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गद्य

महान कौन?
लघुकथा

महान कौन?

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** दोनों हाथों में कत्थाई रंग की तलवारनुमा आकृति वाली दो सूखी बड़ी फल्लियाँ लिये ग्यारह वर्षीय साकेत मित्र सहित शाम ढले घर आया अतिउत्साह में! "मम्मा! देखो मैं क्या लाया?" मां- "अरे सक्कू! बेटा क्या लाये ये? गुलमोहर की सूखी फल्ली?" (आश्चर्य पूर्वक) साकेत- "नहीं मम्मा ये तो तलवारें हैं, तलवारें, दो मेरी दो मेरे दोस्त शिवु की।" मां- "पर तुम ये क्यों लाये?" साकेत- "महान बनने।" मां- "महान बनने!" (अत्यंत विस्मय से) विभु- "हां आंटी जी, महान बनने, अब हम दोनों मुकाबला करेंगे फिर, जो जीता वो बाकियों से लडे़गा ऐंसे ही तो महान बनते हैं ना?" मां- "तुमदोनों से किसने कहा ऐंसे कामों से कोई महान बनता है?" (क्रोधपूर्वक) साकेत- "वैभव एक साथ-आपने! और हमारी इतिहास विषय की शिक्षिका जी ने।" (सहज भाव से) मां- "क्या; मैने कब कहा? और शिक्षिका से अभी पूंछती हूँ।" सा...
लोक देवता : टंट्या भील
संस्मरण

लोक देवता : टंट्या भील

धीरेन्द्र कुमार जोशी कोदरिया, महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** किसी दबे, कुचले, शोषित, वंचित समाज से जब कोई निहित स्वार्थ को त्याग सर्व हितों के लिए उठ खड़ा होता है तो वह जननायक और कभी-कभी लोक देवता का रूप ले लेता है। टंट्या भील भी मालवा निमाड़ के ऐसे ही नायक थे जो गरीबों के मसीहा बन कर आज भी लोक देवता बन पूजे जाते हैं। टंट्या भील का जन्म सन १८४२ में खंडवा के आदिवासी अंचल में भाऊ सिंह भील के घर हुआ था बचपन से ही उनका शरीर दुबला पतला एवं कद लंबा होने से उन्हें टंट्या कहा जाने लगा। टंट्या भील का बचपन बहुत ही संघर्षपूर्ण गुजरा। उनकी मां उनके बचपन में ही गुजर गई थी। उनके पिता ने शादी नहीं की। उन्हें शस्त्र कला में निपुण बनाया। वे लाठी गोफन और तीर कमान का संचालन कुशलता से करते थे। वे अपने क्षेत्र में सब के दुलारे एवं युवाओं के नायक बनकर उभरे। पिता की खेती संभाली चार साल तक सू...
सहारा
लघुकथा

सहारा

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ******************** माँ, आज पंचतन्त्र में विलीन हो गई थी। वह एक नई यात्रा पर निकल चुकी थी। उस यात्रा पर हर व्यक्ति अकेले ही तो जाता हैं। माँ भी चली गई थी। हमारा सम्बन्ध तो इस लोक तक ही रहता हैं। जब माँ थी, तो मैं हर छोटो-बड़ी बात के लिए उनके पास बैठ जाता था। उनका स्नेह भरा स्पर्श मेरी हर समस्या का हल तुरन्त कर देता था। उनका स्पर्श किसी आशीर्वाद से कम नहीं था मेरे लिए। पर अब मेरा क्या होगा, सोचने मात्र से ही मेरे पूरे शरीर में सिरहन सी दौड़ पड़ती है? मैं निराशा के समुन्द्र में गोते खानें लग जाता हूँ। माँ के आशीर्वाद से मेरे पास सबकुछ है। अच्छा कारोबार, बंगला, बैंक-बैलेंस और नौकर-चक्कर। पर माँ का सहारा नहीं हैं। जब भी मुझें अपने कारोबार में किसी तरह की दिक्कत आती थी। तब माँ का सकारात्मक रवैया मुझमें नई ऊर्जा भर देता था। बस एक ही शिक्षा देती थी। बेटा कभी किसी ...
आत्मविश्वास
कहानी

