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परंपरा का पक्ष

सूरज सिंह राजपूत
जमशेदपुर, झारखंड
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हाँ, मैं परंपरा हूँ।
वही परंपरा, जिससे
तुम कभी प्रश्न करते हो,
कभी संदेह की
दृष्टि से देखते हो,
कभी मुझे अतीत
का बोझ समझकर
अपने कंधों से उतार
फेंक देना चाहते हो।
परंतु क्या तुमने
कभी रुककर यह सोचा है
कि मेरा अस्तित्व
तुम्हें क्यों अखरता है?
क्या सचमुच मैं उतनी
रूढ़, उतनी संकीर्ण हूँ,
जितना तुम्हारी आधुनिक
दृष्टि मुझे मान लेती है?
आओ, मेरे युवा,
मेरे जागरूक, विचारशील
और तेजस्वी युवा
आज मैं स्वयं अपना
परिचय देती हूँ।
मैं परंपरा हूँ पर मैं
अतीत की जंजीर नहीं
तुम मुझे अक्सर
बीते समय की निशानी
समझते हो, पर क्या तुम
जानते हो कि मैं वह चेतना हूँ
जो सदियों के अनुभवों, प्रयोगों,
संघर्षों और सीखों से निर्मित हुई है?

मैं कोई मृत अवशेष नहीं,
मैं पीढ़ियों की यात्रा हूँ
जिसमें ज्ञान भी है,
गलतियाँ भी हैं,
शिक्षाएँ भी हैं और
भविष्य की रूपरेखा भी।
मुझे समझो तो मैं
शक्ति बन जाती हूँ;
अनदेखा करो तो
बोझ लगने लगती हूँ।
वाद करो, संवाद करो
और यदि आवश्यकता हो तो
विवाद भी करो तुम स्वतंत्रता
चाहते हो बहुत अच्छी बात है।
पर क्या स्वतंत्रता का अर्थ
अपनी जड़ों को काट देना होता है?
मैं तो केवल यह आग्रह करती हूँ
कि जड़ों को समझो, उनसे मिलने
वाली ऊर्जा को जानो,
फिर चाहे तो मुझे बदल दो।
परंपरा को त्याग देना सरल है,
पर परंपरा को समझना कठिन।
और कठिन चीज़ों से हम
अक्सर बचना चाहते हैं!
कहीं तुम मुझे धिक्कार
कर अपनी ही अधीरता और
कायरता तो नहीं छुपा रहे?
आधुनिकता गति देती है परंपरा दिशा
गति हो और दिशा न हो,
तो व्यक्ति आगे
नहीं बढ़ता भटकता है।
आधुनिकता तुम्हें तेज़ कदम देती है,
परंपरा तुम्हें पथ दिखाती है।
ये दोनों विरोधी नहीं,
एक-दूसरे के पूरक हैं।
मैं वही परंपरा हूँ जिसने
मिट्टी को ‘मातृभूमि’ कहा
मुझ पर आरोप है कि मैंने बाँधा।
परंतु क्या तुम नहीं देखते
कि मैंने ही मनुष्य को
अपनी धरती से प्रेम करना सिखाया?
मैंने कहा,
मिट्टी केवल धूल नहीं, वह माँ है।
उससे समर्पण, सम्मान और
प्रेम केवल कर्तव्य नहीं
सांस्कृतिक चेतना का आधार हैं।
मैं वही परंपरा हूँ
जिसने नारी में ‘देवीत्व’ देखा
हाँ, विकृतियाँ समय के साथ आईं
और उनका दायित्व परंपरा पर नहीं,
उन विकृत मानसिकताओं पर है
जिन्होंने परंपरा का
मूल स्वरूप बदल दिया।
परंपरा ने नारी में शक्ति देखी,
बुद्धि देखी, करुणा देखी।
यदि कहीं अवरोध आए,
तो वह परंपरा की गलती नहीं
व्यवहार की त्रुटि है।
परंपरा जड़ नहीं जड़ें हैं
जड़ों को कठोर समझना भूल है।
जड़ें जीवन देती हैं,
पहचान देती हैं,
और तुम्हें बताती हैं
कि तुम कहाँ से आए हो
और कहाँ जा रहे हो।
मैं वही आधार हूँ
जिस पर तुम अपनी
आधुनिक इमारत खड़ी करते हो।
आधार कमजोर होगा,
तो ऊँची इमारत भी टिक नहीं पाएगी।
परंपरा परिवर्तन का विरोध नहीं करती
विस्मृति का विरोध करती है जो
समयानुसार बदल न सके वह
परंपरा नहीं जड़ता है।
सच्ची परंपरा तो वह है
जो बदलते युगों के साथ
नए रूप धारण करती है,
पर अपनी आत्मा नहीं खोती।
‘दीया’ और ‘तेल’ का संबंध
परंपरा वह दीया है जो प्रकाश देती है।
आधुनिकता वह तेल है
जो इस प्रकाश को तेज
और स्थायी बनाती है।
दीया हो और तेल न हो
तो प्रकाश क्षीण हो जाता है।
तेल हो और दीया न हो
तो वह व्यर्थ बह जाता है।
इसीलिए दोनों का संग ज़रूरी है।

अंत में,
मेरे युवा से एक आग्रह
मैं तुम्हें रोकने नहीं आई हूँ।
मैं बस यह याद दिलाने आई हूँ
कि वर्तमान को समृद्ध करने के लिए
अतीत को समझना अनिवार्य है।
यदि तुम मुझे समझकर बदल दो
तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।
पर मुझे बिना समझे त्याग दोगे
तो तुम अपने ही अस्तित्व का
एक महत्वपूर्ण हिस्सा खो दोगे।
मैं परंपरा हूँ,
पुरानी हूँ, पर अप्रासंगिक नहीं।
सदियों की हूँ, पर आज भी
सत्य के साथ खड़ी हूँ।
मैं अतीत का अवशेष नहीं
भविष्य का मार्गदर्शन हूँ।

परिचय : सूरज सिंह राजपूत
निवासी : जमशेदपुर, झारखंड
सम्प्रति : संपादक- राष्ट्रीय चेतना पत्रिका, मीडिया प्रभारी- अखिल भारतीय साहित्य परिषद जमशेदपुर
घोषणा : मैं सूरज सिंह राजपूत यह घोषित करता हूं कि यह मेरी मौलिक रचना है।

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