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बस दो शब्द

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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कहते हैं, शब्दों का प्रयोग सोच-समझकर करना चाहिए। शब्द वो हथियार हैं जो घाव भी करते हैं और मलहम भी लगाते हैं। इन्हें ब्रह्मस्वरूप माना गया है। शायद इसी कारण “दो शब्द” का कॉन्सेप्ट जन्मा। मंचों पर अक्सर देखा जाता है कि वक्ता से “दो शब्द”कहने का अनुरोध किया जाता है। मगर “दो शब्द” की सच्चाई इससे कहीं आगे है। दो शब्द आपको सही कहने में जायें तो आपको कोई भी भाषाधिकारी, वादव्य, वाकपति, वाक्य विशारद वागीश, शब्देश्वर, ब्राह्मणोत्तम, शब्द शिल्पकार, वाक नायक, वागीश्वर, वाग्मी, वाग्विलासी, वाचस्पति, वादेंद्र, वाद वित्त, विदग्ध, साहबे जबा, सुवक्ता, सुवग्नी कहलाने से नहीं रोक सकताl
शब्द बड़े हिसाब से खर्च करने चाहिए, इसलिए मौन को मूर्खों का आभूषण बताया गया है। क्योंकि मूर्ख अगर मौन ही रहें तो ठीक है, बोलने के बाद अपनी वो मूर्खता का परिचय दे देते हैं। कई बार मुझे लगता है, जो तथाकथित बुद्धिमता का चोगा ओढ़े हुए हैं, उन्हें भी शायद “दो शब्द” बोलने के लिए इसलिए ही कहा जाता है। कई बार देखा है कि “दो शब्द” से ज्यादा बोलते ही इनकी बुद्धिमता का चढ़ा हुआ प्लास्टर झड़ने लगता है। कुछ गिने-चुने, दो या तीन शब्दों से मिलकर बने वाक्य किसी का भाग्य बदल देते हैं, तो किसी को जीने के लाले पड़ जाते हैं। डॉक्टर का बोला गया “आई एम सॉरी” या “बधाई हो” जीवन और मृत्यु की कड़ी है। मोबाइल में आया तीन शब्दों का संदेश “सैलरी इज़ क्रेडिटेड” कर्मकार के महीने भर के बजट की घोषणा है। प्रेमिका का “आई लव यू” और “नीड टू टॉक टू यू” बस, इन्हीं के बीच समस्त प्रेम कहानी की टाइमलाइन है।
नौकरी का घाटा है, दाल और आटा तो उपलब्ध नहीं, लेकिन डाटा की उपलब्धता भरपूर है। इसलिए हर कोई शब्दों की वमन करने लगा है सोशल मीडिया पर। शब्दों को नया नाम दे दिया गया है “कंटेंट”। हर जगह थोक में उत्पादन हो रहा है। अब सबसे बड़ी समस्या आन पडी इस कचरे के निस्तारण की। दिमाग में भरा तो नगरपालिका के यत्र तत्र सर्वत्र विद्यमान कचरे की तरहा उफान मारने लगा। ऐसी सदांड की पास से निकलना मुश्किल..आदमी चलता फिरता कचरा दान बन गया ! “दो शब्द” बोलने का मौका हर किसी ऐरे-गैरे-नाथू-खैरे को नहीं मिलता, साहब! होते हैं हर शहर में कुछ ऐसे दो शब्द बोलने वाले, जो किसी भी टॉपिक पर, कहीं भी दो शब्द बोलने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। चाहे वह तीये की बैठक हो, संस्था कार्यक्रम हो, उद्घाटन हो या चिंतन-भाषण, हर जगह इनकी ही पूछ रहती है।
अब यह दो शब्द बोलने की कला भी दो प्रकार की होती है। पहली, वो जो डोनेशन के सहारे दो शब्द बोलने का लाइसेंस पाते हैं। दूसरी, वो जो बिना एक धेला खर्च किए ही इस श्रेणी में बैकडोर से वाइल्ड कार्ड एंट्री पा जाते हैं। ये जन्मजात ही दो शब्द बोलने के लिए पैदा हुए हैं। जहां चार आदमी दिखें, वहां इनके दो शब्द बरबस निकल पड़ते हैं। एक महाशय मंच पर अड़ गए। उनसे कहा गया दो शब्द बोलने को। उन्होंने २१ हज़ार शब्द बोले। उनसे इस प्रकार की प्रताड़ना का प्रयोजन पूछा गया, तो बोले, “भैया, २१ हज़ार दिए हैं डोनेशन में। अब स्साला २१ हज़ार शब्द भी नहीं बोलें तो क्या करें?”

