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घर एक मंदिर
कविता

घर एक मंदिर

वीणा वैष्णव "रागिनी"  कांकरोली ******************** घर एक मंदिर है, इसे मंदिर ही बना रहने देना। घर मंदिर होता, एक उदाहरण तू भी बन जाना। मात-पिता प्रभु मान, सिस तू चरण झुका देना। खून से सींचा उसे, बस तू थोड़ा प्यार भर देना। कैदखाना नहीं यह पागल, यह है स्वर्ग समान। अनजाने में ही कुछ नादान, कर रहे हैं अपमान। शून्य जैसा सबका जीवन,ना कीमत शून्य की। संग सदा अपनो रह, अनमोल स्वत: बन जाना। संबंधों की गहराई को, सदा ही महसूस करना। ईश्वर की श्रेष्ठ रचना, थोड़ा विवेक काम करना। चिंता चिता एक समान, यह सदा याद रखना। खुद की खुशी खातिर, मां बाप को ना दर्द देना। प्यार से पाला तुझे ,चिंता और कोई न जताना। दिखावा सब करेंगे, हकीकत तो वहां ही पाना। करती वीणा एक विनती, जीवन ना नर्क बनाना। बहुत सहा उन्होंने, अंत समय कुछ सुख देना। . परिचय : कांकरोली निवासी वीणा वैष्णव "रागिनी" वर्तमान में राजकीय उच्च माध्...
माँ तो बस माँ होती हैं
कविता

माँ तो बस माँ होती हैं

विशाल कुमार महतो राजापुर (गोपालगंज) ******************** जो रखती आँचल के छाव तले, जन्न्त हो जिसके पाँव तले, अब ये मत पूछ वो क्या होती है, माँ तो बस माँ होती हैं.... तुझे कोई जो, दुःख सताये है, उसकी आँखों से आंसू आये है। हाथ पकड़कर चलना, बोलना जिसने तुमको सिखलाये है। कभी उसकी प्रेम न बयां होती हैं, माँ तो बस माँ होती है.... क्यों उसको तुम रुलाता है, क्यो उसको तुम सताता है, मन ही मन वो मुस्काती है, जब तुझको गले लगाती है। उसकी क्रोध में भी सब दया होती हैं, माँ तो बस माँ होती है.... उस जग जननी की प्राण तो, तेरे ही अंदर बस्ती है, तुहि उसकी दुनिया है, और तुहि उसकी हस्ती है। दुःख हर ले तेरी जीवन की, उसकी आँचल में वो हवा होती हैं, माँ तो बस माँ होती है.... सुना है बहुत न्यारी हैं, जिसने तुमको दुलारी है हर दुःख पर वो तो भारी हैं, इस जग में सबसे प्यारी हैं। दवा से बढ़कर भी तो उसकी आशीर्वाद और दु...
लॉक डाउन में कुछ इस प्रकार मनाया समर्थ भट्ट का प्रथम जन्मदिवस
सामाजिक

लॉक डाउन में कुछ इस प्रकार मनाया समर्थ भट्ट का प्रथम जन्मदिवस

इंदौर। लॉक डाउन के चलते अनुशासन में रहकर मनाया समर्थ भट्ट का प्रथम जन्मदिवस.... नाना-नानी, दादा-दादी, बुआ-फूफा जी, चाचा-चाची, मामा-मामी, मासा-मासी, भाई-बहन सभी ने वीडियो के माध्यम से अपने भाव व्यक्त किए। किसीने गाना गाया, किसी ने नृत्य किया, किसी ने कविता पाठ किया और सभी ने इस प्रकार प्यार और उल्लास के साथ अपना आशीर्वाद भेजा। सभी ने मिलकर जन्मदिन को खास और अविस्मरणीय बना दिया। इस तरह परिवारजनों ने अनुशासन में रहकर लॉक डाउन का पालन किया। सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद.... घर में रहो सुरक्षित रहो। . आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमें hindirakshak17@gmail.com पर अणु डाक (मेल) कीजिये, अ...
हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा
कविता

हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा

श्रीमती श्यामा द्विवेदी वाराणसी (उ.प्र.) ******************** बड़े तपों से धरती पर आयी हो गंगा! हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा? हमने तुमको किया है कलुषित, शुचिता भी कर बैठे दूषित। लज्जित हैं अपनी करनी पर, अब न करेंगे तुम्हें प्रदूषित। बिना तुम्हारे बहुत असंभव है ये जीवन, हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा? गौमुख से सागर तक तुम बहती हो गंगा जीवन के पथ को निखार चलती हो गंगा। उद्धार सभी का करें तुम्हारी लहर लहर तन मन को भी शीतल करती हो गंगा। पर उपकार हमें सिखाती रही सदा, क्या हमें छोड़ के यूँ ही चली जाओगी गंगा? ऋषियों की माँ जान्हवी गंगा सागर तक धार प्रवाही गंगा। शिव के जटा जूट की गंगा, स्वर्गातीत भागीरथि गंगा। जीवन के संस्कार तुम्हीं से, पाप रहित व्यवहार तुम्हीं से तुम संस्कृति का भान हो गंगा हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा? अगर गयीं तो नहीं भरेगा कुंभ का मेला, बिना तुम्हारे संगम हो...
नैनों की बात
कविता

नैनों की बात

कंचन प्रभा दरभंगा (बिहार) ******************** नैनों की क्या बात कहूँ नैना ये क्या कर देते हैं चाहूँ मैं जो बात छिपाना महफिल में सब बयाँ कर देते हैं किसी की खुशियाँ होठों पर ला कर रौनक तमाम कर देते हैं चाहूँ मैं जो बात छिपाना महफिल में सब बयाँ कर देते हैं दवा नहीं पाते दर्द किसी का मोती की तरह आँशु छलका देते हैं चाहूँ मैं जो बात छिपाना महफिल में सब बयाँ कर देते हैं . परिचय :- कंचन प्रभा निवासी - लहेरियासराय, दरभंगा, बिहार सम्मान - हिंदी रक्षक मंच इंदौर (hindirakshak.com) द्वारा हिन्दी रक्षक २०२० सम्मान से सम्मानित  आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमें hindiraksha...
मैं मजदूर हूं
कविता

मैं मजदूर हूं

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर म.प्र. ******************** हां मैं मजदूर हूं, हां मैं मजदूर हूं, समुद्र की छाती चीरकर, बांध बनाया, अपने हाथों से, सृष्टि का निर्माण किया, चट्टानों को काटकर,राह बनाई, रेगिस्तान को, हरा भरा किया, फिर भी आत्म सम्मान, से दूर हूं। हां मैं मजदूर हूं, हां मैं मजदूर हूं। अन्न उगाता हूं धरती से, पर भूखा रह जाता हूं, औरों के तन ढकता वस्त्रों से, बिना कफन मर जाता हूं, पेट की आग बुझाने को, मैं मजबूर हूं, हां मैं मजदूर हूं, हां मैं मजदूर हूं। निर्धन का खून चूस-चूस कर, अपना घर ही भरते हैं, नागों जैसा फन फैलाए, मजदूरों को डरते हैं, जिंदगी का बोझ कंधों पर उठाता हूं, हां मैं मजदूर हूं, हां मैं मजदूर हूं। जिनका वर्तमान गिरवी, भविष्य अंधकार है, धरा बिछौना छत आसमां, ना कोई बहार है, बोल ना पाता मालिक के आगे, अपना सर झुकाता हूं, हां मैं मजदूर हूं, हां मैं मजदूर हूं। . प...
परेशां धरती
कविता

