Thursday, December 4राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

व्यंग्य

शरीर की ओवरहॉलिंग का राष्ट्रीय पर्व : रविवार
व्यंग्य

शरीर की ओवरहॉलिंग का राष्ट्रीय पर्व : रविवार

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** रविवार! वो दिन जब देश के बहुसंख्यक पुरुष अपने शरीर रूपी वाहन की सर्विसिंग, डेंटिंग-पेंटिंग और फेस एलाइनमेंट की कोशिश करते हैं- और फिर थककर वापस उसी पुराने स्टार्टिंग ट्रबल वाले मोड में लौट जाते हैं। सुबह शीशे में झाँका तो माथे पर दो-चार सफ़ेद बाल ऐसे अठखेलियाँ करते मिले, जैसे मोहल्ले की गली में खड़ी बाइक को किसी मनचले ने ‘की-की’ करते हुए खरोंच मार दी हो। कभी जिन बालों को नजर न लगे, इसलिए बचपन में काजल का टीका लगाया जाता था- अब वही बाल इसलिए सफ़ेद हो रहे हैं कि किसी की नजर पड़ ही  जाए! कभी अपने बालों पर करते थे नाज़, अपना रंग जमाए रहते थे महफ़िलों में- और आज वही बाल अपना रंग बदल रहे हैं! सच कहें तो अब यह काया नामक गाड़ी, आर.टी.ओ. की अयोग्य वाहनों की सूची में और ज़िन्दगी के खेल में “एक्स...
ट्रकों का दर्शनशास्त्र: सड़क का पहलवान और प्रेम का दार्शनिक
व्यंग्य

ट्रकों का दर्शनशास्त्र: सड़क का पहलवान और प्रेम का दार्शनिक

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** ट्रक का मिज़ाज हमेशा से दबंग, मजबूत और थोड़ा अहंकारी किस्म का माना गया है- सड़क नुमा अखाड़े का पहलवान, जो अपने वज़न और रफ्तार से किसी भी बाधा को कुचलने की क्षमता रखता है। लेकिन कभी-कभी यही पहलवान आपको दिला चुराने वाला ठग सा भी लग सकता है-जब सड़क किनारे खड़ा किसी नववधू की तरह सोलह श्रृंगार किए मुस्कुराता है,तो अच्छे खासे आदमिया भी दिल पिघल नहीं मेरा मतलब दहल जाए। मेहंदी जैसे पैटर्न से रंगे दरवाज़े, झालरों से सजे शीशे, गोटों और कढ़ाईदार पेंटिंग से लिपटी देह, और पीछे लटकता नज़रबट्टू- मानो हर कोना कह रहा हो, “देखो मुझे… मगर प्यार से।” यह ट्रक नहीं मित्र, सड़क पर खड़ी चलती-फिरती अमूर्त कलाकृति है, और उसके पीछे लिखा वाक्य- “बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला”- उसकी सौंदर्य रक्षा का संस्कार है। यह बा...
काल के कपाल पर
व्यंग्य

काल के कपाल पर

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** कहते हैं, काल के कपाल पर पहले से ही हमारा भूत, वर्तमान और भविष्य अंकित होता है- हम बस वही जीते हैं जो ऊपर वाले ने लिख दिया है। पर कभी-कभी मन करता है कि इस ‘कॉस्मिक पांडुलिपि’ में एक-दो पंक्तियाँ अपनी मर्ज़ी की भी जोड़ दी जाएँ- कम-से-कम एक “फुटनोट” तो लेखक स्वयं भी लिख सके! मेरा मन तो बस इतना चाहता है कि जीवन के इस साहित्यिक कापी पर कहीं लिखा जाए- “यह लेखक किसी गुट का हिस्सा है।” क्योंकि बिना गुट के लेखक का हाल वैसा ही होता है जैसे गली में अकेली चलती अबला- हर किसी की नजर में ‘खतरा’। जबसे कहा है कि “मैं किसी गुट का नहीं”, तबसे मुझ पर शोध-प्रबंध शुरू हो गया है- कौन-से शब्दों से मेरी विचारधारा झलकती है, किस पंक्ति में कौन-सा खेमापन है। साहित्य में गुटबाज़ी आज मठों का नया धर्म है- जहाँ नए लेख...
एआई का झोला-छाप क्लिनिक
व्यंग्य

