
भारमल गर्ग “विलक्षण”
जालोर (राजस्थान)
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राजस्थान के मारवाड़ प्रदेश में बसा छोटा-सा गाँव था सुंदरसर। यहाँ की बलुई धरती सूर्य की तपिश सहती थी, रेतीले टीलों के बीच हरे-भरे खेत बाजरे की फसल से लहलहाते थे, और लोगों के चेहरों पर राजपूतानी सहनशीलता की छाप थी। इसी गाँव के एक छोर पर, खेजड़ी के पेड़ की छाया में, नारायण गर्ग का मिट्टी से लिपा-पुता कच्चा घर था। नारायण गर्ग- नाम में ही एक गरिमा और दायित्वबोध था। पचपन वर्ष के इस किसान के चेहरे पर धूप और लू ने गहरी झुर्रियाँ खोद दी थीं, लेकिन आँखों में अपने परिवार के प्रति अटूट प्रेम और जिजीविषा चमकती थी। उनकी धर्मपत्नी, संतोष देवी, गृहणी थीं- घर की छोटी-सी दुनिया को संचालित करने वाली अविचल स्तंभ। उनका सारा जीवन चूल्हा-चौका, बच्चों की देखभाल और पति के साथ खेत के कामों में बीता था। चेहरे पर सदा एक शांत संतोष, किन्तु आँखों के कोनों में परिवार की चिंता की रेखाएँ भी। उनके तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं। ज्येष्ठ पुत्र, राजेश कुमार, इक्कीस वर्ष का युवक, गाँव के ही उच्च विद्यालय में पढ़ाई समाप्त कर अब नगर जाने के स्वप्न देखता था। उसके बाद गौतम, अठारह वर्ष का, जिसे पढ़ाई से अधिक खेती में रुचि थी। सबसे कनिष्ठ पुत्र, सुनील, पंद्रह वर्ष का, चंचल और फुर्तीला, जो अभी नवीं कक्षा में था।
पुत्रियों में ज्येष्ठा लक्षिता, उन्नीस वर्ष की, सुंदर और विवेकशील, जिसके विवाह की चर्चाएँ चल रही थीं। सबसे छोटी पुत्री वर्षा, बारह वर्ष की, पढ़ाई में प्रतिभाशाली और पिता की अति प्रिय। परिवार में और भी सदस्य थे- नारायण के अनुज रमेशचंद्र का कुटुम्ब, जो सटे ही घर में निवास करता था। रमेश के पुत्र विक्रम, जो राजेश की आयु का था और पुत्री नित्या, वर्षा से थोड़ी बड़ी। एक ही आँगन, एक ही चूल्हे की रोटी खाने वाला यह विस्तृत कुटुम्ब था। पर सबका दायित्व केंद्र थे नारायण गर्ग। एक शीतकाल की प्रभात, जब पाला धरती को चादर सा ढके हुए था, वर्षा तीव्र ज्वर से पीड़ित थी। उसका छोटा-सा शरीर उष्णता से दग्ध हो रहा था, नेत्र धंसे हुए। संतोष देवी ने घरेलू उपचार आजमाए, किन्तु ज्वर नहीं उतरा। भय ने घर की वायु को जकड़ लिया। नारायण गर्ग प्रातः ही खेत पर गए थे। जब गौतम दौड़ता हुआ समाचार लेकर पहुँचा, “पिताजी! वर्षा की अवस्था अत्यंत गंभीर है, ज्वर नहीं उतर रहा!” नारायण का हृदय धक् से रह गया। उन्होंने तत्काल हल छोड़ा, बैलों को खूँटे से बाँधा और गृह की ओर दौड़ पड़े। दौड़ते हुए उनके पद लड़खड़ा रहे थे, श्वास फूल रही थी, किन्तु मन में केवल एक धुन- “मेरी वर्षा… मेरी चिड़िया…” गृह पहुँचकर उन्होंने वर्षा को देखा। उसकी दशा देखकर उनके नेत्र सजल हो आए। उन्होंने तुरंत निश्चय किया- उसे तहसील के चिकित्सक के पास ले जाना होगा, जो गाँव से बीस कोस दूर था। घर में नगद धन नहीं था।
