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गाँव की खुशबू
कविता

गाँव की खुशबू

डॉ. पंकजवासिनी पटना (बिहार) ******************** गांँव: सोंधी-सोंधी माटी की खुशबू! सुरम्य हरियाली बिखरी चहुँओर भू!! भोर की लाली क फैला है वितान! कंधे पर हल रखकर चल पड़ा किसान!! शीतल सुरभित मंद पवन मन हरसाय! प्रदूषण मुक्त वातावरण अति भाय!! अमराई में कूके विकल कोयलिया ! कामदेव-बाण-सी आम्र मंजरियांँ !! अनगिन सरसिज विहंँस रहे हैं ताल में!! सारा गांँव गुँथा सौहार्द्र-माल में!! खेतों-झूमे शस्य-श्यामल बालियाँ ! खगकुल-कलरव से गुंजित तरु डालियाँ!! पक्षियों का कूजन हर्षित करता हृदय! बैलों की घंटियों की रुनझुन सुखमय!! नाद पर सहलाता होरी बैलों को! चाट रही धेनु मुनिया के पैरों को!! चूल्हे पर पकती रोटियों की महक! सबके मुखड़े पर पुते हर्ष की चमक!! यहांँ सभी उलझन सुलझाती चौपाल! हर बाला राधा हर बालक गोपाल!! मर्द गाँव का सिर पर पगड़ी सजाए! और आंँचल में हर धानी मुस्काए!! लज्जा की लुनाई में नारी लि...
रंगों से रंगी दुनिया
गीत

रंगों से रंगी दुनिया

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** मैने देखी ही नहीं रंगों से रंगी दुनिया को मेरी आँखें ही नहीं ख्वाबों के रंग सजाने को। कौन आएगाआँखों में समाएगा रंगों के रूप को जब दिखायेगा रंगों पे इठलाने वालों डगर मुझे दिखाओं जरा चल सकूँ मै भी अपने पग से रोशनी मुझे दिलाओं जरा ये हकीकत है कि क्यों दुनिया है खफा मुझसे मैने देखी ही नहीं .... याद आएगा, दिलों मे समाएगा मन के मित को पास पाएगा आँखों से देखने वालों नयन मुझे दिलों जरा देख सकूँ मै भी भेदकर इन्द्रधनुष के तीर दिलाओं जरा ये हकीकत है कि क्यों दुनिया है खफा मुझसे मैने देखी ही नहीं .... जान जायेगा, वो दिन आएगा आँखों से बोल के कोई समझाएगा रंगों को खेलने वालों रोशनी मुझे दिलाओं जरा देख सकूँ मै भी खुशियों को आँखों मे रोशनी दे जाओ जरा ये हकीकत है कि क्यों दुनिया है खफा मुझसे मैने देखी ही नहीं .... परिचय :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पित...
स्त्री….. तुम हो
कविता

स्त्री….. तुम हो

सुनीता पंचारिया गुलाबपुरा (भीलवाड़ा) ******************** घर आंगन की दहलीज में, पूजा घर की महक में, तुम हो ....... रसोईघर के स्वाद में, बर्तनों की खन -खनाहट में, तुम हो.... भोर का सूर्य, सांझ का तारा, तुम हो ...... बगिया का महकता फूल, और फूल की खुशबू, तुम हो......... निर्झर झरनों में, नदियों की कल -कल में तुम हो.... बाल मन की किलकारियो में, बुजुर्गों के अंतर्मन में तुम हो .... बहनों का दुलार, भाइयों का रक्षा सूत्र, तुम हो...... ममता की छाँव, और प्यार की आस में तुम हो....... मान मर्यादाओं में, विचारों व संस्कारों में, तुम हो ....... संगीत के सुरों में, वायु के झोंकों में, तुम हो........ होली के रंगों में, विजय की लक्ष्मी, तुम हो..... गौतम की यशोधरा, और राम की सीता, तुम हो...... क्योंकि ....................... मां में ............ बहन में ...... बेटी में ....... बहू में ......... पत्नी में ....
कर्मो का हिसाब है जिदंगी
कविता