एआई का झोला-छाप क्लिनिक

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** तकनीक गड़बड़झाला का एक झोल सामने आया है l अखबार में विज्ञापनों के मायाजाल में फंसी इस खबर पर नजर पडी l अख़बार में सुर्ख़ी बनी है - "ए आई नीम हकीमी..चैट जीपिटी से परामर्श लेकर खाने का नमक बदला ,खतरे में आई जान" ‘नीम हकीम खतरे जान’ अब महज़ नीम और हकीम के बीच का मामला नहीं रहा, क्योंकि चैट जीपिटी भी बाकायदा झोला-छाप डॉक्टरों की बिरादरी में शामिल हो चुका है। मरीजों का इलाज करते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया है। वो दिन दूर नहीं जब मोहल्लों की दीवारों पर रंगीन पोस्टर चिपके मिलेंगे- “दाद, खाज, खुजली, भगन्दर, पायरिया ,पीलिया,पथरी ,बवासीर, नपुंसकता, नामर्दी- चैट जीपिटी से पक्का इलाज, गारंटी सहित!” अख़बार खोलते ही पंपलेट झड़ पड़ेंगे- “आपके शहर में ही खुला है चैट जी पि टी के क्लिनिक की टापरी l पहुँचे हुए ...
अब ए.आई. भी आई बन सकती है!
व्यंग्य

अब ए.आई. भी आई बन सकती है!

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** सुबह अख़बार हाथ में लिया तो एक खबर ने मेरी चाय में डूबे हुए बिस्कुट को इतना शर्मिंदा किया की वो शर्म से गल कर डूब ही गया l खबर थी - "अब ए.आई. से पैदा होंगे बच्चे!" मतलब अब ‘प्यार में धोखा’ नहीं, सीधा ‘कोड की कोख में होगा गर्भधारण!’ कृत्रिम बुद्धि अब कृत्रिम बुद्धिपुत्र को जन्म देगी। इस दुनिया में हम क्यों आए... इसका कोई "नियर-टु-ट्रूथ" उत्तर हो सकता है तो यही कि शायद शादियाँ करने... और शादियाँ क्यों कराई जाती हैं? ताकि महिला ‘माँ’ यानी कि ‘आई’ बन सके। हमारे समाज में आज भी बिना ब्याही लड़की और बिना औलाद की स्त्री को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। शादी होते ही लड़के और लड़की दोनों के माँ-बाप इस आस में लग जाते हैं कि घर में किलकारियाँ गूंजें, बधाइयाँ गायी जाएँ। एक साल बीतते न बीते कि पडौसी ...
अंतिम दर्शन का दर्शन शास्त्र
व्यंग्य

अंतिम दर्शन का दर्शन शास्त्र

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** जीवन क्या है- पानी का एक बुलबुला है, साहब! दिन-रात हम लगे रहते हैं- भागदौड़ में... निन्यानवे के फेर में... और कब ऊपर वाले का इशारा हो जाए, साहब, पता ही नहीं चलता। पाप-पुण्य की गठरी... भवसागर... मोक्ष... ऐसी मौत सभी को नसीब हो, साहब! माया, धन, समृद्धि, वैभव- नाम सब धरे रह जाते हैं, साहब। बस, कब ऊपर वाले का बुलावा आ जाए, कह नहीं सकते! साथ जाएगा तो राम-नाम ही, और आपके भले कर्म ही। भारतीय दर्शन शास्त्र अब कहीं बचा है, तो इसी क्षणिक वार्ता में, जो अक्सर किसी शवयात्रा में शामिल लोग अपने मुख से उच्चारित करते ही हैं। ये बातें प्रायः टाइमपास के लिए, मृतक के दुख में औपचारिक रूप से शामिल होने के प्रमाण के रूप में, और यह अपेक्षा लेकर कही जाती हैं कि जब हमारी बारी आए, तो हमारे बारे में भी लोग ऐसा ही ...
पर्दा है पर्दा
व्यंग्य