फसल अभी कटनी शेष थी। नारायण ने बिना एक क्षण व्यय किए, अपने अनुज रमेशचंद्र से कहा, “रमेश, शीघ्र बैलगाड़ी तैयार करो। मैं थोड़ी देर में आता हूँ।” वे सीधे गाँव के महाजन, जगन्नाथ प्रसाद के पास पहुँचे। जगन्नाथ प्रसाद की पण्यशाला गाँव की सभास्थल पर थी। नारायण ने हाथ जोड़कर कहा, “जगन्नाथ भैया, बड़ी विपत्ति है। वर्षा अति रुग्ण है। चिकित्सक के पास ले जाना है। कुछ मुद्रा उधार दे दीजिए, फसल कटते ही चुका दूँगा। ब्याज जो भी लगेगा।” जगन्नाथ प्रसाद ने अपना चश्मा ठीक किया, “अरे नारायण भाई, तुम्हारा तो पूर्व का ऋण भी शेष है। फसल भी इस बार मध्यम दिख रही है। दुष्कर है।” नारायण का कंठ सूख गया। उनकी दृष्टि में विनय थी, “भैया, बालिका का प्राण संकट में है। ईश्वर के लिए… मैं कुछ भी करूँगा। अपनी भूमि का कुछ भाग गिरवी रख लो।” ये वचन बोलते हुए उनका हृदय काँप रहा था। भूमि कृषक का परम आधार होती है। उसे गिरवी रखना मानो अपनी जड़ों को ही कटवाना था। अंततः, जगन्नाथ प्रसाद ने कुछ मुद्राएँ दीं, किन्तु एक नए ऋण के ब्याज के साथ और पूर्व ऋण का ब्याज भी जोड़कर। नारायण ने कागज पर अँगूठा लगा दिया। उनके हाथ कंप रहे थे। यह ऋण न केवल धन का था, अपितु उनकी निद्रा और शांति हर लेने वाला था। बैलगाड़ी में वर्षा को लिटाकर, संतोष और नारायण तहसील के लिए प्रस्थान कर गए।
मार्ग कंटीला था। प्रत्येक झटका वर्षा के लिए वेदना थी और नारायण के लिए चुभन। उन्होंने बार-बार वर्षा के शीर्ष पर हाथ फेरा, जल की बूँदें उसके शुष्क ओष्ठों पर टपकाईं। संतोष देवी मौन भाव से अश्रु पोंछती रहीं। तीन प्रहर की यात्रा के बाद वे चिकित्सक के पास पहुँचे। चिकित्सक ने परीक्षा की, सूई लगाई, औषधियाँ दीं। व्यय आया- उतना ही, जितना नारायण ने उधार लिया था। मुद्रा देते हुए उनके हाथ पुनः काँपे। गृह लौटते-लौटते रात्रि हो गई। वर्षा की अवस्था में सुधार हुआ, किन्तु नारायण के मन पर एक नया भार चढ़ गया। वह रात्रि उन्हें निद्रा नहीं आई। वे गृह के आँगन में बैठे, नक्षत्रों को निहारते रहे, मन ही मन गणना करते रहे कि इस नए ऋण को कैसे चुकाएँगे। उनकी पीठ पीड़ा कर रही थी, किन्तु हृदय की पीड़ा उससे कहीं अधिक गहन थी। वर्षा स्वस्थ हो गई, किन्तु शीघ्र ही गाँव पर दूसरी आपदा आ पड़ी। ग्रीष्म ऋतु में वर्षा रुक-रुक कर हुई। खेतों में बाजरे की फसल लहलहा रही थी, पर सिंचाई के लिए जल की भारी कमी हो गई। गाँव का कुआँ सूखने लगा। तालाब का जल घटता जा रहा था। नारायण का खेत तालाब से दूर था। उनके खेत की फसल कुम्हलाने लगी। एक मध्याह्न, गौतम और सुनील हाँफते हुए आए, “पिताजी! खेत की नहर शुष्क हो गई है। अन्य खेतों के स्वामी अपने-अपने भाग का जल ले रहे हैं। हमारे खेत तक जल ही नहीं पहुँच रहा।” नारायण का मुख क्रोध से तमतमा गया। फसल बचानी थी। यही उनकी आय का एकमात्र स्रोत था, ऋण चुकाने का साधन था, और गृह चलाने का आधार। वे तत्काल खेत पर पहुँचे। देखा कि ऊपर के खेतों के स्वामियों ने नहर का जल अपनी ओर मोड़ रखा था। नारायण ने क्रोध और निराशा में आवाज लगाई, “ओ रामलाल! ओ श्यामसुंदर! ये क्या कर रहे हो? नहर का जल तो सबका अधिकार है!”