कर्मो का हिसाब है जिदंगी

मनीषा जोशी खोपोली (महाराष्ट्र) ******************** कभी-कभी उदासी की, आग है जिदंगी। कभी-कभी खुशियों का, बाग है जिदंगी । हँसता और रूलाता, राग है जिदंगी। खट्टे-मीठे अनुभवों, का स्वाद है जिदंगी। चंद लम्हों को पाने की होड़ है जिदंगी। रिश्तों में, एक खूबसूरत मोड़ है जिदंगी। कोरे कागज पर लिखी, किताब है जिदंगी। प्यार का एक महकता गुलाब है जिंदगी। जागी आंखों का एक ख्वाब है जिंदगी। अपने किऐ हुए, कर्मो का हिसाब है जिदंगी। परिचय : मनीषा जोशी निवासी : खोपोली (महाराष्ट्र) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंद...
मायाजाल
कविता

मायाजाल

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** सूरज आहिस्ता आहिस्ता धरती के आगोश में समा जाता है, हम जमीन से पत्थर उठा कर बेवजह दरिया के सीने पे मारते है देखते है उठती हुई तरंगे जो साहिल से टकराती है तरंगे दिल पर चोट करती है हमआँखों का बांध टूटा पाते है सन्नाटे की बज़्म में न जाने कब तक अपने गीत सुनाते है और न जाने कब तक स्याह आसमा में सितारों के पैबंद लगाते है रात की सिसकियों की महफ़िल शुरू होती है हर निगाह में सवाल होता है हम गुमसुम से क्यो बैठते है मुसलसल कदमो की आहट आती है कोई नज़र नही आता ये कोई राह का जादू है या हमआगत को देख नही पाते है ये हवा का शोर रक्स करते पत्ते ये रात बड़ी अजीब है कोई जरूर हमारे करीब आता है हम है कि उससे दूर भाग जाते है हर रोज सूरज डूबते ही शुरू होती है ये वारदातें हम अपना जिस्म छोड़ कर न जाने क्या क्या खोजते है। परिचय :- धैर्यशील येवले जन्म : ३१ अगस्त १९६३...
प्रश्न पूछती धरती
कविता

प्रश्न पूछती धरती

डॉ. कामता नाथ सिंह बेवल, रायबरेली ******************** बहुत दिनों से बन्जर, परती, काई पडी़ हुई | प्रश्न पूछती धरती, ले अँगडा़ई खडी़ हुई || तुम्हीं बताओ कब तक हमें रुखाई टोंकेगी, मिलने से कब तक हमको परछाईं रोकेगी; कब तक पीछा छोडे़गी, रुसवाई अडी़ हुई || प्रश्न पूछती धरती, ले अँगडा़ई खडी़ हुई||१|| कभी अँटरिया चूम-चूम बदरा झूमे, बरसे , आखिर कब तक बूँद-बूँद को,प्यासा मन तरसे ; सपने अँखुवायें, अब तो अँगनाई बड़ी हुई || प्रश्न पूछती धरती, ले अँगडा़ई खडी़ हुई||२|| सुधियों की बैसाखी लेकर जब मिलते हो तुम, सोनजुही की कलियों जैसे, कब खिलते हो तुम; बीच हमारे सौतन-सी तनहाई अडी़ हुई || प्रश्न पूछती धरती, ले अँगडा़ई खडी़ हुई||३|| तिल-तिल मर-मरके, जीवन दे देके ऊब गई, सागर तक क्या पहुँचे नदिया खु़द में डूब गई; खु़द की, खु़द से कितनी बार लडा़ई बडी़ हुई || प्रश्न पूछती धरती, ले अँगडा़ई खडी़ हुई||४|| ...
ये जो मेरी हिंदी है
कविता