पर्दा है पर्दा

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** राजा अपने विशेष आरामगाह में आराम फरमा रहा था। विशेष इसलिए कि वह पहली बार इस आरामगाह में आया था। राजा को एक ही दुःख कचोटे जा रहा था- आज वह अकेला था। बार-बार उसे दरबारियों के साथ की गई गुप्त महफ़िलें याद आ रही थीं। राजा के दरबारी, जो उसके हर बुरे काम में साथ देते थे, आज पास में नहीं थे। कुछ तो बाहर ही छूट गए थे। राजा को मालूम था कि इस नए आरामगाह में एक दिन उसे भी आना होगा, इसलिए उसने पहले ही कुछ दरबारियों को वहाँ भिजवा दिया था। यह सोचकर कि जब वह यहाँ आएगा, तो कंपनी देने के लिए दरबारी मौजूद रहेंगे। राजा की यह भी माँग थी कि उसके हर बुरे काम में साथ देने वालों को अलग कक्ष में क्यों रखा जाए? उन्हें तो उसके शयन कक्ष में ही रखा जाना चाहिए। लेकिन किसी ने राजा की बात नहीं मानी। राजा चिल्लाता रहा,...
भगवान परीक्षा ले रहा है
व्यंग्य

भगवान परीक्षा ले रहा है

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** “धैर्य रखो, सब ठीक हो जाएगा। भगवान परीक्षा ले रहे हैं।“ बचपन से ही आप, मैं, सब सुनते आए हैं- यह रामबाण औषधि जैसे हर घाव पर बर्नॉल लगाने का काम करती है। चाहे घरवाले हों, रिश्तेदार, पड़ोसी, या राह चलते कोई अजनबी, हर कोई आपके घावों पर यह बर्नॉल लगाने को तैयार रहता है। अगर आप ज़्यादा ख़ुशनसीब हैं, तो राह चलता कोई भी यह बर्नोल चुपड़ता हुआ मिल जायेगा । मैं सोचता हूं, भगवान के पास और कोई काम नहीं है क्या? सिर्फ परीक्षा लेने का ही काम बचा है? भगवान ने इंसान बनाया, उसे पृथ्वी पर भेजा- ज़िंदगी जीने के लिए या सिर्फ प्रश्नपत्र हल करने के लिए? ज़िंदगी के बारे में कहते हैं, "ये जिन्दगी के मेले कभी ख़त्म न होंगे", लेकिन सच में तो ऐसा लगता है कि यहाँ कभी ख़त्म नहीं होंगे तो कये प्रश्नपत्रों की लड़ी । ये प्...
बाढ़ में डूबकर भी कैसे तरें
व्यंग्य

बाढ़ में डूबकर भी कैसे तरें

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** इधर बाढ़ आई और उधर सरकारी महकमों में, सखी, ऐसा उत्सव-सा माहौल बन पड़ा मानो बरसों से पेंडिंग मनौती की फाइल पर अफसर की चिडया बैठ गयी ! जैसे ही नदियाँ उफान पर आईं, वैसे ही कागज़ों में ‘हर घर नल-जल’ योजना बिना कोई पत्ता हिलाए ही पूर्ण घोषित हो गई। देखो तो जरा इन सरकारी नुमाइंदों को-नदी के उफान के साथ इनके चेहरे भी कैसे उल्लास से उफनने लगे हैं! बाढ़ इनके लिए मानो ‘मुँह माँगी मुराद’ बन गई हो, और जो अभागे सच में डूब गए, वे भी सरकारी आँकड़ों में तैरकर चमक बढ़ा रहे हैं। जो बचे, वे ‘राहत लाभार्थी’ कहलाए, और जो न डूबे, न बचे-वे चाय की चुस्कियों के साथ टीवी न्यूज़ चैनलों पर ‘बाढ़-आपदा विशेषज्ञ’ बन बैठे हैं। रहत कर्मचारियों को लगा दिया है काम पर..दूरबीन लगाये देख रहे है, हांक लगा रहे हैं..”तनिक हाथ-प...
पापों का स्टॉक क्लीयरेंस
व्यंग्य