रामलाल ने धृष्टता से उत्तर दिया, “नारायण भाई, जिसका खेत पहले आता है, उसका अधिकार पहले। तुम्हारा खेत तो सबसे अंत में है। शेष जल ही मिलेगा।” यह सुनकर नारायण का रक्त उबल गया। उन्होंने कुदाल उठाई और नहर के मार्ग में पड़ी बाधाओं को हटाने लगे। इस पर विवाद आरंभ हो गया। अपशब्दों का आदान-प्रदान हुआ। आस-पास के कृषक एकत्र हो गए। नारायण एकाकी थे। उनके अनुज रमेश भी वहाँ आ गए, किन्तु विरोध अधिक था। अंततः गाँव के मुखिया को बुलाना पड़ा। मुखिया ने निर्णय दिया कि जल का विभाजन बारी-बारी से होगा। नारायण को अपने खेत की बारी आने में दो दिन और प्रतीक्षा करनी पड़ी।
उन दो दिनों में नारायण ने रात्रि-दिवस एक कर दिया। वे और उनके पुत्र- राजेश, गौतम, सुनील- सबने मिलकर पुराने कुएँ को स्वच्छ करने का प्रयास किया। कुएँ का जल अल्प था, किन्तु बाल्टी-बाल्टी करके वे रात्रिभर खेत की तृष्णा बुझाने का प्रयत्न करते रहे। चंद्रिका रात्रि में, कीटों के काटने और श्रांति से अशक्त होकर भी, नारायण कुएँ से जल खींचता रहा। उनकी पीठ में सुई सी चुभन थी, हाथों में फफोले पड़ गए थे, किन्तु उन्होंने पराजय नहीं मानी। वे जानते थे कि यदि फसल नहीं बची, तो न केवल ऋण चुकाना दुष्कर होगा, अपितु समस्त वर्ष गृह चलाना भी दुर्भर हो जाएगा। उनकी दृष्टि के समक्ष वर्षा का रुग्ण मुख और संतोष की चिंतित दृष्टि तैर रही थीं। लक्षिता के विवाह की वार्ता भी चल रही थी- उसके लिए भी तो धन की आवश्यकता थी। अंततः, उनकी साधना फलीभूत हुई। फसल बच गई, यद्यपि उपज पूर्व की तुलना में कम हुई। कटाई के बाद जब अनाज विक्रय हुआ, तो सर्वप्रथम नारायण ने जगन्नाथ प्रसाद का ऋण चुकाया। ब्याज सहित। जब उन्होंने महाजन को मुद्राएँ दीं, तो उनके मन में गहन शांति थी, किन्तु साथ ही एक पीड़ा भी- उस कठोर परिश्रम के बाद जो अल्प बचा था, वह भी चला गया था। गृह की आर्थिक स्थिति पुनः आरंभिक स्थान पर आ गई थी।
संतोष देवी ने मौन भाव से सब देखा। उन्होंने अपने आभूषणों की पुरानी पोटली निकालकर देखी, जिसमें कुछ रजत के गहने और उनकी माता का दिया हुआ एक स्वर्ण का लघु नथ था। एक गहन श्वास लेकर उन्होंने उसे पुनः छिपा दिया। राजेश कुमार की दृष्टि में एक नई दीप्ति थी। उसने नगर के एक महाविद्यालय में कृषि विज्ञान स्नातक में प्रवेश लेने हेतु प्रार्थना-पत्र भरा था और उसका चयन हो गया था। यह समाचार समस्त कुटुम्ब के लिए आनंद लेकर आया। किन्तु शीघ्र ही आनंद चिंता में परिवर्तित हो गया। शुल्क, छात्रावास का व्यय, पुस्तकें, वस्त्र- नगर में शिक्षा का खर्च गाँव की तुलना में अनेक गुना था। राजेश के समक्ष स्वप्न था, किन्तु नारायण के समक्ष पर्वत सी चुनौती। एक सांझ, राजेश ने साहस एकत्र कर कहा, “पिताजी, महाविद्यालय की प्रथम किश्त जमा करने की