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हड्डियों की चीख़…

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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“कृपया कमजोर दिल वाले इस रचना को नहीं पढ़ें“

अपने प्रतिष्ठान में, अपनी कुर्सी में गहराई से धँसा, कुछ मरीज़ों की हड्डियों और पसलियों को एक साथ मिला रहा था, तभी पास के प्लास्टर कक्ष से, जहाँ एक अधेड़ उम्र की महिला थी, उसके चिल्लाने की आवाज़ आई। साथ ही, प्लास्टर काटने के लिए इस्तेमाल की जा रही कटर मशीन की गड़गड़ाहट सुनाई दी, मानो कोई मशीनगन चल रही हो। यह प्लास्टर काटने का खौफनाक मंज़र किसी रामसे ब्रदर्स की हॉरर फ़िल्म से भी ज़्यादा डरावना। यूँ तो प्लास्टर काटने का समय मैं ओ.पी.डी. के बाद का रखता हूँ, इसका एक विशेष प्रयोजन है… मुझे आवाज़ के शोरगुल में बच्चों को पेरेंट्स की गोद में दुबकते सिसकते देखना अच्छा नहीं लगता। कई मरीज़, जिनका प्लास्टर लगना होता है, अपना इरादा बदल देते हैं। बोलते हैं- “साहब, प्लास्टर लगवाने का दर्द तो झेल लेंगे, लेकिन यह प्लास्टर काटते वक़्त का मंजर इतना खौफनाक हो सकता है, यह सोच कर ही डर लगने लगता है।”
यह प्लास्टर काटने का दृश्य न जाने कितनी महान हस्तियों और सेलिब्रिटी के जीवन के सबसे डरावने दुःस्वप्नों में से एक है, जो उनकी जीवनियों में उल्लिखित मिलता है। अब इस महिला की रामकहानी कहें- यह महिला इससे पहले चार बार प्लास्टर कटवाने आ चुकी है और चारों बार ही अपना इरादा बदलकर यहाँ से चम्पत हो चुकी है। आज भी इसके परिजन इसे ज़बरदस्ती पकड़कर लाए हैं। प्लास्टर जो एक महीने रखना था, उसे यह ढाई महीने खींच चुकी है! यूँ तो इस दुनिया में भाँति-भाँति के लोग होते हैं, लेकिन हमारी ऑर्थो की दुनिया में सिर्फ दो तरह के लोग होते हैं- एक वो जो प्लास्टर जल्दी कटवाना चाहते हैं, और दूसरे वो जो प्लास्टर लगवाना ही नहीं चाहते!
प्लास्टर लगवाने वाली कोई प्रजाति अगर होती तो शायद विलुप्ति के कगार पर होती। मुझे तो आजकल एक भी इस प्रजाति का बंदा मेरी ओ.पी.डी. में नहीं आया। जब प्लास्टर के लिए कहता हूँ तो मरीज़ को ऐसा सुनाई देता है, जैसे कोई जज किसी आपराधिक केस की पैरवी सुनने के बाद फैंसला सुना रहा है- “तमाम हालातों पर गौर करने के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुँची है कि मरीज़ को एक महीने के कड़े से कड़े प्लास्टर लगाने की सज़ा दी जाए।”
फिर मुजरिम के भेष में मरीज़ की असली गुहार शुरू होती है- “डॉक साहब, १० दिन का कर दीजिए… मेरी बच्चे की शादी है… भात का काम है… लड़की देखने आने वाले हैं… मेरे घर में तो कोई काम करने वाला नहीं है… मेड की महीने भर से छुट्टी चल रही है… छुट्टियाँ इतने नहीं मिलेंगी… मेडिकल चाहिए होगा, आप बना देंगे क्या?”
अगर कोई सरकारी कर्मचारी होता है तो उसकी यहाँ बचाव की दलील सटीक प्रहार करती है- “मैं कहता हूँ, मैं निजी चिकित्सक हूँ। मेरा मेडिकल चल जाए तो बना देता हूँ।” “नहीं, किसी सरकारी डॉक्टर से आपको सेटिंग रखनी चाहिए थी ना…”
कुछ लोग अपनी रसूख और ऊपर पहुँच का हवाला देते हुए जज साहब, यानी कि मुझ अभागे के निर्णय को बदलवाना चाहते हैं- “साहब, पैसे भले ही डबल ले लो लेकिन पट्टा १० दिन का कर दो… ऐसा पट्टा लगा दो जो १० दिन में ठीक कर दे।”

फिर कुछ लोग अपनी तरीके से डॉक्टर को धमकी भी देते हैं- “आपके फ़ैसले को दूसरी कोर्ट में चैलेंज किया जाएगा,” जिसे हम सेकंड ओपिनियन कहते हैं। वे अपनी पैरवी खुद करते नज़र आते हैं, गूगल संविधान के दफाओं का हवाला देते हुए- “डॉक साहब, इस फ्रैक्चर में तो क्रेप से काम चल जाएगा… आजकल रेडिमेड वाले प्लास्टर आते हैं… आप ये पुराने प्लास्टर-वलास्टर को लेकर ही चल रहे हैं।”
फिर दूसरे हॉस्पिटल की कोर्ट में जज रूपी डॉक्टर द्वारा दिए गए निर्णय का हवाला- “अरे डॉक्टर साहब, ऐसा ही फ्रैक्चर मेरे दोस्त को हुआ था फलाँ अस्पताल में, वहाँ तो प्लास्टर बोला ही नहीं, बस पाँच दिन की दवाई दी और ठीक।”