पापों का स्टॉक क्लीयरेंस

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** मानव जाति भी कमाल की चीज़ है। अपने पापों को वह ऐसे संजोकर रखती है मानो कोई व्यापारी पुराने माल को गोदाम में ठूँस रहा हो। व्यापारी सोचता है- “सीज़न आएगा तो क्लीयरेंस सेल में निकाल दूँगा।” और यही फॉर्मूला धर्म के बाज़ार में भी चलता है। फर्क बस इतना है कि वहाँ माल एक्सचेंज की सुविधा है- “पाप लाओ और बदले में पुण्य ले जाओ।” मानो धर्म की दुकान चलाने वालों ने भगवान से बाकायदा लाइसेंस ले रखा हो। हर पाप की एक तय एक्सचेंज वैल्यू है- आपके सारे काले पापों को पुण्य की व्हाइट मनी में बदलने की दरें निर्धारित हैं। सावन का महीना तो जैसे खास इसी काम के लिए बना है। ठीक वैसे ही जैसे दुनियावी धन-दौलत का हिसाब-किताब मार्च क्लोज़िंग के दबाव में निपटता है, कुछ ऐसा ही दबाव सावन में पाप-पुण्य के वार्षिक ऑडिट क...
औकात की बात
व्यंग्य

औकात की बात

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** आज फिर उनकी औकात उन्हें दिखने लगी है। दुखी हैं बहुत। एक बार हो जाए, दो बार हो जाए, लेकिन बार-बार कोई औकात दिखा दे तो भला किसे बर्दाश्त होगा? इस बार तो हद ही कर दी। संस्था वाले भी पीछे ही पड़े हैं... क्या यार, इस बार तो मात्र दस रुपये की माला को मोहरा बना दिया, औकात दिखाने के लिए! उन्हें पता चला कि सम्मान करने के लिए जो माला उनके गले में डाली गई थी, उसकी बाजार कीमत दस रुपये थी, और संस्था द्वारा थोक में मंगवाने के कारण वह महज आठ रुपये में पड़ी थी। बस, तभी से अपसेट हैं। कार्यक्रम संस्था द्वारा उनकी शादी की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित था। संस्था वालों ने उनकी वर्षगांठ पर उन्हें दस रुपये की माला पहनाकर उनकी औकात दिखा दी! पिछली बार भी एक कार्यक्रम हुआ था। तब इसी संस्था के एक अन्य सदस्य को...
बिजली का बिल- ४४० वोल्ट है छूना है मना …
व्यंग्य

बिजली का बिल- ४४० वोल्ट है छूना है मना …

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** आजकल बिजली का करंट सिर्फ पागलखाने में या बिजली के तारों में ही नहीं दिया जाता, बल्कि आपके घर में हर महीने बिल के रूप में भी आता है। यह पागल का इलाज करने के लिए नहीं, बल्कि आपको पागल बनाने के लिए है! पहले यह बिल दो महीने में आता था। लेकिन सरकार को लगा कि लोग कम पागल हो रहे हैं, इसलिए इसकी आवृत्ति बढ़ाकर मासिक कर दी गई। सरकार की महावारी की तरह यह भी हर महीने बिना नागा के आता है- इसमें मीनोपॉज़ की कोई गुंजाइश नहीं! वैसे सरकार भी लोगों की चिल्लपों से बड़ी परेशान थी। जब बिजली का बिल दो महीने में आता था तो सुरसा के मुँह की तरह दिखाई देता था। इसलिए उसे हर महीने कर दिया गया, ताकि बिल आधा लगे। लेकिन जैसे ही बिल आधा हुआ, लोगों का बजट गड़बड़ा गया। बचे हुए पैसों से गृहिणियाँ अपनी शॉपिंग करने लगीं, ब...
जब नानी मरती है
व्यंग्य

