
बृज गोयल
मवाना रोड, (मेरठ)
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आज तिलक का पुणे से पत्र आया है। मैं पढ़कर आत्म विभोर हो गई हूं… जो सिर्फ स्वप्न मात्र था आज साकार रूप में फलदार छाया वाला कल्पवृक्ष बन, मेरे सामने पनप रहा है। उसकी छाया में मेरा तन मन प्रफुलित हो गया है, आज तो सचमुच ऐसा लग रहा है कि तपते रेगिस्तान में चलते-चलते थक कर, आज शीतल शांत छल-छल बहती सरिता के किनारे आ बैठी हूं, जहां सुंदर उपवन है, कुहुकती कोयल है, आज तो पुरवाई बयार भी संगीतमय लग रही है। तिलक डॉक्टर बन गया है। मैं बार-बार पढ़कर भी जैसे विश्वास नहीं कर पा रही थी। अलट पलट कर
पत्र पढ़ते-पढ़ते में बीते दिनों में चली गई। विपुल के रूखे व्यवहार से मैं तंग थी। बच्चे भी विपुल के घर में रहते आतंकित से रहते थे। एक भय
का साया सा मंडराता रहता था। सब चुप और दुपके दुपके से रहते थे। न जाने कब किसकी तबाही आ जाए… एक दिन विपुल नहा रहे थे, मैं किचन में थी, तिलक और तनुजा स्कूल जाने की तैयारी में लगे थे कि अचानक बिल्कुल तूफान की तरह उबले हुए आए और बोले तुम सब बहरे हो, तुम्हें सुनाई नहीं देता है, बाहर मुझे कोई आवाज दे दे कर चला गया है, मेरा तो नहाना-खाना ही मुहाल हो गया है। तुम सब नमक हराम हो। वह बडबडाते चले जा रहे थे। मैं और बच्चे सांस खींचे सुन रहे थे। इतने में ऊपर रहने वाली मिसेज गुप्ता आई और सधे शब्दों में बोली भाईसाहब, वह साहब हमारे यहां आए थे और इनको पूछ रहे थे। तब कहीं जाकर हमारे घर में दावानल शांत हुआ और मैंने शुक्रिया भरी निगाह से उनकी तरफ देखा वह मुस्कुराकर चली गई।
ऊपर वाले फ्लैट में कुछ दिन पहले ही यह गुप्ता परिवार आया था कुछ ज्यादा जान पहचान नहीं थी। मैं जान बूझकर सबसे अलग-थलग रहने का प्रयास करती थी… कि ना जाने कब कौन किसके सामने कौन सी मुसीबत खड़ी हो जाए और नाहक शर्मिंदगी उठानी पड़े। लेकिन उस दिन के उनके कुशल व्यवहार ने मुझे उनकी सहेली बना दिया और अब हम दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई। एक बार विपुल अपने गांव गए थे, दो-तीन बाद उन्हें लौटना था मैं बराबर इंतजार कर रही थी कि श्रीमती गुप्ता आ गई और बैठे-बैठे तीन बज गए। विपुल नहीं आए वह मुझे खा लेने का आग्रह करने लगी मुझे भी भूख लगी थी तो खाना खा लेने का आग्रह करने लगे मुझे भी भूख लगी थी तो खाना परोस लाई, तुरंत ही मुझे घंटी सुनाई थी और मैं दरवाजे की तरफ दौड़ गई। दरवाजा खोलने में शायद दो-चार सेकंड लग गए थे… सो देखते ही दहाड़े- ‘ तुम्हें मालूम तो था ही कि मैं आज आने वाला हूं।‘ विपुल को दहाड़ता देख मिसेज गुप्ता पैर दबाकर भाग खड़ी हुई और मैं अपने नसीब को धिक्कारती
रह गई।
कुछ दिन बाद हमने अपना दो कमरों का फ्लैट ले लिया और हम मेरठ में ही बस गए। फिर विपुल का ट्रांसफर देहरादून हो गया। मैं और बच्चे यहीं रह गए। विपुल जब जाते तो खर्च के लिए गिनकर कुछ रुपए दे जाते थे और आते ही सबसे पहले खर्च की डायरी चेक करते। अगर कहीं कुछ भूल चूक हो जाती तो सौ सुनाते थे। लाख चौकन्ना होने पर भी पर भी कुछ गलती हो ही जाती थी।