आत्मविश्वास

मंजिरी पुणताम्बेकर बडौदा (गुजरात) ********************   तीस साल का अशोक एक सीनियर प्रबंधक, बहुराष्ट्रीय कम्पनी के स्वागत कक्ष में बैठा था।अशोक थोड़ा आतुर था, थोड़ा घबराया हुआ क्यूंकि आज उसके जीवनकाल और उसके कम्पनी की सबसे बड़ा समझौते पर हस्ताक्षर होने जा रहे थे। तभी रिसेप्शनिस्ट ने आकर उसे बताया कि सर बुला रहे हैं और आपको प्रेज़ेंटेशन के लिये सिर्फ बीस मिनट का समय है। अंदर जाकर जैसे ही अशोक ने प्रेजेंटेशन देना शुरू किया वो बीस मिनट कब जाकर चार घंटे हो गये पता ही नहीं लगा। उसके प्रेजेंटेशन से कम्पनी का मालिक बहोत खुश हुआ और डील साइन हुई। साइन करते-करते मालिक ने कहा- यंग मेन मैं तुमसे बहोत इम्प्रेस हुआ हूँ। जब से अशोक आया तब से उसकी नजर वहाँ रखी लूज तम्बाकू और लूज कागज से जो हेंडरोल सिगरेट बनाते हैं वो उनकी मेज पर रखी थी। तभी मालिक ने अशोक से पूछा कि क्या तुम इसे लोगे? अशोक ने हामी भरते हुए ए...
बिंदी
लघुकथा

बिंदी

डॉ. पायल त्रिवेदी अहमदाबाद (गुजरात) ******************** "माँ, हम बिंदी क्यों लगाते हैं?" जब पांच साल की छोटी बिंदी ने माँ से यह सवाल किया तो माँ ने उसे हंसकर टाल दिया, तुम अभी छोटी हो, यह बात नहीं समझ पाओगीपर बिंदी जब ज़िद पर उतर आयी तो माँ ने इतना कहकर उसे समझा दिया, बिंदी हम सुहागिनों की निशानी है। सभी औरतें इसे लगाती है और इसे अच्छा शगुन भी माना जाता है इस वजह से सभी लड़कियों के लिए भी बिंदी बहुत ही शुभ मानी जाती है। तभी तो माता रानी को भी यह लगायी जाती है। बिंदी तुरंत उठकर अपनी काकी के पास चली गयी, काकी, तुम क्यों नहीं लगाती बिंदी जब यह तो शुभ मानी जाती है? बिंदी के मुँह से यह प्रश्न सुनकर दादी तुनककर बोली, अचला, इसे समझाओ की बड़ों की सभी बातों में इसे नहीं पड़ना चाहिए। जी माजी कहकर अचला ने बिंदी को अपने पास बुला लिया, बिंदी चलो, तुम अपनी गुड़ियाकी शादी में मुझे नहीं बुलाओगी? तब बिंदी समझ ...
मख्खनबाजी और बेईमानी आवश्यक है भाई!
व्यंग्य

मख्खनबाजी और बेईमानी आवश्यक है भाई!

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ******************** जी हाँ ! बिलकुल सही पढ़ा है आपने! खुद के द्वारा किए गए एक शोध से यह कहने में मुझे कोई गुरेज नही कि यह दुनिया सिर्फ और सिर्फ मख्खनबाजी और बेईमानी की बुनियाद पर टिकी हुई है! दुनिया में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति में मख्खनबाजी और बेईमानी का गुण विद्यमान है चाहे वह नर हो या नारी! मैं तो यह बात भी दावे के साथ कह रहा हूँ कि यदि मख्खनबाजी और बेईमानी का रास्ता छोड़ दिया जाए तो दुनिया जैसी चल रही है वैसे चल ही नहीं पाएगी! मख्खनबाजी और बेईमानी की राह छोड़ देने से सब तहस-नहस हो जाएगा! रिश्ते नाते खत्म हो जाएंगे! मख्खनबाजी और बेईमानी छोड़ देने से आपसी प्रेम और भाईचारा खत्म हो जाएगा! आपने कभी सोचा है कि एक औरत अपने पति के बारे में जो सोचती है वह कह ही नहीं सकती या एक पति अपने पत्नी के बारे में जो सोचता है वह कहता ही नहीं जीवन पर्यन्त क्यों ? क...
प्रदूषण मुक्त सांसें : पर्यावरण की महत्ता बताती जरूरी किताब
पुस्तक समीक्षा