ये जो मेरी हिंदी है

सुरेखा सुनील दत्त शर्मा बेगम बाग (मेरठ) ********************** ये जो मेरी हिंदी है कितनी प्यारी हिंदी है सजी राष्ट्र के माथे पर, जैसे कोई बिंदी है।। हजार वर्ष में युवा हुई गई षोड़शी सत्रह में पहले पन्ने मुखर हुई, जलती रही विरह में।। बनी विधान में रानी है अलंकृता हुई नागरी है धाराएँ तीन सौ निकली, ४३ से ५१ तक सारी है। पंचमुखी,दस में भाषें है दक्षिण पथ प्रतिगामी है अश्व वेग से दौड़ रही, दुनिया देती सलामी है। मान मिला तो खड़ी हुई सत्रह बोलियाँ जड़ी हुई रही कौरवी अधर अधीरा, राष्ट्र भाव में बढ़ी हुई।। शोभा इसकी बढ़ती है जन आशा में चढ़ती है कुछ दुष्टों की खातिर, इसकी आन बिगड़ती है। साहित्यभूमि में ढली हुई मानक पोषित पली हुई विश्व सोचता सीखे हम, यहाँ दुराशा मिली हुई। ये जो मेरी हिंदी है कितनी प्यारी हिंदी है सजी राष्ट्र के माथे पर, जैसे कोई बिंदी है।। परिचय :-  सुरेखा "सुनील "दत्त शर्मा उपनाम ...
नई पहल
लघुकथा

नई पहल

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ******************** आशा : माँ जी- आपको और पिताजी को तो मेरे काम में कोई ना कोई कमी हमेशा नजर आती है। आखिर क्या गलती है मेरी, जो आप हमेशा नाराज रहते हो? कभी तो मेरा उत्साह बढ़ाया करो। आपसे तो किसी तरह की उम्मीद रखना अपने आप को धोखा देने जैसा है।रोज-रोज की कहासुनी से, राजेश भी बहुत परेशान था। पत्नी की सुनता तो, जोरू का गुलाम कहलाता और माँ की सुनता तो, पत्नी कहती माँ के पल्लू से बंधे रहना जीवन भर। कभी मन में आता छोड़कर भाग जाऊं सब कुछ। ये खुद ही काम-धाम संभाल लेंगे। शादी से पहले सब कुछ ठीक चल रहा था। माँ कहती थी मेरी बहूँ आएगी तो मैं उसे बहूँ नहीं बेटी की तरह रखूंगी। सास को बहूँ को बेटी ही मानना चाहिए। उस समय मैं सोचा करता था, मेरे घर में आने वाली लड़की बड़ी ही भाग्यवान होगी। जो उसे ऐसा परिवार मिलेंगा।आशा का स्वभाव थोड़ा सा तुनक-मिजाज था। वह छोटी-छोटी बातों प...
हाल, वक़्त की
ग़ज़ल

हाल, वक़्त की

नवीन माथुर पंचोली अमझेरा धार म.प्र. ******************** हाल, वक़्त की हर तैयारी रखते हैं। लोग वही जो ज़िम्मेदारी रखते हैं। रस्ता, दूरी, मुश्किल, मंज़िल सोच-समझ, साथ सफ़र के वो हुशियारी रखते हैं। सुनकर, पढ़कर लोग उन्हें समझें-बूझें, बातें ऐसी अपनी सारी रखते हैं। आते-जाते जीवन के जितने लम्हें, यादें उनकी मीठी-खारी रखते हैं। काम कोई, कब आ जाये तंग मौके पर, सबसे अपनी दुनियादारी रखते हैं। कहते तो हैं वो सब अपने मन की, लेक़िन जैसे बात हमारी रखते हैं। परिचय :- नवीन माथुर पंचोली निवास - अमझेरा धार म.प्र. सम्प्रति - शिक्षक प्रकाशन - देश की विभिन्न पत्रिकाओं में गजलों का नियमित प्रकाशन, तीन ग़ज़ल सन्ग्रह प्रकाशित। सम्मान - साहित्य गुंजन, शब्द प्रवाह, राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच इंदौर (hindirakshak.com) द्वारा हिन्दी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान घोषणा पत्र : प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है...
हिंदी है हम
लघुकथा

हिंदी है हम

हिमानी भट्ट इंदौर म.प्र. ******************** रानी किसी काम के लिए पोस्ट ऑफ़िस गई। उसने देखा एक महिला वहां की कर्मचारी से इंग्लिश में बात कर रही थी। दूसरी तरफ रानी सोच रही थी। अपने ही देश भारत में रहकर भी कुछ लोगों को हिंदी बोलने में शर्म आती है। उस महिला को कोई फॉर्म भरना था लेकिन वह भर नहीं पा रही थी। वह रानी के पास आई और इंग्लिश में बोली, कैन यू फील माय फॉर्म...? रानी को भी अच्छी इंग्लिश आती थी लेकिन वह विनम्रता से बोली, जी जरूर भर दूंगी लेकिन मैं हिंदी में भरना पसंद करूंगी। वह महिला बोली जैसा आप चाहें। रानी ने लोग क्या कहेंगे इस बात की परवाह नहीं करते हुए गर्व से अपनी मातृभाषा में फार्म भरकर उस महिला को थमा दिया। परिचय :- हिमानी भट्ट ब्रांड एंबेसडर स्वच्छता अभियान, इंदौर निवासी : इंदौर म.प्र. आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय...
मैं हूँ अपनी हिन्दी भाषा
कविता