तिथि निकट आ रही है।” उसके स्वर में उत्साह था, किन्तु नेत्रों में भय भी। नारायण ने अपनी हुक्के की नाड़ी को निहारते हुए कहा, “हाँ पुत्र, मैं विचार कर रहा हूँ।” उनका स्वर निर्विकार था। उनके मन में प्रचंड वायु चल रही थी। खेत से होने वाली आय गृह के दैनिक व्यय और शेष बालकों की शिक्षा के लिए भी पर्याप्त नहीं थी। बैंक से ऋण लेने का विचार किया, किन्तु उनके पास कोई प्रतिभूति नहीं थी। संबंधियों से सहायता माँगना उनकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध था। वे जानते थे कि यदि राजेश को उत्तम शिक्षा नहीं मिली, तो वह भी इसी खेती-किसानी के बंधन में फँसकर रह जाएगा, जिससे मुक्त होने का स्वप्न वह देखता था।
अनेक रात्रियाँ नारायण सो नहीं पाए। उनके मुख पर श्रांति और चिंता की गहरी रेखाएँ उभर आईं। संतोष देवी ने उनकी वेदना समझी। एक दिन उन्होंने वही पुरातन पोटली नारायण के समक्ष रख दी। “नारायण, ये ले लो। राजेश की शिक्षा के काम आएगा।” उनका स्वर काँप रहा था। नारायण ने पोटली खोली। स्वर्ण का नथ दीप्तिमान था। यह संतोष की माता का एकमात्र स्वर्णाभूषण था, जो उसे उसके विवाह के समय प्राप्त हुआ था। यह उसकी स्मृतियों से जुड़ा था। नारायण ने पोटली वापस करने का प्रयास किया, “नहीं संतोष… ये तुम्हारी स्मृति चिह्न है।” संतोष ने दृढ़ता से कहा, “बालकों का भविष्य ही सबसे बड़ी स्मृति होगी। ले लो।” उनकी दृष्टि में अश्रु थे, किन्तु मुख पर दृढ़ निश्चय। नारायण का कंठ अवरुद्ध हो आया। उन्होंने पोटली ले ली।
अगले दिन, वे प्रभात ही तहसील के सुनार के पास पहुँचे। स्वर्ण का मूल्य तौलने पर निकला। मुद्राएँ प्राप्त हुईं। ये मुद्राएँ राजेश की प्रथम किश्त और कुछ आवश्यक सामान क्रय करने के लिए पर्याप्त थीं। जब नारायण ने राजेश को मुद्राएँ दीं, तो उन्होंने कहा, “पुत्र, ये तेरी माता का तप है। इसका एक-एक पैसा सावधानी से व्यय करना। परिश्रम से अध्ययन करना।” राजेश की दृष्टि नम हो गईं। उसने पिता के चरण स्पर्श किए। उस दिन नारायण के मन में एक विचित्र शून्यता थी- पुत्र के भविष्य के लिए प्रसन्नता, किन्तु पत्नी के उस बलिदान की पीड़ा जो उनके हृदय पर क्षत की भाँति थी। संतोष ने उस दिन से वह नथ धारण करना बंद कर दिया। उनकी मौनता में एक गहन वेदना समाई हुई थी, जिसे वे कभी व्यक्त नहीं करती थीं। लक्षिता के विवाह की तैयारियाँ प्रबल गति से चल रही थीं। संबंध निश्चित हो गया था- पड़ोस के गाँव के एक सभ्य कुटुम्ब में। युवक विकास शिक्षित था और नगर में व्यवसाय करता था। विवाह में व्यय का दबाव नारायण पर पुनः था। दहेज की माँग तो प्रकट रूप से नहीं हुई थी, किन्तु विवाह का स्तर, वरयात्रा का स्वागत, वस्त्र, आभूषण- प्रत्येक वस्तु के लिए धन की आवश्यकता थी। नारायण ने पुनः कुछ भूमि