प्रदूषण मुक्त सांसें : पर्यावरण की महत्ता बताती जरूरी किताब

योगेश कुमार गोयल नजफगढ़ (नई दिल्ली) ******************** पुस्तक : प्रदूषण मुक्त सांसें लेखक : योगेश कुमार गोयल पृष्ठ संख्या : १९० प्रकाशक : मीडिया केयर नेटवर्क, ११४, गली नं. ६, एमडी मार्ग, नजफगढ़, नई दिल्ली-११००४३ मूल्य : २६० रुपये समीक्षक : लोकमित्र हाल के सालों में यह पहला ऐसा मौका है, जब पिछले कुछ महीनों में दुनिया के बिगड़ते पर्यावरण और प्रदूषण की किसी गहराती समस्या ने हमारा ध्यान नहीं खींचा। शायद इसकी वजह यह है कि दुनिया पिछले कुछ महीनों से कोरोना संक्रमण के चक्रव्यूह में फंसी हुई है, नहीं तो कोई ऐसा महीना नहीं गुजरता, जब बिगड़ते पर्यावरण की बेहद चिंताजनक और ध्यान खींचने वाली कोई खबर दुनिया के किसी कोने से न आती हो। वास्तव में २१वीं सदी की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी या आतंकवाद नहीं है। इनसे भी बड़ी समस्या हर तरह का बढ़ता प्रदूषण है, जिसके कारण धरती पर लगातार विनाश का खतरा मंडरा रहा...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ३०
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ३०

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दिन कैसे जल्दी जल्दी गुजरते रहते हैं इसका हम अंदाज भी नहीं लगा सकते। मैं फिर से जनकगंज में सरकारी प्राथमिक विद्यालय में जाने लगा था। मेरी तीसरी कक्षा की परीक्षाएं ख़त्म हो गयी थी और विशेष यह था कि इतना भटकने के बाद भी मैं प्रथम श्रेणी में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हुआ था। काकी ने तो पूरे बाड़े में ही पेढ़े बांटे थे। नानाजी ने भी दादा को चिट्ठी लिखकर मेरे पास होने की खबर कर दी थी। दादा का भी नानाजी को जवाब आ गया था जिसके अनुसार हमें ये भी पता पड़ा कि माँजी और सुशीला बाई सिवनी में थी। सुशीलाबाई ने भी अपना त्यागपत्र भेज दिया था पर उस पर फैसला जुलाई महीने में स्कूल खुलने के बाद ही होने वाला था। दादा का जरूर भोपाल तबादले का आदेश अभी तक उन्हें नहीं मिला था। कुल मिलाकर इन सब अनिश्चतितताओं के कारण दादा के विवाह की तिथि अभी तय नहीं हो सकी थी। मेरे स्कू...
सच्चे मित्र
संस्मरण

सच्चे मित्र

डॉ. सर्वेश व्यास इंदौर मध्य प्रदेश ********************                                      जिंदगी की उपादोह में व्यक्ति ने अपने आपको इतना उलझा लिया है कि कभी पीछे मुड़कर देखने का मौका ही नहीं मिलता। आजकल व्यक्ति के चिंतन का मुख्य बिंदु है, भविष्य में क्या करना है? कैसे करना है? इस भागा दौड़ी में वह अपने आप को ना जाने कहां छोड़ आया है? जिसे खोजने के लिए उसे समय चाहिए, जो शायद आज उसके पास नहीं है। इसी भागा-दौडी़ और उपादोह बीच अचानक कोरोना आया, लाक डाउन हुआ, गाँव रुक गया, शहर रुक गया, देश रुक गया, विदेश रुक गया और सबसे बड़ी बात मनुष्य रुक गया, हाँ-हाँ मनुष्य रुक गया। जहां यह कोरोना बहुत सारी समस्याएं लेकर आया, वही यह एक अवसर लेकर आया-खोजने का। किसको? अपने आप को और अपनों को। यह अवसर लाया उस यात्रा पर पीछे जाने का, जिस यात्रा के किसी मोड़ पर हम अपने आपको और अपनों को पीछे छोड़ आए थे। मैंने स...
रेशम के धागे
लघुकथा