खैर, यह तो रोज़ की हमारी ओ.पी.डी. का दृश्य है, जिसके हम आदी हो चुके हैं। लेकिन ये महिला, जो आज प्लास्टर कक्ष में ज़िंदगी के सबसे बुरे दौर से गुज़र रही थी और डॉक्टर, अस्पताल स्टाफ तथा अटेंडेंट्स सभी को लताड़ रही थी- यह एक बिल्कुल ही अलग श्रेणी के “रेयरेस्ट” प्राणियों में से है। जिसने प्लास्टर लगवाते समय तो कोई बहस नहीं की थी, लेकिन काटवाने के वक्त किसी दूसरे मरीज़ का “लाइव प्लास्टर कटने” का सीन देख लिया था, और इसी दहशत में चार बार मेरे अस्पताल से भाग चुकी है। आज जब उसे पकड़कर लाया गया तो परिजन उसे सीधे ही प्लास्टर कक्ष में ले गए।
ओ.पी.डी. भरी हुई थी… आपातकालीन स्थिति थी… कहीं कैदी छूट न जाए, इसलिए मैं यह भी नहीं कह पाया कि ‘ओ.पी.डी. के बाद काटेंगे।’ परिजन की मेहनत उनके चेहरों पर साफ़ नज़र आ रही थी- जैसे कोई मुज़रिम बड़ी मुश्किल से पकड़कर काबू में लाया गया हो। पूरे दृश्य की नज़ाकत को समझते हुए मैं अपनी कुर्सी से उठा और प्लास्टर कक्ष की ओर गया। वहां देखा कि महिला को उसके दो मजबूत रिश्तेदारों ने पकड़ रखा था। एक रिश्तेदार सिर के पास खड़ा था, महिला का सिर लगभग उल्टा करके इस भयानक दृश्य को उसे न दिखाने की कोशिश कर रहा
था। महिला अपनी तीखी आवाज़ में चिल्ला रही थी, प्लास्टर काटने वाली मशीन चलाने वाले स्टाफ से इस यातना से मुक्ति दिलाने की विनती कर रही थी- और संभवतः मन ही मन प्लास्टर काटने वाले स्टाफ को जल्लाद मानकर गालियाँ भी दे रही होगी।
लेकिन स्टाफ भी इस हलचल भरे माहौल का अभ्यस्त था- और अनवरत अपने कार्य को अंजाम दे रहा था। अंततः, साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाकर प्लास्टर काटा गया। साम के रूप में उसे प्लास्टर की इस कैद से मुक्त जीवन और खुली सांस वाले जीवन का महत्व समझाया गया। दाम के रूप में प्लास्टर काटने के लिए दिए गए शुल्क का वापस न मिलने की आर्थिक हानि का डर दिखाया गया। दंड के रूप में उसके बेटे ने उसे डराया कि अगली बार नहीं आएंगे, फिर भुगतते रहना इस प्लास्टर के साथ। और भेद के रूप में यह कहकर ब्लैकमेल किया
गया कि अगर प्लास्टर ज़्यादा दिन रखा गया तो- गर्मी का समय है- पैर सड़ जाएगा। खैर, जैसे-तैसे प्लास्टर काटा गया, और परिजन व अस्पताल स्टाफ के चेहरों पर राहत की मुस्कान आई।
प्लास्टर कटते ही महिला बाहर जाकर ऑटो में बैठ गई। परिजन ही मरीज़ को फॉलो-अप दिखाने, क्रेप बैंडेज बाँधने आदि के निर्देश मुझसे लेते रहे। माहौल शांत हुआ तो बच्चे- जो अब तक पेरेंट्स की गोद में दुबके हुए थे – वापस मेरे वेटिंग रूम की कुर्सियों की गद्दियों से रूई निकालने में व्यस्त हो गए। कुछ मरीज़ जो इस दौरान “सीन” गुजर जाने की प्रतीक्षा में बाहर चले गए थे, वापस वेटिंग रूम में आ गए। बाहर कुछ खुसर-पुसर भी हो रही थी। एक मरीज़ कह रहा था – “ये मशीन बहुत आवाज़ करती है, आजकल तो ऐसी मशीने आती हैं जो बिल्कुल आवाज़ नहीं करतीं। मैंने फलां हॉस्पिटल में देखा था। डॉक्टर साहब भी पुरानी धारवाली से ही काम चला रहे हैं, लेकिन फीस पूरी लेते हैं।

तो लब्बोलुआब यह है कि अगर आप भी कभी गुज़रे हैं प्लास्टर कटाई के इस खतरनाक मंज़र से, तो यह रामकहानी आपको अपनी-सी लगेगी। फिलहाल, हम इतना ही कहेंगे- और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा… कभी एक अदद प्लास्टर कटवा कर तो देखो यारो!

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से), काव्य कुम्भ (साझा संकलन) नीलम पब्लिकेशन, काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन ) लायंस पब्लिकेशन।
प्रकाशनाधीन : व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन )  किताबगंज   प्रकाशन,  गिरने में क्या हर्ज है -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह) भावना प्रकाशन। देश विदेश के जाने माने दैनिकी, साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित 
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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