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स्वयं ही स्वयं को पहचानिये

माधवी तारे
लंदन
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बचपन से एक मराठी गीत रेडियो पर सुनना अच्छा लगता था। सुधीर फडके जी के स्वरों में वह गीत बहुत मधुर लगता। उसका अर्थ कुछ ऐसा था कि मानव जन्म में ही मनुष्य से देवत्व प्राप्त करने किया जा सकता है यही तुलसी रामायण का एक मुख्य तत्व है।
यह लेख भी कुछ ऐसे ही विचारों से भरपूर है। हम अक्सर देखते हैं कि मनुष्य को स्वर्ण की बहुत चाह होती है। और इसी से आंका जाता है कि व्यक्ति कितना संपन्न है। इस शरीर के सौंदर्य में स्वर्ण और चांदी चार चांद लगाते हैं। लेकिन हम ये अक्सर भूल जाते हैं कि इस ईश्वर प्रदत्त शरीर की कीमत सोने चांदी से कहीं अधिक है और बहुत मूल्यवान है। लेकिन मनुष्य चौर्यमयी सोने का अधिक जतन करता है और शरीर रूपी सोने को बिलकुल भूल जाता है। हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि अनेक योनियों में भटकने के बाद हमें मनुष्य जन्म की प्राप्ति हुई है।

सोने की लंका के गुणगान गाते-गाते हम भूल जाते हैं कि हमें ये जो देह मिली है वह सोने से भी अधिक मूल्यवान है। सोने की लंका को तो श्रीराम के सेवक ने ही अपनी पूंछ में लगाई गई आग से भस्मसात कर दिया था। वो कैसे अमूल्य हो सकती है। हमारा ये शरीर रम्य स्वर्णमयी लंका से कैसे अधिक मूल्य रखता है आज हम यह समझते हैं। जैसे लंका सत्तर प्रतिशत पानी से घिरी हुई है वैसे ही हमारी देह में सत्तर फीसदी पानी है। विशाल क्षीरसागर में जैसे शेषशायी विष्णु हैं वैसे ही नरदेह में उन्ही का अंश विराजित है। आत्माराम के इस शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियों के अश्व हैं, दो हाथ-पैर, पास पास रहने वाली लेकिन एक जैसी दो आंखें हैं। उसमें कोई भेदभाव नहीं, शरीर में सभी जगह फैली हुई नसें आत्मारूपी हृद्सागर में रक्त पहुंचाने वाली नदियां ही हैं।
हमारा शरीर अपने आप बढ़ता है, उत्पन्न होता है, और हमारे विचारों से कर्मों की कृति होती रहती है। कर्मफल भी अपने आप ही प्राप्त होते हैं। सब कुछ निश्चित है। ये सभी करने वाला ईश्वर अपने अंश के लिये सारा प्रपंच करता है। आत्माराम ने शरीर के रूप में पूरी नगरी बिठाई है, प्रबंधन के सभी पाठ हम शरीर की क्रियाओं से पढ़ सकते हैं। छाती अपने आप वायु का नियोजन करती है, भूमि आंतों को हिलाती है। आकाश सर्वव्यापी है। जठारग्नि होम प्रज्ज्वलित करती है। पंच और अहम तत्व सर्वत्र है। मैं कोई हूं- ये धारणा इतनी प्रबल है कि हर व्यक्ति उसी में मुग्ध और डूबा हुआ रहता है। मैं का होना स्वर्ग प्राप्त करने की धारणा से प्रखर होती है।

शरीर रूपी लंका की थाह पाने के लिये आर्तता, भक्ति एक मार्ग बनाती है। इसी से परमात्मा का मिलन संभव हो सकता है। भक्ति से मन में लहरियों का निर्माण होता है। अगर बार-बार हम अपने चित्त को इस ओर ले जाते रहें को भगवतप्राप्ति का मार्ग सुदृढ़ हो सकता है।
इस पुकार का रुपांतर धीरे-धीरे अनहद नाद में होता है। देह में बसा परमात्मा जागृत होता है और फिर जिसे नरदेह रुपी प्रसाद प्राप्त होता है उसी के स्वर्ण कमल प्राप्त होता है अर्थात ईश्वर से जुड़ा नरदेह प्राप्त होने पर ऐश्वर्य निश्चित ही प्राप्त होगा। देह रूपी नगरी यह ईश्वर की कीर्ति है। उसके भजन पूजन में पूर्ण रूप से रममाण होने पर आनंद की लहरियां आंखों से बहने लगती हैं। इन अश्रुओं से देह में उपस्थित विष्णु का चरण वंदनहोता है और नाद अंतर्नाद में बदल जाता है। धीरे-धीरे मानव को ये समझ में आने लगता है कि मैं उस परमतत्व का ही एक अंश हूं, अविभक्त हूं और परमात्मा से जुड़ा हुआ हूं। तब मां की तरह ईश्वर भी हमारी पुकार को सुन अपने पास ले लेता है। उसे सबकी पुकार सुनाई देती है। ईश्वर प्राप्ति का एक मार्ग गुरु सेवा भी है। अगर हम अनेक वर्षों सातत्य से गुरु सेवा में तल्लीन रहें तो लाभ निश्चित ही प्राप्त होता है पर सेवा बिना किसी लाभ की आशा के होनी चाहिये। सद्विचारों और गुरुभक्ति की सुगंध समय के साथ बाहर भी फैलने लगती है। व्यक्ति को यह समझ में आने लगता है कि सारे वैभव के सामने मैं कुछ नहीं हूं और ईश्वर और मैं भी एक ही हूं। तो इस शरीर रुपी लंका की दासी होना कमलजा क्या स्वीकार करेगी? इसीलिये राम की सेवा में अखंड रहने वाले लक्ष्मण ने कहा कि “अपी स्वर्णमयी लंका न में राघवः रोचते….”

परिचय :-  माधवी तारे
वर्तमान निवास : लंदन
मूल निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
अध्यक्ष : अंतर्राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच (लन्दन शाखा)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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