रेशम के धागे

सुभाषिनी जोशी 'सुलभ' इन्दौर (मध्यप्रदेश) ******************** वरुण की एक ही बहन है रीमा। उसके विवाह को पांच वर्ष हो गये। ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह रक्षाबंधन पर नहीं आई परन्तु इस वर्ष का रक्षाबंधन कोरोना काल में आया। वरुण का मन यह माननें को तैयार नहीं था कि इस वर्ष उसकी कलाई पर बहना की राखी नहीं सजेगी। रीमा भी बहुत लालायित थी मायके जाने को पर दोनों ने अपनी भावनाओं के प्रवाह को काबू में करके तय किया कि हम कोरोना काल में स्वास्थ्य मंत्रालय के नियमों का पालन करेंगे और सामाजिक दूरी बनाए रखेंगे। यही सोंचकर रीमा बाजार भी नहीं गई और घर में रखे कुछ रेशम के धागे एक लिफाफे में रखे, साथ में एक चिट्ठी में लिख दिया भाई इन धागों को मेरी राखी समझ अपनी बिटिया चीनू से बंधवा लेना। रीमा ने नम आँखों से वह लिफाफा पोस्ट कर दिया। परिचय :- सुभाषिनी जोशी 'सुलभ' जन्म तिथि : ०३/०४/१९६४ शिक्षा : बी. एस. सी; एम.ए.(अ...
खाली स्थान
लघुकथा

खाली स्थान

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ******************** गंगा की याद आते ही मन पूरी तरह उचट जाता था। सभी कुछ था मेरे पास। आज तक मैं जीवन में दौड़ ही रहा था। कभी डिग्री पाने के लिए, कभी नौकरी पाने के लिए। मैं तो अपने घर में ही खुश था। अपने गाँव में, अपने खेतों में, बाप-दादा की तरह। मैं भी खेती करना चाहता था। मुझें बचपन से ही खेत-खलिहान अपनी तरफ खीचते थे, लहलहाती फसलें, माटी की भीनी-भीनी सुगंध। ऐसा सादा जीवन ही मुझें पसन्द था। पर उसकी जिद के आगे मै नतमस्तक हो गया था। वही चाहती थी कि मै पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बनू। जब भी पीछे मुड़कर उसका बलिदान देखता हूँ, परेशान हो उठता हूँ। हमेशा मेरे पीछे लगी रहती थीं। जब भी मै विदेश जाने की बात पर टाल मटोल करता। उसका प्यार भरा स्पर्श, अपनेपन का अहसास मुझें अन्दर तक सहला जाता। उसके इस प्यार भरे अहसास ने ही मुझें विदेश जाकर डॉक्टरी करने को मजबूर कर दिया था। उसी का प...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २९
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २९

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** बसंतपंचमी के आठ दिन पहले ही हम सब ग्वालियर के छत्रीबाजार के मकान में पहुँच गए। वहां पर हमें छोड़ने के बाद माँजी और सुशीलाबाई को दादा बेबी की माँ के यहाँ मतलब सुशीलाबाई की मौसी के यहाँ छोड़ने गए। वैसे छत्रीबाजार वाले पुश्तैनी मकान में रहने का मेरा यह पहला ही अवसर था। रिश्ते जन्म से और पुराने ही थे पर पहचान नए सिरे से थी। जिन रघुभैया नहीं नहीं वे मेरे ताऊ है और मुझे उन्हे आदर के साथ ताऊजी ही कहना चाहिए तो जिन ताउजी के बारे में दादा माँजी और सुशीलाबाई को बुरहानपुर और पथरिया में बता चुके थे और जिन ताऊजी से दादा अपने ब्याह के बारे में बात करने वाले थे उन ताउजी को मैंने तो पहली ही बार देखा। इसी के साथ उनकी पत्नी राजाबाई मतलब मेरी ताईजी और सबसे बड़ी एक विधवा ताईजी भी जो यही रहती थी उनसे भी मिलना हुआ। ताऊजी के बच्चों समेत पूरा परिवार हमारे उपनयन संस...
प्रवास
कहानी