मैं हूँ अपनी हिन्दी भाषा

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** अपने मन के उद्गारों को, भावों और अभावों को, पावन कर अपने विचारों को, देकर मेरी अविरल धारा। पूरी कर लो अभिलाषा, मैं हूँ सरल सबल परिभाषा, मैं हूँ अपनी हिंदी भाषा। अपने बौद्धिक विकास में, मेरे आदान-प्रदान से, अज्ञान-अंधकार को मेटो, मेरा प्रकाश पुंज है सारा। मिटा लो पूरी ज्ञान पिपासा, मैं हूँ सरल सबल परिभाषा, मैं हूँ अपनी हिंदी भाषा। जब करोगे मेरा सम्म्मन, जितना दोगे मुझको मान। अम्बर सा प्रसारित होगा, जग में अपने देश का ज्ञान। पूरण करूँ सारी आकांक्षा, मैं हूँ सरल सबल परिभाषा, मैं हूँ अपनी हिंदी भाषा। बंगाली,पंजाबी हो या सिंधी, सबके भाल की मैं हूँ बिंदी। संस्कृत सब बोलियों की माता, मैं बनी सबकी भाग्य विधाता। अब ना करो मेरी उपेक्षा, मैं हूँ सरल सबल परिभाषा, मैं हूँ अपनी हिंदी भाषा। परिचय :- माधुरी व्यास "नवपमा" निवासी - इंदौर म.प्र. सम...
सखी
कहानी

सखी

डॉ. सर्वेश व्यास इंदौर (मध्य प्रदेश) ********************** कहते हैं तीन चीजें ईश्वर एक साथ कभी नहीं देता- १ सुंदरता/ रूप- रंग २ सादगी/ सरलता/सहजता/विनम्रता और ३ तीव्र मस्तिष्क/ मति/ पढ़ने में तेज। अगर किसी के जीवन में यह तीन चीजें हो तो उस पर तथा उससे जुड़े हुए लोगों पर ईश्वर की असीम कृपा होती है। आज की कहानी ऐसी ही एक लड़की की है, जिसका नाम है- सखी। सखी एक छोटे से शहर में रहने वाली एक सुंदर, सुशील और विनम्र लड़की है। उसकी सुंदरता की बात करें तो चंद्रमा के समान मुख वाली एवं शीतलता लिए हुए, हिरनी सी आंखों वाली एवं चंचलता लिए हुए, गज गामिनी एवं हथिनी सी गंभीरता लिए हुए। सादगी की प्रतिमूर्ति, अहंकार रहित, लेश मात्र भी घमंड नहीं, ना पढ़ाई का और न ही अपने रूप रंग का। मानो विनम्रता शब्द उसके लिए ही बना हो, वाणी शहद सी मीठी और मुस्कान जीवन रस का संचार कर दे। अत्यंत संकोची एवं शर्मिली, लेकि...
हिंदी भाषा
कविता

हिंदी भाषा

संजय जैन मुंबई ******************** हिंदी ने बदल दी, प्यार की परिभाषा। सब कहने लगे मुझे प्यार हो गया। कहना भूल गए, आई लव यू। अब कहते है मुझसे प्यार करोगी। कितना कुछ बदल दिया, हिंदी की शब्दावली ने। और कितना बदलोगें, अपने आप को तुम। हिंदी से सोहरत मिली, मिला हिंदी से ज्ञान। तभी बन पाया, एक लेखक महान। अब कैसे छोड़ दू, इस प्यारी भाषा को। ह्रदय स्पर्श कर लेती, जब कहते है आप शब्द। हर शब्द अगल अलग, अर्थ निकलता है। इसलिए साहित्यकारों को, हिंदी भाषा बहुत भाती है। हर तरह के गीत छंद, और लेख लिखे जाते है। जो लोगो के दिल को छूकर, हृदय में बस जाते है। और हिंदी गीतों को, मन ही मन गुन गुनते है। और हिंदी को अपनी, मातृभाषा कहते है। इसलिए हिंदी को राष्ट्रभाषा भी कहते है।। परिचय :- बीना (मध्यप्रदेश) के निवासी संजय जैन वर्तमान में मुम्बई में कार्यरत हैं। करीब २५ वर्ष से बम्बई में पब्लिक लिमिटेड कंपनी ...
कन्या भ्रूण हत्या
कविता