परेशां धरती

राधा शर्मा इंदौर मध्य प्रदेश ******************** धरती बोली इक दिन गगन से ये प्रकोप कब मिट पायेगा गगन से आवाज़ आई जब सूर्य तपन बढ जाएगा हवा में फैला रोग कीटाणु खुद से मर जाएगा फिर रोइ धरती कुछ खोइ खोइ सी धरती बोझ महामारी का अब सह ना सकूंगी ए गगन अब मै कुछ कर ना सकूंगी तेरे पास तो है चाँद सितारे मेरी तो दुनिया ही ये मानव सारे कुछ चिता मे जल रहे है तो कुछ दफन हो रहे है अब तू ही बता ए गगन करोना से बिमार मानव मेरी गोद में सो रहे है जब कभी डगमगा जाती हूँ तो भूकंप सा कहलाती हूँ जब सूखा पडे आकाल तब खुद ही बिखर जाती हूँ भेज ए गगन ऐसी कोई दवा शुद्ध हो जाऐ ये जहरीली हवा फिर हो धरती पर चहल-पहल तेरे गगन में भी हो हवाई की पहल सूनी पडी मेरी गलियां सूना सा सारा शहर . परिचय :- राधा शर्मा निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो...
कलम लेखन से संवरते अक्षर, उदय होते नए विचार
आलेख

कलम लेखन से संवरते अक्षर, उदय होते नए विचार

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के जरिए लेखन भले ही सरल प्रक्रिया हो गई हो। कलम के माध्यम से जो विचार और अक्षर निखरते है उसकी बात ही कुछ और होती है। इस और ध्यान ना देने से हैंडराइटिंग ख़राब होने की वजह भी यही रही है। व्याकरण त्रुटि ना के बराबर रहती है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल के साथ -साथ हैंडराइटिंग को भी जारी रखें। क्योकि कलम से कागज पर लिखी जाने वाले लेखन विधा कम्प्यूटर युग में खो सी जाने लगी। सुन्दर अक्षरों की लिखावट के पहले अंक मिलते थे। साथ ही सुन्दर लेखन की तारीफे होती थी जो जीवन पर्यन्त तक साथ रहती थी, स्कूलों, विभिन्न संस्थाओं द्धारा सुन्दर लेखन प्रतियोगिता भी होती थी। अब ये विधा शायद विलुप्ति की कगार पर जा पहुंची। लेखन विधा को विलुप्त होने से बचाने हेतु लेखन विधा के प्रति अनुराग को हमें जारी रखना होगा। ये लेखन एक सागर के सामान...
निर्झरणी
कविता

निर्झरणी

अर्पणा तिवारी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** मै नारी हुं, निर्झरणी हुं, कल कल करती सरिता पावन हुं। मन से रेवा, तन से गंगा, अनुरागी हुं, मनभावन हुं।। परमेश्वर ने मुझको सृष्टि की रचना का आधार रखा। आदि शक्ति का रूप बनाकर उमा रमा फिर नाम दिया।। मानव जाति जन्मे तुझसे, मुझको यह वरदान दिया। नवजीवन देती, परमेश्वर की सत्ता की परिचायक हुं।। मन से रेवा तन से गंगा अनुरागी हुं मनभावन हुं। मै जीवन के तपते रेगिस्तानो में रिश्तों की बगिया महकाती हुं। मै वसुधा हुं, पीड़ा सहकर जीवन का पुष्प खिलाती हुं।। लेकर मर्यादा सागर की सिमट सिमट मै जाती हुं। मै सुर भित मंद पवन सी सृष्टि की अधिनायक हुं।। मन से रेवा तन से गंगा, अनुरागी हुं मनभावन हुं। उत्कृष्ट कृति मै परमेश्वर की फिर क्यों कमतर आंकी जाती हुं। सतयुग में अग्निपरीक्षा देती, द्वापर में जुएं में हारी जाती हुं।। पुष्पों सा कोमल मन ले क्यों कलयुग...
तृष्णा
कविता

तृष्णा

निर्मल कुमार पीरिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** खिलना चाहता हूँ मैं भी, पर गमलो में उगे पौधों, की तरह की नही, ख्वाहिश है जंगलों-सी फैलने की, ना कोई ओर ना छोर कोई, शांत योगी से, फुसफुसाते हवा सँग, उगना चाहता हूँ, बरगद की तरह, सुनता पंछियों की कलरव, झांकते नीड़ से पांखी, देते सुकू पथिक को, जो भर दे साँसे जहाँ में... चहचहाना चाहता हूँ, चिड़ियों की मानिद, जी भर, उड़ना चाहता हूँ, परिंदों के सँग, पींगें भरता, जमी ओ आसमा के, मिलन-रेखा तक... महकना चाहता हूं, फूल बहार की तरह नही, स्वच्छंद बेलो की तरह टेसू, कचनार ओ अमराइयों की तरह... बहना चाहता हूँ, पर नदी की नही, सागर ओ झरनों के मानिद, चट्टानों को चीरती, बन्धनों को तोड़ती उन्मुक्त, बेखौफ लहरों की तरह, थाह लेना चाहता हूँ, अंनत मन की गहराईयों तक... बरसना चाहता हूँ, पर बदली सा नही सावन की झड़ी सा, तपती धरा पर, बंजर जमी पर, सूखे अधरों पे, ...
बहाना था
ग़ज़ल