प्रवास

मंजिरी पुणताम्बेकर बडौदा (गुजरात) ********************   शाम के करीब छः साढ़े छः का समय था। बाहर अरब सागर पर सूर्य ढल रहा था। जिसकी लालिमा अरब सागर पर अपनी छाप छोड़ रही थी। मैं अपने चौदहवी माले वाले नरीमन पॉइंट पर स्थित कार्यालय से सागर की उठती लहरों को देखकर सोच रहा था कि जिंदगी भी कितनी अजीब है। मैं आज ही के दिन करीब तीस साल पहले यहाँ आया था तब क्या था और आज क्या हूँ। इतने में टेलीफ़ोन की घंटी बजी। उठाया तो घर से फ़ोन था। पत्नी ने बाबूजी की पिच्यास्वी सालगिरह की पार्टी हेतु टिकिट बुक कराने का याद दिलाया था। मेरे दिमाग के ख्याल समुद की लहरों की भांति बिखर गये। घर जाने की तैयारी मैं मैने अपने टेबल पर बिखरे काम पूरे किये और अजीज को गाडी निकालने को कहाl इतने सालों के बाद गाँव जाने के ख्यालों में कब घर पहुँचा मालूम ही ना पड़ा। घर में गुस्ते ही मैने कहा आप सबको सरप्राइज है। हम सब इस बार अपनी नई ...
मास्टर जी की धोती
लघुकथा

मास्टर जी की धोती

गीता कौशिक “रतन” नार्थ करोलाइना (अमरीका) ******************** माँ रोज़ सुबह सवेरे ही रतन को नहला-धुला कर तैयार करके बिठा देती। एक स्टील की डिबिया में चूरमा भरकर ओर साथ में घी में डूबी दो रोटी भी बाँधकर बस्ते में रख देती। साथ ही रतन के गले में बस्ता लटका कर स्कूल के लिए चलता कर देतीं। बार-त्योहार के अलावा कभी-कभार माँ जब ज़्यादा प्यार दिखातीं तो छींकें पर लटके कटोरीदान में से इक्कनी निकाल कर रतन के हाथ में रख देती। कहती “ बेटा, भूखा मत रहना, बाग से अमरूद लेकर खा लेना”। गाँव से ही, रतन के दो और साथी उसी की कक्षा में पढ़ते थे। तीनों मिलकर स्कूल भी साथ आया-ज़ाया करते। राह में धूलियाँ उड़ाते दो कोस का स्कूल का रास्ता झट से पार हो जाता। कभी-कभी रास्ते में ये तीनों साथी ज़ोर ज़ोर से पहाड़े गा-गाकर याद करते जाते। इस बार छुट्टियों में मॉं के साथ जब रतन नाना-नानी के घर गया, तो नानाजी ने अ...
शक का इलाज
लघुकथा

शक का इलाज

सुभाषिनी जोशी 'सुलभ' इन्दौर (मध्यप्रदेश) ******************** नीरू अपनी स्कूटी पेप से जा रही थी। नीरू गाड़ी धीमे ही चलाती है। अचानक एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति उसके साथ चलने लगे। उनके पास भी स्कूटी पेप थी। वो व्यक्ति झुककर मेरी स्कूटी में नीचे की ओर देखने लगे। वहाँ मेरा पर्स रखा था पैरों के बीच। मेरे पर्स में मेरा मंगलसूत्र रखा था जो आफिस से लौटते वक्त सुधरवाना था। मैं कुछ बुरा सोंचती उसके पहले ही बो बोल पड़े बेटा रिजर्व में पेट्रोल की नाब किधर होती है? मैंने मुस्कुरा कर उन्हें रिजर्व में पेट्रोल की नाब की स्थिति समझाई। वे व्यक्ति आगे बढ़ गये और मैं सोचने लगी की शक का कोई इलाज नहीं होता। परिचय :- सुभाषिनी जोशी 'सुलभ' जन्म तिथि : ०३/०४/१९६४ शिक्षा : बी. एस. सी; एम.ए.(अँग्रेजी साहित्य), बी. एड. सम्प्रति : शास. शाला में शिक्षिका ! साहित्यिक गतिविधि : गद्य एवं पद्म लेखन, विभिन्न पत्र-पत्रि...
जीवंत गाँव : आत्मनिर्भर भारत, सशक्त भारत
आलेख