कन्या भ्रूण हत्या

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** कन्या भ्रूण के हत्यारे नरपिशाचों के विरुद्ध धिक्कारती स्वरचित रचना गायत्री, सावित्री, दारा, गार्गी, उपाला कन्या थीं। गंगा, गौरा, सिया-जानकी वंश वृद्धिका कन्या थीं। प्रजापति की वीर पुत्रियाँ प्रकटे जिनसे अस्त्र सहस्त्र। रण में विजयी राम बने वो शस्त्र जननी भी कन्या थीं। शक्ति के मंदिर में जाकर शक्ति को दुत्कार रहा। मानव चाहे पुत्र जन्म नित स्वारथ यूँ चित्कार रहा। जिससे चाहे जने पुत्र ही वह माता भी कन्या है। गर्भ में कन्या मार रही जो वह 'दुष्टा' भी कन्या है। दानव बनता मानव देखो निरत अजन्मी मार रहा। वधु चाहिए बेटे ख़ातिर इतना जबकि जान रहा। एक दिन वधु भी नहीं मिलेगी गर तेरी यह नीति रही। विधुर सरीखे जीवन होगा सुनले मेरी खरी-खरी। ढूढ़ने जाता जिस कन्या को मैया के नवरातों। उन दुर्गा का दोषी है जगता जिनके जगरातों में। न्यायशील प्रकृति शास्वत ...
बेखबर
कविता

बेखबर

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ******************** विचारों का बहाव बार-बार तुम्हारे तरफ मुड़ जाता है। जैसे यादों का सावन वहा बरस रहा हो और मैं यहां भीग रही हूं। परवाह किए बगैर कि तुम्हारे मन में मैं हूं या नहीं। तुम्हारे ना रहने से पूरा शहर ही वीरान हो जाता है। स्क्रीन पर तुम्हें देखने मोबाइल बार-बार उठाना। उंगलियों का मैसेज टाइप करके मिटाना। इस बात से बेफिक्र कि तुम्हें मतलब नहीं इन सब से। मन तुम्हें ही क्यों चाहता है। जिंदा है तुम्हारे हाथों की छुअन जो, अनजाने टकराया मेरे हाथों से। उस स्पर्श ने सिर्फ मुझे छुआ। इस बात से बिल्कुल बेफिक्र तुम। मैं सिर्फ तुम्हारे लिए और तुम बिलकुल...! बेखबर... ! बेखबर... ! बेखबर...! परिचय :- अनुराधा बक्शी "अनु" निवासी : दुर्ग, छत्तीसगढ़ सम्प्रति : अभिभाषक घोषणा पत्र : मैं यह शपथ लेकर कहती हूं कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं...
माता-पिता कहते हैं
कविता

माता-पिता कहते हैं

बबली राठौर पृथ्वीपुर टीकमगढ़ (म.प्र.) ******************** आज के जमाने में मैं सुखी हूँ कौन कहता है किसे गम ने नहीं सताया है क्या कोई ऐसा भी है जिसे दर्द कभी नहीं मिला है माता-पिता कहते हैं ऐसा इंसा खोजो तुम और नए सवेरे का इंतजार करना तुम आज मन में हरयाली है कल किसने देखा है आज तकदीर मेरी है कल तदबीर के हाथों दिल जला है छलक पड़े थे आँसूदेख यह कि किस्मत ये थी जो मेरी है माता-पिता कहते हैं ऐसा वक्त तराशो तुम और नए सवेरे का इंतजार करना तुम जिन्दगी की कहानी मुझ से कहती है रुकने का नाम क्यों लोग लेते हैं इक दिए की लव से सीखते सब हैं सपनों को साकार होते देखते हैं माता-पिता कहते हैं तकदीर से किस्मत तौलो तुम और नए सवेरे का इंतजार करना तुम कलियां खिली मुस्कराती देखी हैं क्या फूलों से खुशबू की ली है अपना दिल ये तराने गाता नजर आता है क्या ऐसी खुशी मिली है और दूर-दूर तक नाम तुम्हारा ऊँचा और जन्म...
खौफ साए में
कविता