जब नानी मरती है

सुधा गोयल बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश) ********************  "मेरे बराबर काम करोगी तो नानी याद आ जाएगी"- मैने बेटी को उलाहना देते हुए कहा। "किसकी नानी मम्मी? आपकी या मेरी? आपकी नानी को हम जानते नहीं और अपनी नानी तो यहां हैं हीं। फिर याद करने की जरूरत ही क्यों?" मुस्कराते हुए बिटिया बोली। गलती का एहसास होते ही मैंने अपनी जीभ काट ली। बिटिया ठीक ही तो कहती हैं। काम और नानी का क्या संबंध? भला हो इन लिखने वालों का जिन। होंने नानी की वृद्धावस्था का ख्याल न कर उन्हें भी मुहावरों की लाइन में लगा दिया। नानी के आराम करने के दिन हैं या काम की लाइन में लगने के? "जरा से काम का नाम सुनते ही इनकी नानी मरने लगती है। "बिट्टू रुआंसा होकर बोला- "मम्मी क्यों वे वक्त नानी को कोसती रहती हो।नानी मर जाएंगी तो छुट्टियों में किसके घर जाएंगे? तुम्हें अपनी मम्मी के लिए ऐसा नहीं कहना चाहिए।" बेटा नसीहत दे रहा है पर...
नौकरी- क्यों करी
व्यंग्य

नौकरी- क्यों करी

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** पहले के ज़माने में हमारे युवा मुल्क जीतने, फतेह करने निकलते थे। यात्राएँ करते थे, या फिर किसी के प्यार में पागल होकर फ़रहाद-मजनूँ-महीवाल बन जाते थे- क्रमशः शीरीं, लैला और सोनी की तलाश में भटकते रहते थे। वे इब्ने-बतूता, वास्को-डी-गामा और राहुल सांकृत्यायन की तरह सभ्यताओं, संस्कृतियों, द्वीपों-महाद्वीपों की खोज में निकलते थे। लेकिन आज की तारीख़ में युवाओं ने इन सबको अलविदा कह दिया है- अब तो एक ही खोज बची है- वो है नौकरी। कोई पूछे कि नौकरी क्यों करी? तो हम कहेंगे-गरज पडी इसलिए करी। और गरज है कि- बिन नौकरी छोकरी नहीं आती। विद्या ददाति सरकारी नौकरी, सरकारी नौकरी ददाति सुंदरी कन्या। बड़ी हसीन है ये नौकरी। ये जिधर भी निकले, इठलाती-बलखाती, भाव खाती ..नौकरी इतना भाव खाती है की एक बार मिल जाने...
एक राष्ट्र, एक चुनाव- बेरोज़गारी के बढ़ते भाव
व्यंग्य

एक राष्ट्र, एक चुनाव- बेरोज़गारी के बढ़ते भाव

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** देश में "वन नेशन, वन इलेक्शन" का पुछल्ला बड़े जोर-शोर से उछाला जा रहा है। जाहिर है, जब सभी अपनी राय उंडेल रहे हैं, तो भला मैं क्यों चुप रहूँ? राय देने में रत्ती भर भी गुरेज नहीं है अपुन को… कोई माने या न माने। मुझे तो देश के युवाओं की रोज़ी-रोटी पर लात मारने जैसा लग रहा है यह! ज़रा उन लोगों की सोचो जो चुनावों के चूल्हे पर ही अपनी दो जून की रोटी सेंकते हैं । उनकी तो रोज़ी-रोटी ही छिन जाएगी साहब! वैसे ही देश में रोज़गारों की भट्टी बुझ चुकी है… थोड़ा-बहुत रोज़गार इस चुनावी सीज़न में मिल भी जाता है… सरकार उस पर भी छीना-झपटी करना चाहती है! देखो न, नज़र उठाकर… भारत के नक्शे पर उंगली फेरो ज़रा… कहीं न कहीं कोई न कोई राज्य पर लटकी हुई हैं चुनावी झालरें… चुनावी सावों का दौर- जुलूस, जलसा, जुगाड़…...
बस दो शब्द
व्यंग्य

बस दो शब्द

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** कहते हैं, शब्दों का प्रयोग सोच-समझकर करना चाहिए। शब्द वो हथियार हैं जो घाव भी करते हैं और मलहम भी लगाते हैं। इन्हें ब्रह्मस्वरूप माना गया है। शायद इसी कारण "दो शब्द" का कॉन्सेप्ट जन्मा। मंचों पर अक्सर देखा जाता है कि वक्ता से "दो शब्द"कहने का अनुरोध किया जाता है। मगर "दो शब्द" की सच्चाई इससे कहीं आगे है। दो शब्द आपको सही कहने में जायें तो आपको कोई भी भाषाधिकारी, वादव्य, वाकपति, वाक्य विशारद वागीश, शब्देश्वर, ब्राह्मणोत्तम, शब्द शिल्पकार, वाक नायक, वागीश्वर, वाग्मी, वाग्विलासी, वाचस्पति, वादेंद्र, वाद वित्त, विदग्ध, साहबे जबा, सुवक्ता, सुवग्नी कहलाने से नहीं रोक सकताl शब्द बड़े हिसाब से खर्च करने चाहिए, इसलिए मौन को मूर्खों का आभूषण बताया गया है। क्योंकि मूर्ख अगर मौन ही रहें तो ठीक है, ...
मकान मालिक की व्यथा
व्यंग्य