बहाना था

कृष्ण कुमार सैनी "राज" दौसा, राजस्थान ******************** तिरे लब पर हमेशा ही कोई रहता बहाना था तुझे भी है मुहब्बत यह मुझे यूँ आज़माना था मुझे तुम मिल गये मानो सभी कुछ मिल गया मुझको तुम्हारा प्यार ही मेरे लिये जैसे खज़ाना था हमेशा की तरह बारिश में मिलने रोज़ आता था मुहब्बत का यक़ीं हर रोज़ यूँ तुमको दिलाना था जले हों लाख दिल सबके मुहब्बत देखकर मेरी मुझे कुछ ग़म नहीं था प्यार बस तुझ पर लुटाना था हवा से उड़ गए लाखों घरौंदे हम गरीबों के कभी जिन में हमारा खूबसूरत आशियाना था लगा है रोग सबको प्रेम का जिसका मदावा क्या मगर यह "राज" सबके सामने भी तो जताना था मदावा --इलाज परिचय :- कृष्ण कुमार सैनी "राज" निवासी - दौसा, राजस्थान आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर...
वो….. नाचती थी
कविता

वो….. नाचती थी

प्रीति शर्मा "असीम" सोलन हिमाचल प्रदेश ******************** वो..... नाचती थी ? जीवन की, हकीकत से, अनजान। अपनी लय में, अपनी ताल में, हर बात से अनजान। वो...... नाचती थी? सोचती.......... थी? नाचना ही..... जिंदगी है। गीत-लय-ताल ही बंदगी है। नाचना........ ही जिंदगी है। नहीं ........ शायद नाचना ही.... जिंदगी नहीं है। इंसान हालात से नाच सकता है। मजबूरियों की, लंबी कतार पे नाच सकता है। लेकिन ........... अपने लिए, अपनी खुशी से नाचना। जिंदगी में यहीं, संभव -सा नहीं। हकीकतें दिखी...... पाव थम गए। फिर कभी सबकी आंखों से, ओझल हो ......!!! नाचती .....अपने लिए। लेकिन जिम्मेदारियों से, वह भी बंध गए। फिर गीत-लय-ताल, न जाने कहां थम गए। पांव रुके, और हाथ चल दिए। शब्द नाचने लगे। जीवन की, हकीक़तों को मापने लगे। उन रुके पांवों को, आज भी बुलाते हैं। तुम थमें हो, नाचना भूले तो नहीं। वो.....नाचती ...
भारतीय कलाकार संघ का युवा साहित्यकार सम्मेलन के अंतर्गत ऑनलाइन युवा कवयित्री सम्मेलन सम्पन्न
साहित्य समाचार

भारतीय कलाकार संघ का युवा साहित्यकार सम्मेलन के अंतर्गत ऑनलाइन युवा कवयित्री सम्मेलन सम्पन्न

भवानीमंडी। भारतीय कलाकार संघ द्वारा लॉकडाऊन के दौरान युवा कवियों की प्रतिभा निखारने हेतु चलाए जा रहे ऑनलाइन युवा साहित्यकार सम्मेलन के अंतर्गत सोमवार को ऑनलाइन युवा कवयित्री सम्मेलन आयोजित किया गया जिसने देश के तमाम शहरों की नवोदित कवयित्रियों ने काव्य पाठ किया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ.राजेश कुमार शर्मा पुरोहित एवं विशिष्ट अतिथि रमाशंकर योगी जी ने पूरे समय उपस्थित रहकर कार्यक्रम का आनंद लिया। कार्यक्रम का शुभारंभ कवियत्री नेहा सोनी ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत कर किया। दतिया से साक्षी पचौरी ने अपनी रचना तलब प्रस्तुत करते हुए पढ़ा, तलब लगी है इक झलक उसके दीदार की... ना दारू की ना सिगार की ना ही कोई सुट्टा बार की... तलब लगी है उसे हिन्दुस्तानी दीवार की। रश्मि दुबे भोपाल ने कहा "जिसे तुमने जितना चाहा वह तुमसे खुद को हार चुकी है"। नवाबों के शहर लखनऊ से वं...
हीलिंग से स्वस्थता
योगा