खौफ साए में

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** खौफ साए में जिंदगी पल रही लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही। श्रम योग ने कभी रखी शिलाएं अब घेर रही हैं विभिन्न बलाएं टीस देने लगी जो शेष आशाएं खीझ जन्य चाल तो खल रही भीत से सभी दिशाएं हिल रही खौफ साए में जिंदगी पल रही। लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।। याद आते मेहनतों के वो मंजर हल चलाए जहां भूमि थी बंजर सफल पीढ़ी कमान थामे सुंदर दीन बन कृतत्व कला गुम रही सीख समय की साहस भर रही खौफ साए में जिंदगी पल रही लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।। कार्यशाला पाठशाला संस्कार हर सूरत प्रावधानों का विचार सामर्थ्य अनुसार होता विस्तार हीन सा जीवन चाह भटक रही बीन बजाती जिंदगी सटक रही खौफ साए में जिंदगी पल रही लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।। कर्मक्रान्ति ने कई रंग दिखाए दिनचर्या सीमित परिधि आए निराश मन को अब मौन भाए सीप मोती से शिकायतें कर रही रीझकर कलम इबारतें रच रही खौफ साए में...
एक दिन की रानी
एकांकी

एक दिन की रानी

डॉ. पंकजवासिनी पटना (बिहार) ******************** (अंँग्रेजी के पोस्टरों से सजे एक कार्यालय का दृश्य) पहला कर्मचारी : ये सारे अंँग्रेजी के पोस्टर हटाओ और इनकी जगह सुंदर-सुंदर सूक्तियों से सजे हिंदी के पोस्टर लगाओ। दूसरा कर्मचारी :क्यों-क्यों? इन्हें क्यों हटाएँ? पहला कर्मचारी : अरे! तुम जानते नहीं, आज "हिंदी दिवस है... १४ सितंबर"! आज एक बहुत बड़ी अधिकारी मुख्य अतिथि के रूप में हमारे यहां हिंदी दिवस में भाग लेने आ रही हैं। (दोनों मिलकर सारे अंग्रेजी के पोस्टर हटाकर उनकी जगह हिंदी के पोस्टर लगाते हैं) दूसरा कर्मचारी: चलो अपने बाॅस से आज की तैयारी का निरीक्षण करवा लें। (अधिकारी के साथ दोनों का प्रवेश) अधिकारी : अरे वाह! तुम लोगों ने तो बहुत ही अच्छी तरह से सजा दिया है यहाँ! अब तो यहाँ का सारा परिवेश ही हिंदीमय हो गया है!! यह सब देख कर मुख्य अतिथि को यही समझेंगे कि यहाँ वर्ष भर सारे कार्य हिं...
ज़िन्दगी
कविता

ज़िन्दगी

विरेन्द्र कुमार यादव गौरा बस्ती (उत्तर-प्रदेश) ******************** ज़िन्दगी जिन्दगी एक उददेश्य होती है, बिन उददेश्य की जिन्दगी बेकार होती है। जिन्दगी धूप होती है , जिन्दगी छाँव होती है। जिन्दगी में एक सपना होता है, कोई अपना होता है। कोई पराया होता है, कोई रिश्तेदार होता है। कोई दोस्त-यार होता है, कोई ना समझ और कोई समझदार होता है। कोई जिन्दगी में मझधार में रोता है, कोई पहुँच के उस पार हँसता है। जिन्दगी सुखों-दुखों का संगम है, हमको आपको चलते रहना हरदम है। जिन्दगी प्यार का गीत है हर एक को गुनगुनाना पड़ेगा, जिन्दगी गम का सागर भी है हर एक को उस पार जाना पड़ेगा। परिचय :- विरेन्द्र कुमार यादव निवासी : गौरा बस्ती (उत्तर-प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय...
वनवासी
आलेख