मकान मालिक की व्यथा

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** सच पूछें तो आज के ज़माने में सबसे कठिन काम है मकान मालिक बनना। शादी में ३६ गुण नहीं मिलें तो चल जाता है, पर मकान मालिक और किरायेदार के बीच तो हमेशा ३६ का आंकड़ा रहता है। कहते हैं ना कि आपके किए का फल इसी जन्म में मिलता है। इसी कारण "क्योंकि सास भी कभी बहू थी" की तर्ज़ पर जो आज मकान मालिक है, वो कभी किरायेदार भी रहा होगा। जिस प्रकार आपने किरायेदार रहते हुए अपने मकान मालिक की नाक में दम कर दिया था, उसी का बदला भगवान आपको इसी जन्म में मकान मालिक बनाकर लेता है। पता नहीं कब हमारे भाग्य में शुक्र ग्रह अतिक्रमण करके मेष राशि की कुंडली में बैठ गया कि हमें एक विला बनाने का शौक चढ़ा। इस शौक को चढ़ाने में कुछ मेरे यार भी थे, जो “चढ़ जा बेटा सूली पे, तेरा भला करेंगे राम” की तर्ज़ पर पूरा योगदान दे र...
पहली बारिश मेरे शहर की
व्यंग्य

पहली बारिश मेरे शहर की

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** रविवार, शाम का वक्त थोड़ा सा सुकून भरा होता है, क्योंकि मेरे रेलवे अस्पताल की ड्यूटी से राहत रहती है। इसलिए दिन के नैपिंग टाइम को थोड़ा ज़्यादा खींच लेता हूँ। सोकर उठा तो पाँच बज गए थे। हड़बड़ाकर नीचे फ़ोन किया कि क्या हुआ, आज ओपीडी से बुलावा नहीं आया? स्टाफ बोला- “सर, बाहर बारिश हो रही है।” बारिश! मुझे पता ही नहीं चला। शहर में पहली बारिश और हम यहाँ कमरे में पड़े कृत्रिम एसी की हवा में बरसात के विलक्षण आनंद से वंचित। ये बारिश भी न! सबसे ज़्यादा ख़ुशी अगर किसानों को देती है तो उसके बाद मेरे स्टाफ को। क्योंकि बारिश है तो मरीज़ कोई आएँगे नहीं, और बिना कुछ एक्स्ट्रा प्रयास के ही उनकी ढींगामस्ती में चार चाँद लग जाएँगे। शहर के मकान कुछ इस तरह से बन गए हैं कि पहली बारिश कब हो जाए, कब चली जाए,...
बधाई हो! आपको किताब हुई है …
व्यंग्य

बधाई हो! आपको किताब हुई है …

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** अभी तक तो बस हम बधाई ही देते आए थे, किसी लेखक के पुस्तक होने की बधाई! जी, बढ़िया बात तो है ही, जनाब... लेखक का "गर्भाधान" तब होता है, जब विचारों का मिलन स्याही से होता है। "गर्भस्थ शिशु" की तरह रचना पलती है- कभी उबकाई (लेखक का असंतोष), कभी मूड स्विंग (संशोधन), और कभी पौष्टिक खुराक (प्रेरणा) मिलती है। संपादक स्त्री रोग विशेषज्ञ बनकर जांचता है, प्रकाशक अल्ट्रासाउंड करता है-"किताब स्वस्थ है या सी-सेक्शन लगेगा?" प्रकाशन के दिन प्रसव पीड़ा चरम पर होती है, और किताब कागज़ पर जन्म लेती है। समीक्षकों की गोदभराई में तारीफ और आलोचना के टीके मिलते हैं। फिर वह पाठकों के संसार में किलकारी भरती है- कुछ इसे पालते हैं, कुछ अनाथालय में छोड़ देते हैं! लेकिन अब हम भी बधाई के पात्र बन गए जी... अरे, हमारी भी...
नाई चाचा की दुकान
व्यंग्य