जीवंत गाँव : आत्मनिर्भर भारत, सशक्त भारत

डॉ. ओम प्रकाश चौधरी वाराणसी, काशी ************************                             आजकल 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' का नारा बुलंदियों पर है, हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री श्रद्धेय मोदी जी का नया संकल्प आत्मनिर्भर भारत का है। यह नया संप्रत्यय या संकल्पना नहीं है अपितु अत्यंत पुरानी है। राष्ट्रपिता बापू तो स्वराज की कल्पना ही आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान, आत्मगौरव और राष्ट्र बोध के रूप में ही करते थे। पहले हमारे गाँव आत्मनिर्भर थे। आपसी भाई-चारा, सद्व्यवहार, शालीनता, संस्कार वहाँ के जन जीवन में रचा बसा था। लेकिन, विकास, आधुनिकता, नगरीकरण, वैश्वीकरण, वर्चस्व और सत्ता की भूख ने सब निगल लिया। गाँवों की क्या गजब जीवन शैली थी, पुजारी और पशुच्छेदन करने वाले चमकटिया, सबकी अपनी-अपनी इज्जत थी, सम्मान था। कोई किसी भी जाति का हो, सबसे कोई न कोई रिश्ता था- बाबा, काका-काकी, भाई-भौजी, बूढ़ी माई, बुआ, बह...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २८
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २८

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** अगले रविवार बड़ी प्रसन्नता से मैं गणपत के साथ हाट में ग्रामपंचायत का कर वसूलने गया। इस बार सब विक्रेता मुझे जानते थे और छोटा होने के कारण सब मेरे साथ हंसी मजाक भी करने लगे। संयोग रहा कि इस बार भी मेरे द्वारा ही सबसे ज्यादा कर वसूला गया था। शाम को हम सब घर वापस लौटे। पिछला अनुभव होने के कारण इस बार हिसाब किताब जल्द ही निपट गया था। गणपत ने उसके दो मित्रों को उनका मेहनताना देकर रवाना किया फिर मुझे भी एक रूपया दिया। अब मेरे पास तीन रुपये जमा हो गए थे। हम सब जब घर वापस आए थे उस वक्त माँजी, सुशीलाबाई और सुरेश गाव में ही किसी के यहां किसी कार्यक्रम में गए थे। घर में बेबी और उनका दो वर्ष का बेटा ही थे। गणपत ने बेबी को सारे रुपये सम्हाल कर रखने को दिए। गणपत का दो वर्ष का बेटा सुदर्शन जिसे सब शुंडू नाम से पुकारते थे मेरे पास आकर बैठा। मैं उसके साथ ख...
जलदेवियाँ
लघुकथा

जलदेवियाँ

मंजिरी पुणताम्बेकर बडौदा (गुजरात) ********************  नारी उस वृक्ष की भाँति है जो विषम परिस्थिति में तटस्त रहते हुए परिवार के सदस्यों को छाया देती है। नारी अबला नहीं सबला है। पुरुष वर्ग शायद नहीं जानते कि नारी कोमलता एवं सहनशीलता के साथ यदि वह दृढ निश्चय करे तो वह कुछ भी सम्भव कर सकती है। इस बात के असंख्य उदाहरण हैं जिसमें से एक कहानी आपके सम्मुख प्रस्तुत है। गंगाबाई और रामकली ये दोनों आदिवासी खालवा विकास खंड लंगोटी की रहने वाली थीं। इस आदिवासी विकास खंड की पहचान सुदूर आदिवासी अंचल के नाम से थी क्यूंकि ये दुनिया से एक सदी पीछे था। इस विकास खंड के पंद्रह गाँव आज भी पहुँच विहीन हैं। पानी के अभाव से जीवन अत्यंत जटिल था। गंगाबाई और रामकली के साथ पार्वती, लछमी, ललिता, मीरा, चमेली, टोला और चम्पा ये सारी स्त्रियाँ हर रोज सुबह शाम तीन किलोमीटर तापती नदी पर जाकर झिरी खोद कर पानी भर कर लातीं थ...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २७
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २७

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दूसरा दिन एक नयी सुबह लेकर आया। गणपत कल रात घर आया ही नहीं था। बेबी ने दोनों गाय का दूध निकालने के बाद खुद ही राधा और यशोदा को खूंटे से आजाद किया। मैं भी जागने के बाद तख़्त पर बैठ गया था। बेबी ने मुझे देखा और बोली, 'बाळोबा, आज अकेले ही घूम के आओं और आने के बाद बाहर से ही आवाज लगाना। मैं आकर कुएं से दो बाल्टी पानी निकाल कर तुम्हारे सर पर उड़ेल दूंगी।' आज मुझे तालाब पर अकेले जाने में मुझे कोई संकोच ही नहीं था पर सुशीलाबाई के डर के कारण मैं जाने से पहले अपने नहाने की पूरी तैयारी कर के गया। पथरिया गाव मुझे भा गया था और अच्छा भी लगने लगा था। बुरहानपुर जैसा यहां दिन रात काम करने का माँजी का फरमान भी नहीं था। महत्वपूर्ण यह था कि माँजी और सुशीलाबाई की सेवा बेबी कर ही रही थी इसलिए माँजी को भी आराम सा था। मुझे तो दोनों समय खाना और सोना। बस यही काम था...
परिवार हो साथ तो कैंसर की क्या ओकात
संस्मरण