हीलिंग से स्वस्थता

डॉ. सुरेखा भारती *************** हीलिंग से स्वस्थता, अपनी और दूसरों की ... आज के व्यस्ततम जीवन में व्यक्ति अनेक तनावों से घिरा हुआ है। वह अपने मन की शांति चाहता है। शांति व्यक्ति को प्राप्त होती है, उसके आध्यात्मिक विचारों से। इसके अलावा ऐसी कोई वस्तु या विचार नहीं हैं जिससे उसे चिर शांति का अनुभव हो। मन का सुख व्यक्ति प्राप्त करता है और थोडे समय बाद वह पुनः बैचेन हो उठता है, फिर वह विचलित, अस्थिर मन के कहने पर चलता है। कभी दुःखी होता है तो कभी सुखी होता है। जीवन का अधिक से अधिक समय वह इसी उधेडबुन में नष्ट करता है कि कहीं चिर शांति प्राप्त हो। बीमार होने पर अनेक औषधियों के सेवन से भी वह दुःखी होता है। तब वैकल्पिक चिकित्सा ढूंढता है। आज वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों में हीलिंग पद्धति स्वयं को स्वस्थ्य, उर्जावान रखने के लिए बहुत कारगार सिद्ध हो रहीे है। हीलिंग के बारे में यदि कुछ कहते हैं तो...
साहब यूँ ही हम किसान ना कहलाते
कविता

साहब यूँ ही हम किसान ना कहलाते

कृष्ण शर्मा सीहोर म.प्र. ******************** भूखे को भोजन कराते, प्यासे को पानी हे पिलाते दिल से हम अंजान रिश्तो को अपना बनाते। साहब यूँही हम किसान ना कहलाते। बेरोजगार खुद हूँ, पर गरीबो को रोजगार देंने में जरा भी नही घवराते। सो जाऊंगा भूखा खुद, पर सबको पेट भर खाना हे ख़िलाते। साहब यूँही हम किसान ना कहलाते। हमारा नाम लेकर ये जो जमीन पर दुग्ध, सब्जी जो हे गिराते, ना जाने क्यों हमारे मान को नीचा हे दिखाते, हम तो एक बूंद दुग्ध को भी अपने हाथों से हे उठाते हे साहब साहब यूँही हम किसान ना कहलाते। कोई नही है किसान का यहाँ सब अपनी राजनीति हे चमकाते, नाम लेकर हमारा कही अपराध है ये किये जाते। करते रहो बदनाम हमे यूँही पर हम अपना कर्म यूँ ही ईमानदारी से हे हम किये जाते। साहब यूँही हम किसान ना कहलाते। . परिचय :- कृष्ण शर्मा निवासी : सीहोर म.प्र. आप भी अपनी कविताएं, कहानियां...
शब्द खामोश हो रहे हैं
कविता

शब्द खामोश हो रहे हैं

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** न जाने क्यों शब्द खामोश हो रहे हैं, शब्द मन्थन चल रहा है, मन मस्तिष्क मे पल पल, कुछ नया रचना चाहता है यह दिल। पर लेखिनी तक आते आते, शब्द मूक हो रहे हैं, न जाने क्यों यह शब्द, खामोश हो रहे है। मच रही है खलबली क्यों मस्तिष्क मे निरन्तर, शब्दों की तकरार चल रही हैं, अन्दर ही अन्दर, अन्तर्द्वद से ग्रसित भटकते जैसे, यह शब्द हो रहे हैं। न जाने क्यों यह शब्द, खामोश हो रहे हैं। . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि ...
जिजीविषा
ग़ज़ल