नाई चाचा की दुकान

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** ओपीडी में बैठा, प्लास्टर रूम से एक अधेड़ उम्र की महिला की चीख सुन रहा था। दरअसल उसका प्लास्टर काटा जा रहा था। प्लास्टर कटाई मशीन की धरधाराती आवाज़ और महिला की चीख, दोनों ने माहौल को बेहद डरावना बना रखा था। मैं सोच रहा था कि क्या मेरे जीवन में इससे भी बुरा और डरावना दृश्य हो सकता है। तभी मुझे याद आया कि हां, बिल्कुल है, और शायद उससे भी ज्यादा डरावना अनुभव था बचपन में नाई चाचा के सैलून में हेयर कटिंग का। किसी रामसे ब्रदर्स की डरावनी फिल्म की स्क्रीनिंग से भी डरावना वह दृश्य होता, जब हम लगभग घिसटते हुए पिताजी के हाथों नाई चाचा की दुकान तक पहुंचाए जाते। नाई चाचा की दुकान गाँव के हिसाब से सबसे आकर्षक, रहस्यमयी, डरावनी और रोमांच भरी होती थी। दुकान में एक पुरानी, टूटी-फूटी मेज थी, जिसकी एक टूट...
हड्डियों की चीख़…
व्यंग्य

हड्डियों की चीख़…

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** “कृपया कमजोर दिल वाले इस रचना को नहीं पढ़ें“ अपने प्रतिष्ठान में, अपनी कुर्सी में गहराई से धँसा, कुछ मरीज़ों की हड्डियों और पसलियों को एक साथ मिला रहा था, तभी पास के प्लास्टर कक्ष से, जहाँ एक अधेड़ उम्र की महिला थी, उसके चिल्लाने की आवाज़ आई। साथ ही, प्लास्टर काटने के लिए इस्तेमाल की जा रही कटर मशीन की गड़गड़ाहट सुनाई दी, मानो कोई मशीनगन चल रही हो। यह प्लास्टर काटने का खौफनाक मंज़र किसी रामसे ब्रदर्स की हॉरर फ़िल्म से भी ज़्यादा डरावना। यूँ तो प्लास्टर काटने का समय मैं ओ.पी.डी. के बाद का रखता हूँ, इसका एक विशेष प्रयोजन है... मुझे आवाज़ के शोरगुल में बच्चों को पेरेंट्स की गोद में दुबकते सिसकते देखना अच्छा नहीं लगता। कई मरीज़, जिनका प्लास्टर लगना होता है, अपना इरादा बदल देते हैं। बोलते हैं- ...
पिया घर आया
व्यंग्य

पिया घर आया

सुधा गोयल बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश) ********************  हां जी यह सही है कि पिया यानि मेरे पतिदेव पैंतालीस साल आफिस में एक कुर्सी पर बैठ कर थक चुके और बिना कुर्सी के घर आए हैं बलैयां लूं या पूजा का थाल लेकर आरती उतारुं,गल हार पहनाऊं और कहूं -"पधारो सा"।उम्र के इस पड़ाव को चूम लूं। अब हम दोनों गलबहियां डालकर रहेंगे। तुम रिटायर हो ही गये हो में भी बहू पर घर परिवार छोड़ कर रिटायर हो जाती हूं। अभी इतना सोच ही पाई थी कि बहू रानी की भृकुटी देखकर चौंक पड़ी- "सासू मां, अब आप रिटायर होने की मत सोचना। दो-दो रिटायरियों को कैसे झेल पाऊंगी?" मैंने घूम कर देखा-सुना बहू के चेहरे पर चिंता की लकीरें थीं। पर क्यों- ? यह मैं समझ नहीं पा रही थी। अगले दिन से घर में रिटायरमेंट का कार्यक्रम शुरू होने वाला था। अथ कथा रिटायरमेंट सुनाकर अपना जी कुछ हल्का कर लेती हूं। दस बज गए हैं पर पतिदेव के पांव बिस्तर से न...
चूहों का आतंक
व्यंग्य