गिरवी रखनी पड़ी। उनकी कृषि योग्य भूमि अब धीरे-धीरे संकुचित हो रही थी। विवाह का दिवस आया। गृह में आनंद था। लक्षिता वधू के रूप में सुसज्जित थी। नारायण उसे देखकर गद्गद् थे, किन्तु उनके मन में एक पीड़ा भी थी। वह प्रिय पुत्री, जिसे उन्होंने अंक में खिलाया, चोट लगने पर सहलाया, अब पराए घर जा रही थी। विदाई का समय आया। जब लक्षिता ने माता-पिता के चरण स्पर्श किए, तो नारायण ने उसका शीर्ष हाथों में ले लिया। उनकी दृष्टि जल से भर आईं। उन्होंने कुछ कहना चाहा, किन्तु कंठ अवरुद्ध हो गया। बस उसके शीर्ष पर हाथ फेरा और एक विवश सी मुस्कान के साथ उसे विदा किया। वरयात्रा जब गाँव से निकली, तो नारायण गृह के पिछले कक्ष में चले गए। वहाँ उन्होंने अपना मुख भित्ति की ओर करके खड़े हो गए। उनके स्कंध मंद गति से हिल रहे थे। मौन अश्रु उनके गालों पर बह रहे थे। पुत्री के जाने की वेदना, उसके भविष्य की चिंता, और विवाह के व्यय से उत्पन्न आर्थिक दबाव- सब कुछ उन अश्रुओं में समा गया। उस क्षण वे केवल एक पिता थे, जिसका हृदय विदीर्ण हो रहा था।
संतोष देवी ने दूर से यह दृश्य देखा, किन्तु वे भीतर नहीं गईं। वे जानती थीं कि पति को इस वेदना को एकाकी ही बहाने देना चाहिए। वर्ष बीतते गए। नारायण अब षष्टिवर्षीय हो चले थे। निरंतर कठोर परिश्रम, चिंता और अपर्याप्त पोषण ने उनके शरीर को क्षीण कर दिया था। पीठ की पीड़ा अब स्थायी बन चुकी थी। घुटने चलने-फिरने में कष्ट देते थे। चिकित्सक ने विश्राम करने को कहा था, किन्तु विश्राम करने का अर्थ था खेत की आय समाप्त हो जाना। इसलिए वे पीड़ा को दबाए, हाथ में लाठी टेकते हुए भी खेत पर जाते रहे। एक दिन खेत पर हल चलाते समय उनके पैर में तीव्र वेदना उठी। वे गिर पड़े। गौतम और सुनील ने उन्हें गृह लाया। चिकित्सक ने बताया कि कमर की नाड़ी दब गई है और उन्हें कम से कम एक मास पूर्ण विश्राम करना होगा। उस एक मास ने नारायण को मानसिक रूप से विखंडित कर दिया। खेत की फसल की चिंता सताने लगी। निष्क्रिय बैठे रहने से उन्हें अपनी उपयोगिता पर प्रश्न उठने लगे। वे उद्विग्न हो गए। अनेक बार व्यर्थ के कार्यों पर क्रोध प्रकट करते। संतोष देवी धैर्य से उनकी सेवा करतीं, उन्हें समझातीं, “अरे, तुमने तो जीवन भर कार्य किया है। अब थोड़ा विश्राम कर लो। बालक संभाल लेंगे।” किन्तु नारायण के लिए अन्यों पर आश्रित होना, विशेषकर अपनी ही सन्तान पर, एक अपमान सा था। यह वह पीड़ा थी जो उनके स्वाभिमान को आहत कर रही थी। किन्तु उनके तप और अभियान का फल अब दिखने लगा था। राजेश ने अपनी कृषि विज्ञान की उपाधि समाप्त कर ली थी और राज्य सरकार के कृषि विभाग में सेवा प्राप्त हो गई थी। वह गाँव वापस आया और नारायण के पास बैठकर कहा, “पिताजी, अब आप विश्राम कीजिए। गृह का दायित्व मुझ पर छोड़ दीजिए। मैं आधुनिक विधि से खेती करके हमारी आय बढ़ाऊँगा।” लक्षिता अपने ससुराल में सुखी थी। उसके पति ने उसे पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया था और अब वह गृह विज्ञान में डिप्लोमा कर रही थी। वह प्रायः दूरभाष करके पिता का समाचार लेती।
