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काल के कपाल पर

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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कहते हैं, काल के कपाल पर पहले से ही हमारा भूत, वर्तमान और भविष्य अंकित होता है- हम बस वही जीते हैं जो ऊपर वाले ने लिख दिया है। पर कभी-कभी मन करता है कि इस ‘कॉस्मिक पांडुलिपि’ में एक-दो पंक्तियाँ अपनी मर्ज़ी की भी जोड़ दी जाएँ- कम-से-कम एक “फुटनोट” तो लेखक स्वयं भी लिख सके! मेरा मन तो बस इतना चाहता है कि जीवन के इस साहित्यिक कापी पर कहीं लिखा जाए- “यह लेखक किसी गुट का हिस्सा है।” क्योंकि बिना गुट के लेखक का हाल वैसा ही होता है जैसे गली में अकेली चलती अबला- हर किसी की नजर में ‘खतरा’। जबसे कहा है कि “मैं किसी गुट का नहीं”, तबसे मुझ पर शोध-प्रबंध शुरू हो गया है- कौन-से शब्दों से मेरी विचारधारा झलकती है, किस पंक्ति में कौन-सा खेमापन है। साहित्य में गुटबाज़ी आज मठों का नया धर्म है- जहाँ नए लेखक मुर्गों की तरह पाले जाते हैं, हलाल के पहले तक खूब खिलाए-पिलाए जाते हैं। मैं सोचता हूँ- हलाल तो होना ही है, तो क्यों न किसी संपन्न मठ का हिस्सा बन जाऊँ! बिना गुट का लेखक वैसा ही है जैसे निर्दलीय उम्मीदवार-न जीत पक्की, न हार तय। जीतता है तो भी कोई पूछता नहीं, हारता है तो सब ‘इंडिपेंडेंट’ कहकर हँसते हैं। किसी मठ में शामिल हो लूँ तो शायद मेरे लेखन का वजन बढ़ जाए, वरना मेरे पन्ने तो निंदा और उपेक्षा की हवाओं में उड़ते रहेंगे।

सोचता हूँ, अगर कभी मुझे अपने कपाल पर खुद लिखने की छूट मिले तो मैं आत्मकथा ही लिख दूँ- “संघर्षों का संन्यासी, अभावों का अवतार।” कुछ पुरानी रचनाएँ, कुछ कबाड़ से जोड़-घटाकर “मेरी ५१ श्रेष्ठ रचनाएँ” नामक पुस्तक निकाल दूँ। कुछ किताबें कोर्स में लग जाएँ, तो जीवन धन्य! अगर कोई प्रकाशक साथ न दे, तो खुद का ही प्रकाशक बन जाऊँ- कम से कम अस्वीकृति के खतों का दुख नहीं रहेगा। और अगर लेखन से ऊब जाऊँ, तो आलोचक बन जाऊँ- क्योंकि आलोचना ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहाँ न लेखन चाहिए, न प्रेरणा, बस शब्दों की तोप चाहिए। मेरी योजना साफ़ है- कुछ छात्र मेरी रचनाओं पर शोध कर लें, वही रचनाएँ जिन पर कभी संपादक ने “हमें खेद है” लिखकर लौटा दी थीं। यही तो लेखक की यात्रा है- संपादक के खेद से लेकर शोधार्थी के शोध तक। फिर अपने दादाजी की स्मृति में एक पुरस्कार भी स्थापित कर दूँ—साहित्य सेवा में दादाजी का कालजयी योगदान तो था ही, वे गाँव में लोकगीत सुनते थे! पुरस्कार की राशि थोड़ी कम रखूँ ताकि ज्यादा लोग सम्मानित हों, और जो मना करें, उनके ख़िलाफ़ साहित्यिक समाज में बहिष्कार प्रस्ताव पास कर दूँ।

अगले जन्म में अगर भगवान पूछें तो यही कहूँगा- “मुझे आलोचक बनाना।” मैंने पहले से तैयार टेम्पलेट रखे हैं; बस नाम बदलकर किसी की भी आलोचना प्रकाशित कर सकता हूँ। ‘सम’ और ‘विषम’ का अपना फॉर्मूला रहेगा- मेरे गुट की रचनाएँ सम, दूसरों की विषम। अगर शरीर थोड़ा बलशाली हुआ तो साहित्यिक सेमिनारों में लात-घूँसे भी चला दूँ- क्योंकि आजकल विचारों से नहीं, हाथों से विमर्श होता है। दो-चार अकादमियों की कुर्सियाँ मिल जाएँ, सरकारी खर्चे पर विदेश भ्रमण हो जाए तो और भी अच्छा- क्योंकि हिंदी का प्रचार भारत में नहीं, विदेश में जाकर ही संभव है! वहाँ के साहित्य को हिंदी में अनुवाद करके हम उसे “भारतीय” कह देंगे- अंतरराष्ट्रीयता का नया फॉर्मूला यही है।

सोचता हूँ, क्यों न हिंदी में थोड़ा विदेशी तड़का लगाया जाए- विदेशी बाला और विदेशी दारू का स्वाद हिंदी को भी वैश्विक बना देगा। कुछ ‘अश्लील साहित्य’ भी लिख दूँ, ताकि मुझे आधुनिक लेखक माना जाए। और अगर सरकार में कोई सलाहकार पद या राज्यसभा की सीट मिल जाए, तो इस कपाल का लेखन सफल कहा जाएगा। साहित्य को मैं व्यावहारिक बनाना चाहता हूँ- मतलब व्यावसायिक। साहित्य अब जीने की नहीं, जीमने की कला है। बीज मैं लगाऊँगा, खाद-सिंचाई सिफारिश और चापलूसी से करूंगा, और जब यह वटवृक्ष पनपेगा, तो इसके नीचे के सारे छोटे पौधे (दूसरे लेखक) छाँव में मुरझा जाएँगे। अब सोचता हूँ कि अपनी कुछ रचनाएँ टाइम कैप्सूल में गाड़ दूँ। जब प्रकाशक कहते हैं कि “हम सौ साल पुरानी रचनाएँ ही छापते हैं,” तो मैं सौ साल पहले का लेखक बनकर रह जाऊँ। घरवालों पर भरोसा नहीं- कहीं मेरी तेरहवीं के भोज का खर्च मेरी पांडुलिपि बेचकर न निकाल दें! इसलिए रचनाएँ ज़मीन में गाड़ देना ही बेहतर है- ताकि जब काल का कपाल फिर खुले, तो मेरी रचनाएँ कालजयी कहलाएँ। अब तो लगता है, कपाल की कॉपी भर चुकी है- सप्लीमेंट्री शीट का प्रावधान नहीं। इसलिए यहीं रुकता हूँ। जो लिखा है, वही काल के कपाल पर स्थायी अंकित रहे।

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से), काव्य कुम्भ (साझा संकलन) नीलम पब्लिकेशन, काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन) लायंस पब्लिकेशन।
प्रकाशनाधीन : व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन)  किताबगंज   प्रकाशन,  गिरने में क्या हर्ज है -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह) भावना प्रकाशन। देश विदेश के जाने माने दैनिकी, साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित 
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।

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