परिवार हो साथ तो कैंसर की क्या ओकात

सपना बरवाल कांटाफोड़ देवास (मध्य प्रदेश) ******************** मेरी ज़िंदगी मै सब कुछ ठीक था। और अचानक एक तूफान आया और सब कुछ बिखर गया। केंसर से लडने मै परिवार की जरूरत, रेखांकित करता एक आप बीता संस्मरण। ज़िन्दगी कितनी खूबसूरत ओर कीमती है, ये तब समझ आता है, जब आपकी ज़िन्दगी मै सब कुछ उलट-पुलट हो जाता है। यकीन मानिए डॉक्टर द्वारा कहे तीन शब्द "आपको केंसर हैं" आपकी ज़िन्दगी मै तूफान ले आते है। मुझे जब पता चला मुझे आखिरी अवस्था का कैंसर है, ऐसा प्रतीत हुआ जैसे अब सब कुछ ख़तम हो जाएगा। ओर बचपन से देखा हुआ सपना इस तूफान की आंधी मै बह जाएगा। कैंसर की परीक्षा की इस घड़ी मै मेरा परिवार मेरी ढाल बनकर खड़ा रहा। इलाज के लिए अस्पताल को चुनना, पेसो की व्यवस्था करना, मुझे हर हाल में सहारा देना। हर कदम पर मेरे मम्मी पापा मेरे साथ थे। मेरे भाई बहन ने मेरा भरपूर सहयोग किया। मेरे दोस्त, पड़ोसी, रिश्तेदारों न...
रिश्तो की डोर
लघुकथा

रिश्तो की डोर

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर म.प्र. ******************** मां के ना रहने के बाद रक्षाबंधन में पहली बार सुनीता ४ वर्ष के बेटे देवांश के साथ अपने मायके जा रही थी। अंदर ही अंदर एक अजीब सा डर और घबराहट हो रही थी, कि पता नहीं भैया और भाभी मेरे साथ कैसा व्यवहार करेंगे। मेरा वैसा सम्मान होगा भी या नहीं, जैसे मां के रहने पर होता था। इसी सोच में डूबी थी, कि स्टेशन आ गया। जैसे हीइधर उधर नजर दौड़ाई वैसे ही कुछ परिचित आवाज कानों में सुनाई दी।सुनीता लाओ सामान मुझे दे दो। जैसे ही आगे बढ़ी तो सामने भैया को देखकर अच्छा लगा। घर पहुंचते ही भाभी ने बहुत अच्छा व्यवहार किया। राखी के दिन सुनीता मां की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर खड़ी थी, तभी भैया ने आवाज लगाई और उस उसकी आंखों से अश्रु धारा बहने लगी। भैया ने दुलारते हुए कहा, बहना हमारे रहते हुए तुम अपने को अकेला मत समझना। उसने भैया को राखी बांधी। भैया, भाभी के ...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २६
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २६

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** मेरा और सुरेश का कुछ ज्यादा सामान तो था ही नहीं सुशीलाबाई का भी एक ही थैली थी वे किसी को भी उसे छूने नहीं देती। उनके थैली में एक तौलिया और एक बड़ा सा पीतल का लोटा रखा रहता। इसी लोटे का इस्तेमाल वे दिन भर करती। इस लोटे की किस्मत में दिन भर सुशीलाबाई के हाथों खुद को राख से जाने कितनी बार मंजवाना लिखा रहता यह कोई ज्योतिषी भी नहीं बता सकता था। माँजी जरूर ज्यादा सामान लायी थी। इनमे घरगृहस्थी का सामान, थोड़े मसाले अचार इत्यादि थे। और हां सुशीलाबाई के कपडे भी माँजी को ही सम्हालने पड़ते इसलिए वे भी माँजी के सामान के साथ ही थे। घर में हम लोगों के अंदर आंगन में आते ही बेबी नहीं मुझे उन्हें बेबी नाम से नहीं पुकारना चाहिए। मुझसे तो वें बहुत बड़ी है पर उनका तो मूल नाम ही बेबी है और सब इन्हे बेबी नाम से ही पुकारते भी है। हां तो मैं कह रहा था कि हम लोगों के...
गरमकोट
लघुकथा