वर्षा ने गाँव के विद्यालय में ही शीर्ष स्थान प्राप्त किया था और अब नगर के महाविद्यालय में छात्रवृत्ति पर पढ़ रही थी। उसकी प्रतिभा नारायण के लिए परम प्रसन्नता थी। सुनील ने भी पॉलिटेक्निक पूर्ण कर ली थी। एक सांझ, गाँव के लघु सभास्थल पर नारायण अपने प्राचीन मित्रों के साथ बैठे थे। उनका पुत्र राजेश भी वहीं था। नारायण का मुख शांत था। उनके मित्र रामदीन ने कहा, “नारायण भाई, तुमने तो जीवन भर कठोर परिश्रम किया। अब तो तुम्हारे बालक पढ़-लिखकर उत्तम स्थान पर हैं। तुम्हें अब शांति से बैठना चाहिए।” नारायण ने मुस्कुराते हुए कहा, “हाँ रामदीन, बालकों को देखकर हृदय को शांति मिलती है।” उन्होंने राजेश की ओर देखा, जो गर्व से मुस्कुरा रहा था। किन्तु जब नारायण एकाकी हुए, तो उन्होंने अपनी पीठ को सहलाया। एक गंभीर श्वास ली। उनकी दृष्टि उस स्वर्ण नथ की ओर उठीं, जिसे संतोष ने कभी नहीं पहना। उन्होंने उन रात्रियों को स्मरण किया जब वे रुग्ण वर्षा के लिए चिकित्सक के पास दौड़े थे। उन्होंने उस अनावृष्टि को स्मरण किया, जब उनकी फसल मृत्यु के कगार पर थी। उन्होंने लक्षिता की विदाई के समय अपने हृदय के विदीर्ण होने को अनुभव किया। उन्होंने उस ऋण के भार को स्मरण किया, जिसने उन्हें रात्रियों की निद्रा हर ली थी। और उस वेदना को भी स्मरण किया जो अब उनकी अस्थियों में समा गई थी।
प्रत्येक सुख की कथा के पीछे, पिता के मौन संघर्ष और वेदना की एक गाथा छिपी होती है। नारायण गर्ग ने कभी शिकायत नहीं की। उनकी वेदना ने कभी अश्रु का रूप नहीं लिया, सिवाय उस एक विदाई के क्षण के। वह वेदना उनकी दृढ़ पीठ में, उनके कठोर हाथों में, उनकी गहन झुर्रियों में, और उनके मौन तप में समा गई थी। यही वेदना ही उनकी वास्तविक धरोहर थी- एक धरोहर जिसने उनकी सन्तति को दृढ़ किया, उनके स्वप्नों को पंख दिए, और उन्हें उस जीवन से ऊपर उठाया जिसे नारायण ने अपने रक्त-पसीने से सींचा था। उनका संतोष उनकी सन्तति की सफलता और सुख में था, चाहे उसकी कीमत उन्होंने अपने शरीर और मन की गहन पीड़ा से चुकाई थी। उनकी गाथा गाँव की मिट्टी सी सरल थी, किन्तु उसमें पितृत्व की वह मर्यादा और तप था जो अनमोल था। उनकी वेदना कभी व्यर्थ नहीं गई; वह उनकी संतानों के जीवन का आधार बन गई।
परिचय :- भारमल गर्ग “विलक्षण”
निवासी : सांचौर जालोर (राजस्थान)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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