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अंतिम दर्शन का दर्शन शास्त्र

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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जीवन क्या है- पानी का एक बुलबुला है, साहब! दिन-रात हम लगे रहते हैं- भागदौड़ में… निन्यानवे के फेर में… और कब ऊपर वाले का इशारा हो जाए, साहब, पता ही नहीं चलता। पाप-पुण्य की गठरी… भवसागर… मोक्ष… ऐसी मौत सभी को नसीब हो, साहब! माया, धन, समृद्धि, वैभव- नाम सब धरे रह जाते हैं, साहब। बस, कब ऊपर वाले का बुलावा आ जाए, कह नहीं सकते! साथ जाएगा तो राम-नाम ही, और आपके भले कर्म ही। भारतीय दर्शन शास्त्र अब कहीं बचा है, तो इसी क्षणिक वार्ता में, जो अक्सर किसी शवयात्रा में शामिल लोग अपने मुख से उच्चारित करते ही हैं। ये बातें प्रायः टाइमपास के लिए, मृतक के दुख में औपचारिक रूप से शामिल होने के प्रमाण के रूप में, और यह अपेक्षा लेकर कही जाती हैं कि जब हमारी बारी आए, तो हमारे बारे में भी लोग ऐसा ही कुछ कहें।
लेकिन यह सब विधिवत संपन्न तब ही हो सकता है, मित्र, जब मरने वाला अपनी अंत्येष्टि समय पर करवा ले… ऐसा न हो कि घरवालों ने मृत्यु की सूचना सुबह ११ बजे दी हो… और सूचित लोग शवयात्रा के दो घंटे बाद शुरू होने की धारणा लेकर घर से निकले हों, और वहाँ पहुँचकर पता चले कि मरने वाला अब भी आने वालों की छाती पर मूँग दलने के लिए वहीं पड़ा है! घरवाले अपराधबोध से शवयात्रा में शामिल होने आए आगंतुकों की ओर देख रहे हैं- “क्या करें! वो जौनपुर वाली बुआ आ रही हैं… उन्होंने फोन पर ही कह दिया है, ‘अर्थी तभी उठेगी जब बुआ बाप का मुंह देख लेंगी।’” आगंतुकों में खुसर-पुसर शुरू हो जाती है… कोई घड़ी देख रहा है, कोई मोबाइल। “यार, इन्होंने इतनी जल्दी हमें इत्तिला देने की क्या ज़रूरत थी? हमें फ़ोन करने से पहले बुआ को करना चाहिए था न!” एक दूसरा, दुखी होकर बोला… मानो उसे ठग लिया गया हो- “अरे, मुझे तो गलत सूचना मिली… मुझे तो कहा गया था कि बस उठने की तैयारी है!” “खैर… अब आ ही गए हैं, तो थोड़े दर्शन का पाठन-पाठन कर लेते हैं…” और वही सब बातें, जो ऊपर बताई गईं- हर किसी के मुँह से कही जा चुकी हैं… बार-बार कही जा चुकी हैं। जिसका बाप गया है, वह अपने बेटों को दौड़ाता है- “अरे, टेंटवाला कुर्सी नहीं लाया अभी तक!” पड़ोस के दो-चार सहृदय कुर्सियाँ ले आते हैं… पंखा लगाया जाता है… मौसम बहुत ही ह्यूमिडिटी वाला है… एक ने तौलिया से पसीना पोंछते हुए मौसम की सटीक जानकारी समूह को प्रदान की… सभी ने इस ब्रेकिंग न्यूज़ का अनुमोदन किया। पानी-चाय सर्व होने लगते हैं… “चाय भी पी लो जी…”, दर्शन शास्त्र की बातें तार सप्तक से शुरू हुईं, अब मंद्र सप्तक पर आकर निढाल सी हो गई हैं… टाइम कट नहीं रहा… मोबाइल लगातार बज रहे हैं… लोग फोन पर बात करने के बहाने इधर-उधर विचरते हैं… कोई अपनी अकड़ी हुई पीठ को सहला रहा है… कोई बहुमूत्र के कारण संभावित स्थली ढूंढ रहा है… कोई कोना तलाश रहा है। कुछ ही देर में सभी बहुमूत्र के शिकार हो चुके हैं!
“कहाँ तक पहुँची जी?”
“बेटा… अभी तो चले हैं… बस दो घंटे और मान लो!”
“चले हैं…?”
एक साथ दस कातर स्वर गूंज उठे। “वो फ्लाइट से आ रही हैं न… आज फ्लाइट भी निगोड़ी दो घंटे लेट है…” समूह में चर्चा का एक नया विषय खुल गया।
“ये फ्लाइट भी न… ऐसे मौकों पर ज़रूर लेट होती है…”
“अरे कुछ नहीं जी, ये सब कंपनियों की मनमानी है… ऐन वक्त पर किराया बढ़ा देते हैं, प्लेन की रखरखाव नहीं होती…”
“अभी फलां जगह प्लेन क्रैश हुआ था…”
“पायलट की गलती थी…”
“नहीं जी, मुझे तो ये आतंकवादी घटना लगती है…”
“अमेरिका स्पॉन्सर करवा रहा है…”
“आतंकवाद को पनपाया ही किसने? अमेरिका ने…”
फिर बात घूमते-घूमते अमेरिका के संबंध, भारत के प्रधानमंत्री के विदेशी दौरे, भारत-पाकिस्तान युद्ध तक पहुँच गई। बुआ की अंतिम दर्शन की लत लतीफी की समस्या अब अंतरराष्ट्रीय समस्याओं द्वारा हाईजैक हो चुकी थी। दर्शन शास्त्र का रिकॉर्ड तो पहले ही कई बार बज-बज कर घिस गया था। कुछ लोग मृतक के बेटे के पास जाकर सुझाव देने लगे- “वैसे आजकल ये चलन बन गया है, अंतिम दर्शन का। पहले तो साधन नहीं थे… चिट्ठियाँ जाती थीं… दो दिन बाद पता चलता था… तब कहाँ संभव हो पाता था ये सब। इसलिए इंतजार नहीं करना चाहिए… अब तो वैसे भी संध्या समय हो रहा है… संध्या के बाद दाह-संस्कार करना वैसे भी सभी जगह मान्य नहीं है।” इसी बीच एक ने चिंता जाहिर की- “वो लकड़ियाँ सूखी तो हैं न? बरसात का मौसम है… पिछले एक दाह-संस्कार में, साहब, तीन घंटे लग गए थे!” इस चिंता पर सभी सहमत दिखे- “पहले ही इंतज़ार में दो घंटे बर्बाद हो गए हैं… और अगर वहाँ भी दो घंटे कपाल क्रिया में लग गए तो… उम्रदराज मांग कर लाये थे चार घंटे- दो इंतज़ार में गए, दो दाह संस्कार में।” इस चिंता को मृतक के बेटे तक पहुँचाने के लिए एक बुजुर्ग अनुभवी सज्जन उठे। हांफती हुई, खड़कड़ाती आवाज़ में बोले- “अच्छा… तैयारी तो पूरी कर लो… ताकि आते ही ले जाया जा सके…” “सब तैयारी कर ली है ताऊजी… चार जनों को दाह-स्थल पर भेज भी दिया है…” “अरे हाँ, लकड़ी सूखी ली या नहीं…? बरसात का मौसम है… गीली लकड़ी होंगी तो…” “चिंता मत करो ताऊजी… लकड़ी सूखी है… कपूर, नारियल, चंदन की लकड़ी, हवन सामग्री, घी वगैरह सब है…”