जिजीविषा

वीणा वैष्णव "रागिनी"  कांकरोली ******************** रोज डर डर के, जिंदगी हर पल ऐसे जी रही थी मैं। तेज आंधी जब चली, तिनके को निहार रही थी मैं। कभी इधर उड़ा कभी उधर, ऐसे उड गिर रहा था वो, हर बार, एक नाकाम कोशिश किए जा रहा था वो, एक झोंका ऐसा आया, उसे उड़ता देख रही थी मैं। मिलती है सफलता, यहीं बैठे सब सोच रही थी मैं बरसों पड़ा था, गलती से आंगन के किसी कोने में, आज आसमान में, सपने सच होते देख रही थी मैं। सब्र फल मीठा, ये आज हकीकत होते देखा मैंने, वरना खो देता अस्तित्व, यही सोच डर रही थी मैं। मंजिल मिली होगी, या कहीं भटक गया होगा वो, यही प्रश्न दिमाग रख, अब परेशान हो रही थी मैं। जिजीविषा रख वो उड़ा, यह भी तो कम नहीं था। गिरेगा उठेगा मिलेगी मंजिल, खुश हो रही थी मैं। कहती वीणा धरा वो मरा, जो कुछ भी ना किया। हिम्मत मिली, आखिरी पड़ाव ऐसे लड़ रही थी मैं। . परिचय : कांकरोली निवासी वीणा वैष...
समय आ गया है
कविता

समय आ गया है

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** सुना है जब हम किसी की अंत्येष्टि में जाते है, तो कुछ घड़ी के लिए श्मशान वैराग्य हमे गैर लेता है। वैसे ही मुझे इस कोविड काल मे कोविड वैराग्य ने घेर लिया है,और जो ज्ञान मुझे इस कालावधी में प्राप्त हुआ वो इस कविता में रूप में आप को सादर प्रस्तुत है। बहुत कर लिया बाहर का प्रवास भीतर के प्रवास का समय आ गया है। दुसरो की त्रुटियां बहुत गिन ली तूने स्वयं की गिनने का समय आ गया है । आनंद उठा लिया दूजो पर हंस कर खुद पर हँसने का समय आ गया है। हर एक को नापा अपने पैमाने से दूसरे को नाप देने का समय आ गया है। अपना लाभ देखते रहे उसकी हानि से मुझे क्या सब लेखाजोखा देने का समय आ गया है। ज्ञान बांट दिया खुद रीते रह गए खुद सीखने का समय आ गया है। बढ़ाते रहे लकीर अपनी दुसरो की काट कर खुद लकीर खींचने का समय आ गया है। पीर को प्रेम समझ सभी से करते रहे पीर ...
उपन्यास – मैं था मैं नहीं था भाग – ०७
उपन्यास

उपन्यास – मैं था मैं नहीं था भाग – ०७

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** जैसे तैसे पहाड़ सी लम्बी रात बीत गयी। कोई भी नहीं सोया था। दुसरे दिन की सुबह अपने समय से ही होना थी सो हुई। परन्तु ये सुबह इस घर के लिए रोज जैसे नहीं थी। मानो ये सुबह खामोशी से दस्तक देते हुए दु:खो का पहाड़ ही लेकर आयी थी। मेरे लिए तो अँधेरा ही लेकर आयी थी। मेरा आगे का प्रवास संकट भरे रास्तों पर अँधेरे में ही मुझे करना था। इस घर में मायके आयी हुई एक सुहागन पर दुर्दैवी काल ही चढ़ कर आया था। नियति के मन में आगे क्या है? यह सवाल यहाँ पर सभी के मन में था और अनेक आशंकाए और कई सारे उलझे प्रश्न लिए भी था। सभी आठ बजे कर्फ्यू ख़त्म होने का इन्तजार कर रहे थे। आठ बजते ही पंतजी ने माँ के मृत्यु की खबर सबको देने के लिए किरायेदार खोले को भेजा। पंतजी के आज्ञाकारी खोले तुरंत निकल पड़े। जन्म की वृद्धी और मृत्यु का सूतक इन दोनों की खबर एक साथ ही सब को मिल...
आत्म-मूल्याँकन
लघुकथा