गरमकोट

अर्चना मंडलोई इंदौर म.प्र. ******************** माँ ने दिवंगत पिता के गरम कोट को सहलाकर भारी मन से अलमारी बंद करते हुए पूछा- बेटा सब तैयारी हो गई क्या? सुलभा इंतजार कर रही होगी। हाँ माँ..उसने मामेरा मे देने के सामान पर एक नजर डालते हुए कहा..तभी फोन की घंटी बज उठी...सुलभा का फोन था....कब पहूँचोगे भैया...उधर से सुलभा व्यग्रता से कह रही थी!.... बस निकल ही रहे है.... चलो बेटा आज तुम्हें पिता और भाई की दोहरी जिम्मेदारी निभानी है....माँ की डबडबाई आँखे उससे छुपी न रह सकी। नए कोट को सुटकेस में तह कर रखते हुए...वह उठा और अलमारी से निकाल पिता का कोट पहन लिया। देखते ही माँ बोली..ये क्या? इतना पुराना कोट....शादी में ... हाँ माँ बहन को पापा की कमी महसूस न हो इसलिए मैने आज ये कोट पहन लिया है... शहनाईयाँ बज उठी थी....माँ भावविभोर थी। और आरती की थाली लिए बहन पिता के रूप मे भाई को देखकर फूली नही समा रही थी...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २५
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २५

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** यह सब बातचीत सुन कर मैं तो बहुत ज्यादा बेचैन हो गया। मुझे तो यहां रहना ही नहीं था और दादा मुझे यहां बुरहानपुर में सुशीलाबाई के चुंगल में रखने का निर्णय लेकर अलग हो चुके थे। क्या करना चाहिये यह समझ में ही नहीं आ रहा था। यहाँ से निकल कर ग्वालियर में नानाजी के पास कैसे पहुंचा जाय इसका कोई मार्ग दिखाई नहीं दे रहा था। माँजी और अण्णा दोनों रसोई में भोजन की तयारी कर रहे थे और दादा और सुशीलाबाई दोनों कमरें में थोड़ी देर बातचीत करते रहे। सबका भोजन निपटने के बाद दादा उज्जैन जाने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने मुझे और सुरेश को अपने पास बुलाया और बोले, ‘बाळ-सुरेश, मैं अब उज्जैन के लिए निकल रहां हूं। तुम दोनों यहां ठीक से रहना। ठीक से अपनी पढ़ाई करना। माँजी को और ताई को परेशान नहीं करना। वें जैसा कहें वैसा करना। दोनों का कहा मानना। रहोगे ना ठीक से?‘ दादा न...
प्रत्याशी
लघुकथा

प्रत्याशी

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** नामांकन का दिन पास आता जा रहा था, पर अभी तक कुकर बस्ती में यही तय नही था कि चुनाव कौन लड़ेगा। बहुत से युवा चुनाव लड़ना चाहते थे, पर एक नाम तय नहीं हो पा रहा था। तभी बस्ती के वयोवृद्ध कूकर श्रीमणि की नजर नेता जी के अलसेशियन कूकर पर पड़ी, एकदम तदुरूस्त, चमकीले बालों वाला, मस्तानी चाल से अपने नौकर के साथ टहलते दिखा। बस, उसके दिमाग में कुछ कौंधा और उसने चिल्ला कर कुत्तो को पुकारा - 'इधर आओ, भाई प्रत्याशी मिल गया। सबने बड़ी उत्सुकता से पूछा - कौन...? श्रीमणि ने नेता जी के कुत्ते की ओर इशारा किया। सबने हैरान परेशान होकर कहा - 'अरे ये बँगले के अंदर रहने वाला हमारा नेता कैसे बन सकता है? श्रीमणि नेकहा - 'रोटी के एक टुकड़े के लिये दिनभर भटकने वालो, तुम लोगों की क्या औकात है, जो तुम लोग चुनाव लड़ोगे। बस फैसला हो गया। रही बंद बँगले से चुनाव...