तभी एक और सज्जन उठ खड़े हुए- तैयारियों का जायजा लेने के लिए। “ठीक है, काठी तैयार कर लेते हैं… ताकि आते ही समय न लगे, तुरंत ले जाया जा सके।” कुछ लोग काठी बाँधने में लग गए… कुछ काठी में बंधे बाँसों को उल्टा-सीधा करके अपना समय काटने लगे। अब प्रश्न यह उठा कि- सिरहाना किस तरफ होगा? पैर किस तरफ? कैसे बाँधा जाए? मृतक का वजन कितना रहा होगा? कितनी लकड़ी लगेगी? हर व्यक्ति इन शाश्वत प्रश्नों के अपने-अपने ढंग से उत्तर देने लगा। काठी को अंदर ले जाना है या बाहर तैयार होनी है? “चार काँधे तय हो गए क्या?” कुछ लोग इस प्रकार से अपनी चिंता प्रकट करके मृतक के परिजनों के साथ आत्मीयता का सम्बन्ध स्थापित करने लगे। इसी बीच बाहर से एक गाड़ी की पों-पों की आवाज आई… सभा में खुशी की एक लहर दौड़ गई- “बुआ आ गईं!” लेकिन उतरने वाला बेटे का मौसा निकला, तो एक मायूसी की परछाईं ने सभी को फिर से घेर लिया। लोग फिर शोक-संतप्त हो गए। तभी मृतक का पोता दौड़ते हुए आया-
“बुआ आ ही गईं!”
“सच?”
सबने इसे भेड़िए और गड़रिए की कहानी समझकर पहले दो बार पुख्ता जाँच की, और फिर अपने चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ने दी। इधर मृतक के चेहरे पर अंतिम बार एक सुकून की सी आभा दिखाई दी।

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से), काव्य कुम्भ (साझा संकलन) नीलम पब्लिकेशन, काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन) लायंस पब्लिकेशन।
प्रकाशनाधीन : व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन)  किताबगंज   प्रकाशन,  गिरने में क्या हर्ज है -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह) भावना प्रकाशन। देश विदेश के जाने माने दैनिकी, साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित 
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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