एक बार २०रु..७० पैसे की ३ किलो चीनी लिखना भूल गई। बस फिर क्या था जमीन आसमान एक हो गया। विपुल तीन दिन रुके… जैसे तीन युग का कहर ढा दिया। इतना याद करने की कोशिश की मगर मजाल है जो दिमाग का एक पुर्जा भी चला हो, जैसे सबको भय का जंग लग गया था। तीन दिन बाद विपुल गए। जैसे ही दिमाग पर से भय का कोहरा छँटा, तुरंत याद आ गया कि राशन से चीनी मंगवाई थी। ऐसे ही एक बार मिट्टी का तेल लिखना भूल गए थे तो फिर वही तनाव ग्रस्त सांसें झेलनी पड़ी थी। बच्चे अलग सहमे सहमे से रहते थे। अब तो मैंने और तिलक ने कान पकड़कर, नाक रगड़कर कसम खा ली थी कि विपुल के आने से पहले स्वयं डायरी पूरी कर दिया करेंगे। जब विपुल को डायरी में कुछ नहीं मिला तो बोले- ‘मैं तुम्हें इतने रुपए नहीं दे सकता जितना तुम खर्च करते हो।‘ मैंने शांत भाव से कहा ‘जो चीज आपको बिना जरुरत लगे उसे पर निशान लगा दो आगे से नहीं लेंगे।‘
फिर बोले- ‘एक कमरा किराए पर दे दो, तुम्हारे लिए एक ही काफी है।‘ कमरे में जो सज्जन आए वह स्वभाव से अच्छे थे तिलक और तनुजा उनके पास चले जाते थे और उनसे पढ़ लिख लेते थे। बच्चे खूब घुल मिल गए थे लेकिन जब विपुल यहां होते थे तो बच्चे वहां नहीं जाते थे। अंदर ही छिपे रहते थे। एक दिन उन्होंने गुप्ता जी से पूछा- “भाई साहब आपके आने पर तिलक, तनुजा अंदर ही अंदर क्यों रहते हैं… मेरे पास नहीं आते हैं…?” तो जनाब ने लट्ठ सा जमाते हुए कहा- “ठीक है, मैं नहीं आया करूंगा अगर सब तुमसे खुश रहते हैं।“ वह सज्जन घबरा गए, हकलाते से बोले “मेरा यह मतलब नहीं था… मैं तो बस यूं ही पूछ बैठा था अगर आपको अच्छा नहीं लगा तो माफी चाहता हूं।“ उसके कुछ दिनों बाद उन्होंने कमरा ही छोड़ दिया था। फिर इन्होंने अपने गांव के चौधरी को कमरा दे दिया था। चौधरी साहब कहीं बाहर गए थे। पीछे उनके पिताजी आ गए। दरवाजे पर ताला देख कर भड़क गए। कहीं पड़ी ईंट उठाकर ताला तोड़ने लगे। खट खट की आवाज सुनकर मैं बाहर आई तो देखा एक मूंछ वाले पहलवान ताला तोड़ रहे हैं। मैंने तुरंत उनको रोका और परिचय भी जानना चाहा साथ ही यह भी बताया कि “वह मेरे रहते यह ताला नहीं तोड़ सकते हैं। किसी का लगा ताला तोड़ना कानूनी तौर पर जुर्म है।“ उन्होंने सफाई देते हुए कहा- “क्या बेटे का कमरा होते हुए होटल में रुकूंगा।”
मैंने कहा- “मजबूरी है मैं अकेली हूं फिर आपको पहचानती भी नहीं हूं आपको आने से पूर्व सूचना देनी थी।“ बस इसी बात पर बिगड़ गए। मैं भी अपनी बात पर अड़ी रही और उनको वापस जाना पड़ा। लेकिन मैं मन ही मन बहुत डर रही थी कि न जाने चौधरी साहब जाकर क्या कहें, इधर इनका भय सिर पर सवार था… बात क्या से क्या बनेगी यह सोचते सोचते बेहद परेशान थी। कुछ दिन बाद विपुल गांव गए तो लौटने पर बोले- “तुम्हारी चौधरी चाचा से क्या बहस हुई थी?”
मैं एकदम घबरा गई डरते डरते बोली- “बहस जैसा तो कुछ नहीं हुआ था। हां, ताला तोड़ने के लिए मैंने जरूर मना किया था। अगर इसमें कुछ गलत बोल दिया हो तो माफी मांगने को तैयार हूं।“ “अरे नहीं वह तो तुम्हें वकील बता रहे थे और पूछ रहे थे तेरी बहू कितनी पढ़ी है जो इतने चुनिंदा शब्द बोलती है मुझे तो उससे बात करने में आनंद आ रहा था सो जानबूझकर बहस करता रहा लेकिन वह लड़की सुधरी वकील की तरह चुने हुए शब्दों पर हावी रही अरे विपुल तू तो बड़ा भाग्यवान है जो तुझे ऐसी विनम्र बहू मिली है।“ सुनकर मुझे यकीन नहीं आया मैं सहमी-सहमी सी मात्र उनका चेहरा देखती रही।
निवासी : राधा गार्डन, मवाना रोड, (मेरठ)
घोषणा : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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