वनवासी

मंजिरी पुणताम्बेकर बडौदा (गुजरात) ********************                                    भारत देश संस्कृति, विभिन्न धर्मों, जनजातियों और भाषाओ का सम्मिश्रण है। इस देश के लोग शहरों में, गावों में और जंगलों में रहना पसंद करतें हैं। हम शहरों में रहने वालों को शहरी, गाँव में रहने वालों को ग्रामीण और जंगलों में रहने वालों को हम आदिवासी कहते हैं। यदि आदिवासी इस शब्द का सन्धि विच्छेद किया जाय तो आदि(म)+वासी =मूल निवासी। आखिर ये आदिवासी क्या होते हैं? क्या खाते हैं? ये समाज से कटे हुए क्यों होते हैं? इनमें क्या अदभुत और विलक्षण होता है? इन्हें लोग अजूबे की तरह क्यों देखते हैं? इनकी वेशभूषा, खानपान क्यों आम आदमियों की तरह नहीं होती? ये क्यों समाज से दूर भागते हैं? ऐसे अनगिनत प्रश्न मन में उठते हैं। सुना है कि ये वनवासी प्रकृति पूजक होते हैं क्यूकि प्रकृति ही इन्हें अन्न, परिधान, आवास और औषधि प्...
तेरे दर्शन की ख्वाहिश है
ग़ज़ल

तेरे दर्शन की ख्वाहिश है

मुकेश सिंघानिया चाम्पा (छत्तीसगढ़) ******************** ग़ज़ल - १२२२ १२२२ १२२२ १२२२ सुधारों अब दशा भगवन तेरे दर्शन की ख्वाहिश है पड़े हैं सुने सब मंदिर तेरे कीर्तन की ख्वाहिश है हुए बेचैन अब घर में ही रह हम बंदियों जैसे खुले वातावरण में अब जरा विचरण की ख्वाहिश है भरा है मन बहुत संवेदना हिन देख लोगों को व्यथित मन में बहुत अब शोर की क्रंदन की ख्वाहिश है हुई क्यूँ ऐसी ये दुनिया भला कारण है क्या इसका इसी पर अब मनन की और गहन चिंतन की ख्वाहिश है जगत जकड़ा हुआ अज्ञानता के घोर अंधेरों में उजालों की नयी किरणों के अब सृजन की ख्वाहिश है अजब सी इक हवा का डर है पसरा सबके हृदय में सभी खुशहाल और भयमुक्त हो ये मन की ख्वाहिश है तेरे चरणों में ही दिन रात मेरे जैसे हों गुजरे तेरे दर पर ही निकले दम मेरे जीवन की ख्वाहिश है मनाएँ फिर तेरा उत्सव बड़े हर्ष और उल्लासों से त...
जिंदगी इक सफ़र है
ग़ज़ल

जिंदगी इक सफ़र है

निज़ाम फतेहपुरी मदोकीपुर ज़िला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) ******************** ग़ज़ल - २१२ २१२ २१२ २१२ अरकान- फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन जिंदगी इक सफ़र है नहीं और कुछ। मौत के डर से डर है नहीं और कुछ।। तेरी दौलत महल तेरा धोका है सब। क़ब्र ही असली घर है नहीं और कुछ।। प्यार से प्यार है प्यार ही बंदगी। प्यार से बढ़के ज़र है नहीं और कुछ।। नफ़रतों से हुआ कुछ न हासिल कभी। ग़म इधर जो उधर है नहीं और कुछ।। घटना घटती यहाँ जो वो छपती कहाँ। सिर्फ झूठी ख़बर है नहीं और कुछ।। बोलते सच जो थे क्यों वो ख़ामोश हैं। ख़ौफ़ का ये असर है नहीं और कुछ।। जो भी जाहिल को फ़ाज़िल कहेगा 'निज़ाम'। अब उसी की कदर है नहीं और कुछ।। परिचय :- निज़ाम फतेहपुरी निवासी : मदोकीपुर ज़िला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) शपथ : मेरी कविताएँ और गजल पूर्णतः मौलिक, स्वरचित हैं आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपने परि...
प्रेम का सौन्दर्य
कविता