आत्म-मूल्याँकन

डॉ. कुँवर दिनेश सिंह शिमला, हिमाचल प्रदेश ************************ प्रतिभा ने एक प्रतिष्ठित निजी विश्वविद्यालय में भौतिकी विषय में प्रवक्ता पद के लिए आवेदन किया। उसने पीएच.डी. कर ली थी और कुछ संस्थानों में अतिथि संकाय में शिक्षण का अनुभव भी अर्जित किया था। साथ में कुछ शोधपत्र भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के चर्चित जर्नलों में प्रकाशित करा लिए थे। उक्त पद के लिए प्रतिभा को साक्षात्कार के लिए बुला लिया गया। उसकी प्रस्तुति से प्रसन्न होकर इंटरव्यू बोर्ड की अध्यक्षता कर रहे कुलपति ने पूछा, "आप वेतन कितना चाहते हो?" "जी, आपने नियत किया ही होगा इस पद के लिए ..." "नहीं, हमारे वेतन सरकारी वेतनमान से अधिक भी होते हैं; यह व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करता है। हमें तो आउटपुट अच्छी चाहिए, बस... कहिए आप स्वयं को कितने वेतन के योग्य मानती हैं?" प्रतिभा ने थोड़ा झिझक कर, रुक-रुक कर कह दिया, "जी, स...
आश्चर्य
लघुकथा

आश्चर्य

सौरभ कुमार ठाकुर मुजफ्फरपुर, बिहार ************************ आज सुबह जितेश का फ़ोन आया, हिमांशु ने फ़ोन रिसीव किया बोला: हेल्लो, क्या हालचाल जितेश, कैसे हो? जितेश बोला, क्या भाई तबियत खराब है? "भाई जितेश तुम अब बार-बार बिमार कैसे हो जाते हो?" हिमांशु ने पूछा ! "भाई याद है मुझे आज भी वह दिन जब मै बच्चा था, और गाँव में रहता था। कोई डर नही,कोई गम नही। जो मन में आया खाया, खेला! कभी बिमार नही होता था। पर आज शहर में रहता हूँ, हर पंद्रह दिन पर बिमार हो जाता हूँ। आज भी वही खाना खाता हूँ, जो गाँव में खाता था। गाँव में कुएँ और चापाकल का पानी पीता था आज मिनिरल वॉटर पीता हूँ। फिर भी मैं बिमार हो जाता हूँ। "एक बात समझ नही आता गाँव के मुकाबले शहर में सेहत का ध्यान अच्छे से रखता हूँ, फिर भी यार हर पंद्रह-बीस दिन पर बिमार हो जाता हूँ। जितेश बोला। "हिमांशु उसकी बातों को सुनकर आश्चर्य में पड़ा रह ग...
प्रीति की रीत
कविता

प्रीति की रीत

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** प्रीत की पाती ना ये मद है ना ही मदिरा, ना बंधन है ना आज़ादी। प्रीति की रीत ही ऐंसी, मेरे मन को सदा भाती।। नहीं क्लोशों के झुरमुट में, हृदय का द्वार है खुलता। पतित पावन हो अंतर्मन, तो निर्मल  भाव ये मिलता।। समय की चाकरी में तुम, नहीं ये साधना पीसो। नयन धर नेह के अश्रु, पटल नव कल्प के सीचों।। ना रह जाता जहाँ में कुछ, हो प्रियतम राग की रसना । ऋषि मुनि संत विद्ववों के  कथानक  सार का कहना।। नैसर्गिक एक दृष्टि रख ना देखे वंश जीव जाती। सदा सुरभित है दुनिया में ये अनुपम 'प्रीत की पाती'।। करे लौकिक जहाँ को हेतु रक्षित भाव की थाती। विरह तत् नित्य चिंतन में अवनि अंबर वरे स्वाति ।। समर्पित प्रेम से बढ़कर नहीं कुछ ओर रे मितवा। जो त्यागे अन्य की ख़ातिर स्वयं उज्ज्वल हो ज्यों बाती।। . परिचय :- अर्चना पाण्डेय गौतम साहित्यिक उपनाम - अर्चन...
चिट्ठियां तेरे नाम की
कविता