चूहों का आतंक

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** सरकारी दफ़्तर-सा था... नहीं-नहीं, सरकारी दफ़्तर ही था... अब आप कहेंगे, कौन-सा दफ़्तर? भई, मुझे तो सब दफ़्तर एक जैसे ही नज़र आते हैं। दफ़्तरों की शक्ल एक जैसी, वहाँ कुर्सी पर बैठे अधिकारियों की शक्ल बिल्कुल एक जैसी... जैसे माँ-जाए भाई या बहन हों। सरकारी नाम आते ही एक चिर-परिचित छवि आपके मन में बन ही गई होगी... बननी ही चाहिए... क्योंकि मेरी तरह आप सभी का भी नित-प्रतिदिन इन सरकारी दफ़्तरों से पाला पड़ता ही है। बस ऐसे ही किसी दफ़्तर के बरामदे में पड़ी टूटी बेंच पर मैं पड़ा हुआ हूँ। क्योंकि मुझे बुलाया नहीं गया था, अपनी मनमर्ज़ी से मुँह उठाए यहाँ चला आता हूँ, इसलिए घर के बाहर गली के कुत्ते की तरह मालिक की रहमो-करम की नज़रों की इनायत हो जाए, बस यही इंतज़ार कर रहा हूँ। एक लफ़ड़ा हो गया... न ज...
किसी न किसी का आदमी
व्यंग्य

किसी न किसी का आदमी

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** आजकल किसी का आदमी होना कितना जरूरी हो गया है! अगर आप किसी के आदमी नहीं हैं, तो आप आदमी कहलाने लायक ही नहीं हैं। यह पक्का मान लीजिए- आप दो पाये जानवर हो सकते हैं, पर आदमी नहीं। जहाँ देखो, वहाँ कोई न कोई किसी न किसी का आदमी ही नजर आ रहा है । नौकरी, प्रमोशन, जॉब, डिग्री, राशन, वजीफा, पुरस्कार- सब उसी को मिल रहे हैं जो किसी न किसी का आदमी है। मेरी ओपीडी में भी हर दूसरा मरीज किसी न किसी का आदमी होता है। मरीज आते भी यह देखने के लिए हैं कि डॉक्टर साहब भाव देते हैं या नहीं। सलाह तो डॉक्टर साहब देंगे ही, लेकिन भाव भी देंगे या नहीं, मसलन चाय भी तो पिलाएँगे, नहीं तो तो जिनके आदमी हैं, उनका फोन आ जाएगा- 'अरे, हमने अपना आदमी भेजा था! बताओ, आपने ध्यान ही नहीं रखा। मरीज मरा जा रहा था, और आपने उसे बाहर ...
झूठ बोले कौआ काटे
व्यंग्य

झूठ बोले कौआ काटे

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** वो झूठ बहुत बोलते हैं… नहीं, मेरा मतलब है, झूठ ही बोलते हैं। अरे, कभी-कभार मुँह से सच निकल भी जाए तो बड़ा पछताते हैं। क्या करें, उनकी आदत जो है। झूठ उनके रग-रग में बसा हुआ है। ऐसा नहीं कि झूठ वो किसी विशेष उद्देश्य से बोलते हों। वो बिना किसी का अहित किए -और कभी-कभी तो खुद का अहित कर-किसी भी परिस्थिति में झूठ बोल सकते हैं। और अगर उनके झूठ से किसी का नुकसान हो भी जाए, तो बड़ा पछताते हैं, माफ़ी माँगते हैं अपने व्यवहार पर। लेकिन उनकी मासूमियत भरी शक्ल देखकर हर कोई पिघल जाता है। उन्हें झूठ के लिए माफ़ी मिल जाती है। फिर तो उनके झूठ की ट्रेन रिश्तों की पटरी पर सरपट दौड़ने लगती है। निरुद्देश्य, निर्बाध और निष्कलुष भाव से धारा-प्रवाह झूठ बोलते हुए उनकी भाव-भंगिमा निहायत ही शरीफ़, मासूम बालक की तर...