प्रेम का सौन्दर्य

मधु टाक इंदौर मध्य प्रदेश ******************** रेत पर घरौंदा जब बनाओगे चंद सीपों से गहने जड़वाओगे प्रीत में तेरी राधा सी बनकर मन में जब संदल महकाओगे मैं मिलूंगी तुम्हें वहीं प्रिये.......... नागफनी में भी फूल खिलाओगे छूकर मुझे तुम राम बन जाओगे आशा के तुम ख्वाब सजाकर जब जब मुझसे प्रीत निभाओगे मैं मिलुंगी तुम्हें वहीं प्रिये...... कोयल की कूक सुनाओगेे भवरें सी मधुर गुंजार करोगे अमावस की अंधेरी रातों में जुगनू से रोशनी ले आओगे मैं मिलूँगी तुम्हें वहीं प्रिये ...... हरी चुड़ियाँ जब तुम लाओगे आस के हंस को मोती चुगाओगे सावन में लहराने लगा मन मेरा प्रणय के गीत जब तुम गाओगे मैं मिलुँगी तुम्हें वहीं प्रिये ......... जब जब भी तुम याद करोगे चाँदनी को चाँद से मिलाओगे गुनगुनाती हवाओं के साथ साथ अहसासो में जब मुझे सवांरोगे मैं मिलूँगी तुम्हें वहीं प्रिये ......... परिचय :-  मधु टाक निवासी : इं...
व्यवस्था को फाँसी दो
कविता

व्यवस्था को फाँसी दो

माधवी मिश्रा (वली) लखनऊ ******************** अरे व्यवस्था को फाँसी दो नौनिहाल जो सींच रहे जिस पूंजी के लिये खोल माँ की तस्वीरें खीच रहे दौड़ रहे प्रभुता के पीछे अपनी, मर्यादा को भूल संस्कार आर्यों की धोकर चाट रहे पश्चिम की धूल उपभोक्ता संस्कृति नही थी अपने भारत की सन्तान इसको नंगा करके तुमने मिटा दिये अपनी पहचान आज अगर कानून बनाकर मृत्यु दण्ड तुम देते हो क्यों लगता है तुमको ऐसा समाधान कर लेते हो? नारी का सम्मान खरीदे भेज रहे आगे आगे मन की आखों से सोये दिखते बस जागे जागे अपनी सब पहचान छुपाते प्रतिकृति बन आधुनिक हैं पॉप सांग पर थिरक रहे हो कहते हो हम युनिक हैं। पूर्वज से मुख मोड़ चुके हो जग से नाता तोड़ चुके हो भाग दौड़ पैसो के खातिर बचपन सूना छोड़ चुके हो बालशुलभ मन को समझाए नैतिकता अब कौंन बताये आधी और अधूरी शिक्षा ये पागलपन और बढ़ाये। केवल बस सरकार बनाये नये खयालों की दीवार कहाँ-क...
दादी अम्मा तुम बहुत याद आती हो!
कविता

दादी अम्मा तुम बहुत याद आती हो!

मीना सामंत एम.बी. रोड (न्यू दिल्ली) ******************** धीर थी, गम्भीर थी, संतुलित सी भाषा थी, तुम आंगन की तुलसी थी, मैं तुम्हारी आशा थी। पहाड़ी नदियों की छल-बल नहीं, सागर सी सूरत थी। खारापन तुमको छू नहीं पाया, विनम्रता की मूरत थी। नदी, नालों से डरने वाली मैं, तुम ही मेरी नौका थी। महानगरों की तपिश नहीं, पहाड़ी हवा का झोंका थी। लंबे धान के खेतों में, सलीके से चलना सिखाती थी, थोड़े-थोड़े पैसों को गिनकर, मुझे दिखाती थी। मेरे स्वाभिमान के साथ, मुझे अपनाती थी। परछाई थी उसकी मै, जहां कहीं वो जाती थी। लाचार, बेबस महिला नहीं, सैनिक कुल की बेटी थी, दस भाई, बहिनों में सबसे दुलारी और चहेती थी। मुंह अंधेरे उठकर, धोती जब वो पहनती है, धोती के कोने में, एक छोटी गांठ लगाती है। चेहरा आज भी चमकता है, "संतोष" से खाती है, दांत आज भी असली हैं, कच्चे चावल चबाती है। परिचय :- मीना सामंत एम.बी. रोड...