चिट्ठियां तेरे नाम की

विशाल कुमार महतो राजापुर (गोपालगंज) ******************** आंखों की आँसू सुख गई, अब सिसकियां नही आती, तू याद नही करती और मुझे हिचकियाँ नही आती। लिखने को लिखी कई चिट्ठियां तेरे नाम की, पर तु जहाँ हैं, वहाँ कोई चिट्ठियां नहीं जाती। अगर तू बन जाय मंजिल, तो हम तेरे सफर बनेंगे सुख में तेरे साथ हैं, और दुःख का भी हमसफर बनेगें। जो बह जाय लहरों के संग वो वापस कभी मिट्टियां नही आती, पर तु जहाँ हैं, वहाँ कोई चिट्ठियां नहीं जाती। कभी सोचा ना था बदलोगे और इतना कैसे बदल गए, कहते थे साथ न छोड़ेंगे, और छोड़के क्यों तुम चले गए। जिस लब की बाते गूंजती थी, उस लब से अब तो सीटियां नही आती पर तु जहाँ हैं, वहाँ कोई चिट्ठियां नहीं जाती। कैसे तुम्हें बताए हम, इस दिल सुनाए हम तेरे बिना तन्हा तन्हा कैसे ये पल बिताए हम दिल दर्द होठो से कभी बयां नहीं कि जाती पर तु जहाँ हैं, वहाँ कोई चिट्ठियां नहीं जाती।   ...
चार कांधों की दरकार
कविता

चार कांधों की दरकार

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** सांसों के मध्य संवेदना का सेतु ढहते हुए देखा देखा जब मेरी सांसे है जीवित क्या मृत होने पर सवेंदनाओं की उम्र कम हो जाती या कम होती चली जाती भागदोड़ भरी जिंदगी में वर्तमान हालातों को देखते हुए लगता है शायद किसी के पास वक्त नहीं किसी को कांधा देने के लिए समस्याओं का रोना लोग बताने लगे और पीड़ित के मध्य अपनी भी राग अलापने लगे पहले चार कांधे लगते कही किसी को अब अकेले ही उठाते देखा, रुंधे कंठ को बेजान होते देखा खुली आँखों ने संवेदनाओं को शुन्य होते देखा संवेदनाओ को गुम होते देखा ह्रदय को छलनी होते देखा सवाल उठने लगे मानवता क्या मानवता नहीं रही या फिर संवेदनाओं को स्वार्थ खा गया लोगों की बची जीवित सांसे अंतिम पड़ाव से अब घबराने लगी बिना चार कांधों के न मिलने से अभी से जबकि लंबी उम्र के लिए कई सांसे शेष है ईश्वर से क्या वरदान मांगना चाहिए ? बि...
पुस्तक का संसार
कविता

पुस्तक का संसार

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** बड़ा वृहद पुस्तक का संसार, इसका ज्ञान अनन्त अपार। मानव-सभ्यता का जो हुआ विकास, पुस्तक से पाया है उसका विस्तार। संस्कृति-विकास का जो समग्र प्रयास, पुस्तकों को मिला नेह-श्रेय अपार। बड़ा वृहद पुस्तक का संसार, इसका ज्ञान अनन्त अपार। पुस्तक पर मानव मात्र का है अधिकार, जाति-सम्प्रदाय का नहीं कोई विवाद। व्यक्तित्व बनाती संतुलित और उदार, अद्भूत आश्चर्यो की इसमे है भरमार। बड़ा वृहद पुस्तक का संसार, इसका ज्ञान अनन्त अपार। मेरे एकांकीपन में एकांत है दिलाती, जब कभी भी होती हूँ मैं इसके साथ। सारे जगत में इसके संग घूम आती, स्वर्ग बना देती ये फिर मेरा छोटा संसार। बड़ा वृहद पुस्तक का संसार, इसका ज्ञान अनन्त अपार। आज करो सब संकल्प बस इतना, प्रेम करो मनुज तुम इसका करो आभार, देती है ये सतत-निस्वार्थ सेवा का उपहार, ये महान मित्र और सच्ची है सलाहकार...