गए। चमेली से आने को कहा पर वह नहीं आई। शांता पोते का मुंह देखने के लिए बेचैन थी, पर नरेश के ढंग से दुखी थी। रामदास तो जब-तब पोते को मिल आते थे और कुछ ना कुछ दे आते थे। हर बार चमेली से आने को कहते पर वह राजी नहीं होती। इसी तरह दो साल निकल गए। रिंकू पैदल चलने लगा था। अब धीरे-धीरे चमेली के समझ में आने लगा था कि नरेश के भरोसे तो जिंदगी अपाहिज बन जाएगी। फिर रिंकू के भविष्य का भी प्रश्न है, यही सब सोच कर चमेली, रामदास के साथ आ गई। शांता तो बहुत खुश हुई। चमेली ने आते ही फिर चूल्हा चौका संभाल लिया। दिन महीने बीतने लगे। दस महीने बाद फिर चमेली को बेटा हुआ। शांता ने खूब खुशी मनाई। बैंड-बाजे से कुआं पुजवाया। चमेली भी निहाल हो गई।

बेरोजगार को बैंक भैंस दिलवा रहा था, सो उसी के तहत चमेली के नाम से रामदास ने क्वार्टर, बैंक को गिरवी रखकर तीन अमेरिकन भैंस ले ली। भैंस खूब दूध देती थीं। सारा दूध कॉलोनी के लोग ले लेते थे और समय पर पैसा दे देते थे। इस तरह उनका काम मजे में चल रहा था। रामदास, शांता, चमेली तीनों भरपूर मेहनत करते हैं। चमेली तो गोबर के उपले बनाकर भी बेच लेती है। रामदास हर महीने बैंक की किस्त जमा करता है। रिंकू-टिंकू स्कूल जाते हैं। घर की व्यवस्था बढ़िया ढंग से चल रही है। चमेली अब बहुत होशियार हो गई है। घर के साथ-साथ अब बाहर भी काम करने लगी है। लेकिन नरेश दंगा जरूर मचाता है। चमेली को मारना पीटना भी जारी है। वह नहीं सुधरेगा… यही लगता है। अचानक एक दिन बाहर सड़क पर शोर सुनाई दिया। बालकनी से देखा- चमेली के हाथ में जलती लकड़ी थी। वह साक्षात चंडिका बनी, नरेश के पीछे दौड़ रही थी। नरेश ‘अरे साली, अरे साली’ कहकर आगे आगे भाग रहा था। तभी चमेली की आवाज सुनाई पड़ी- ‘बारह साल बहुत पीट लिया अब नहीं पिटूंगी।‘ रामदास शांता खड़े हंस रहे थे। मुझे भी हंसी आ गई।

परिचय :- बृज गोयल
निवासी : राधा गार्डन, मवाना रोड, (मेरठ)
घोषणा : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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