जहां तक मेरा सवाल है, मेरी ज़िंदगी भी इन दो शब्दों के सहारे चल रही है। मुझे तो आभार और कृपया जैसे दो शब्द ही पर्याप्त लगते हैं। ज़िंदगी इन्हीं के सहारे बिंदास चलती है। आप किसी को भी तकलीफ दे सकते हैं, और कोई भी आपको तकलीफ दे सकता है। बस दो शब्द आपकी जेब में हमेशा तैयार होने चाहिए, बिलकुल इमरजेंसी फंड की तरह। जैसे सबके अपने अपने राम होते हैं ऐसे ही सबके अपने-अपने दो शब्द होते हैं। जैसे: नेता के लिए: “भाइयो और बहनों” संपादक के लिए: “खेद है” प्रकाशक के लिए: “किताबें नहीं बिकीं” : “रॉयल्टी तेल लेने गयी” लेखक के लिए: “पांडुलिपि गुम हो गई”
बीवी: “सुनो जी”
पति: “तुम सही हो”
प्रेमी: “जानू प्लीज़”
प्रेमिका: “शॉपिंग कब?”
ऑफिसर: “लीव अप्रूवल पेंडिंग”
कर्मचारी: “साहब, छुट्टी”
मंत्री: “खजाना खाली”
ठेकेदार: “बिल पेंडिंग”
डॉक्टर: “सॉरी”
अभिनेता: “कैमरा, रोल, एक्शन”
गायक: “हेलो, हेलो माइक टेस्टिंग”
क्रिकेटर: “नो बॉल”
कुंवारा: “शादी कब?”
सास: “कैसी बहू?”
पड़ोसी: “चाय फीकी रखना”
शिक्षक: “होमवर्क कहाँ?”
ऐसे ही दो शब्द बोलने वाले एक बुद्धिजीवी प्राणी को हमें आमंत्रित करने का दुर्भाग्य प्राप्त हुआ। हम उनके घर पहुंचे। बाहर कॉल बेल की घंटी बजाई तो उनका कुत्ता गेट पर आकर दो शब्द बोलता नज़र आया। उसकी भाषा हम ज्यादा समझ नहीं पाए। तभी साहब भी दरवाजे पर आ गए। उन्होंने इशारों-इशारों में कुत्ते को पीछे किया। कुत्ता अपने “दो शब्द” अपनी पूंछ के साथ दबाकर कोने में चला गया। साहब ने एक मुस्कान फेंकी- बिल्कुल उनकी बातों की कृपणता की तरह, जो उनके मुंह के एक कोने से बस निकलने की कोशिश कर रही थी। हम अंदर आ गए। ड्रॉइंग रूम का इंटीरियर देखकर लगा कि बुद्धीजीवी से सबंधित हर सजीव निर्जीव चीजों को बुद्धिजीवियों के मानदंड पर खरा उतरन होता है। दीवार पर तीन-चार फ्रेम में उनके जैसे ही आदर्श बुद्धिजीवी टंगे हुए थे। ड्रॉइंग रूम में शेल्फ लगे हुए थे, जिन पर उनकी लिखी लगभग ५० किताबें झांक रही थीं। कुछ किताबें सेंटर टेबल पर उलटी पड़ी थीं, उनके शीर्षक साफ नज़र आ रहे थे। उनका चश्मा भी उन्हीं किताबों के ऊपर पड़ा हुआ था, मानो वह भी उनकी बुद्धिमता का बोझ सहने से थक गया हो। साहब की गंभीर आँखें, सोफे पर बैठने का तरीका और चेहरा- सब कुछ “बुद्धिजीवी” का ठप्पा लगाए हुए था।

उन्होंने अपना शरीर ऐसे ट्विस्ट किया था कि हमें पूरा देखने का कष्ट न करना पड़े। शायद उनका तेज़ हमें संभालने में कठिनाई पैदा कर देता। जब उन्हें पता चला कि मैं एक नया लेखक हूँ, तो उन्होंने बिना किसी भूमिका के पूछ डाला, “मेरी कितनी किताबें पढ़ी हैं?” मैं सहम गया। उनसे पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि आपकी कौन-कौन सी किताबें हैं, जो कभी मेरे संज्ञान में नहीं आईं। आत्मग्लानि से भर उठा। लगा कि बिना उन्हें पढ़े मैं खुद को लेखक कैसे कह सकता हूँ। मैंने अपने साथ आए व्यक्ति को इशारा किया आमंत्रण पात्र उन्हें थमा दिया और तुरंत वहां से निकलने की
कोशिश की। इससे पहले कि साहब अपने और शब्द हम जैसे नाचीजों पर खर्च करते, हम बाहर आ चुके थे।

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से), काव्य कुम्भ (साझा संकलन) नीलम पब्लिकेशन, काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन ) लायंस पब्लिकेशन।
प्रकाशनाधीन : व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन )  किताबगंज   प्रकाशन,  गिरने में क्या हर्ज है -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह) भावना प्रकाशन। देश विदेश के जाने माने दैनिकी, साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित 
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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