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कविता

पुनःस्मृति
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पुनःस्मृति

डॉ. राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** मेरी हर बात में तुमको मेरी हर मुलाकात याद आएगी। मेरी हर मुलाकात में तुमको मेरी हर मुस्कुराहट याद आएगी। मेरी हर मुस्कुराहट में तुमको मेरी हर पुकार याद आएगी। मेरी हर पुकार में तुमको मेरी हर आह याद आएगी। मेरी हर आह में तुमको मेरी हर चाह याद आएगी। मेरी हर चाह में तुमको प्रेम की नई राह याद आएगी। परिचय :-  डॉ. राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्री...
आषाड़ी बरखा
कविता

आषाड़ी बरखा

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण" इन्दौर (मध्य प्रदेश)  ******************** आज बगीचे में बरखा की, बूँदों ने जब नृत्य किया। है संवेदनशील प्रकृति इस, मूल तथ्य को सत्य किया।। सौंधी-सौंधी गन्ध धरा की, घर-घर तक ले उड़ी हवा। पंख फड़फड़ा कर खुशियों को, आमन्त्रण दे उठी लवा।। काले-काले मेघ गगन में, सघन और गतिमान हुए। चारों ओर धुन्ध सी छाई, घर-घर के मेहमान हुए।। मन मयूर मतवाले होकर, नाच उठे फिरकी जैसे। चित्त भंग हो गए संयमी बदली कुछ थिरकी ऐसे।। कहीं खनन खन खन्न कहीं पर, गमक छमाछम के स्वर हैं। कहीं छनन-छनन-छन्न टपाटप, तमक झमाझम के स्वर हैं।। एक-एक पाँखुरी पुष्प की, नस-नस में मकरन्द लिए। सुरभित करने लगी मेदिनी , मधुरिम-मन्द सुगन्ध लिए।। गदराई डाली पर मद से सराबोर हर खिली-कली। पर फैला पसरी मादकता, झूम उठी तर गली-गली।। तब रति-पति रसराज झूम कर, तरकश बाण टटोल उठा। बरखा...
छोटू
कविता

छोटू

डॉ. भगवान सहाय मीना जयपुर, (राजस्थान) ******************** छोटू चाय लाना..!! यह कितनी सामान्य सी पुकार है। थडी, ढाबा, कैफे, रेस्टोरेंट, बस, ट्रेन आदि, सब जगह मौजूद है छोटू। गंदी मैली सी धारीदार कमीज, मोटे धागे से सिली हुई फटी पेंट काली हवाई चप्पल पहने हुए। सिर के रुखे उलझे बिखरे बाल, मुख मलिन आंखों में चमक लिए। सूरज की पहली किरण के साथ दौड पडता है छोटू दूर तक, चाय गर्म, समोसे गर्म लिए। सरकार, मैं और आप नहीं जानते उसका छोटू बनने का कारण ? बनी होगी चक्र व्यूह सी कठोर विपरीत परिस्थितियाँ। मजबूरी ही बनाती हर बालक को अभिमन्यु और छोटू। जहां लडता है वह योद्धा बन, घर परिवार जीवन बचाने के लिए। वो अपना अजीज खोकर आया होगा यहां छोटू बनने। मां, बाबूजी या दोनों को ही, जिंदगी की अनाथ पगडंडियों पर। आती होगी याद उसे अपनों की, सिसकियाँ भरता होगा अकेले में। थक हारकर जब दे...
आएंगे जरूर अच्छे लोग
कविता

आएंगे जरूर अच्छे लोग

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** संभावित निश्चित हार को जानते हुए भी हर हालात मुश्किलात में भी सीना तानकर खड़े हो जाना रही है मेरी फितरत, न लालच, न झोल, न कोई गंदी हरकत, सालों साल से लड़ता आया हूं, न समझना कि फितूर बन छाया हूं, जातिय अन्याय और अत्याचार बर्दाश्त नहीं, दिन अभी चढ़ रहा है हो रहा सूर्यास्त नहीं, मंगल अमंगल की बातें मैं नहीं सोचता, समझता हूं मानव को मानव नहीं उसे नोचता, है ताकत जिनके पास शांति उन्हें स्वीकार नहीं, दूध जब गरम न हो कैसे बन पाएगा दही, प्यार व मोहब्बत उन्हें यदि अंगीकार नहीं, खोखले वादे क्यों सुनें हमें भी स्वीकार नहीं, पीठ पर चलाते गोली सीना क्यों न दागते, संविधान के अनुच्छेदों से दूर क्यों हो भागते, सामने खड़ा मिलूंगा हर युग हर काल, उड़ा देंगे धज्जियां सब लेंगे हम संभाल, लोकतांत्रिक देश मे...
अंतर्मन की पुकार उठी है
कविता

अंतर्मन की पुकार उठी है

हितेश्वर बर्मन 'चैतन्य' डंगनिया, सारंगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** अंतर्मन की पुकार उठी है आज मन में कई सवाल उठी है मन से मन की पुकार उठी है सवालों के जवाब से ही सवाल उठी है। जनता ने सरकार से पूछी है पाँच वर्षों की हिसाब मांगी है जवाब सुनकर जनता उलझी हुई है खुद की बनायी सरकार से ही रुठी हुई है। आज अंतर्मन की पुकार उठी है सरकार भ्रष्टाचार करके मस्त बैठी है इधर जनता अत्याचार से त्रस्त बैठी है राजतंत्र के आला-अधिकारी भी, उसी भ्रष्टता वाली बीमारी से ग्रस्त बैठी है। जनता दिन-रात मेहनत कर रही है सरकार उसका हिसाब ले रही है किस पर कितना टैक्स लगाना है सरकार मन ही मन सोच रही है। जनता को चूसने का मस्त बहाना है टैक्स लगाकर शाही खजाना बढ़ाना है कागज़ में ही सभी काम को निपटाना है अधूरे काम की पूरी जानकारी चिपकाना है। आज अंतर्मन की पुकार उठी है सोयी जनता अब जाग चुकी है ख...
रिश्ते
कविता

रिश्ते

किरण पोरवाल सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** जीवन की इस कडी़ में रिश्ते है अनमोल, अपनी जगह सब कीमती अपनी जगह सब अनमोल। रिश्ते की कीमत बडी़, बडा भाव ओर प्रेम, मीठी बोली प्रेम की मिट जाये सब कलेश, शत्रु से शत्रुता मिटे, मिटे राग और द्वेष, उन्नति समृद्धी है बडे़, विवेक ज्ञान वर्चस्व। जन-धन हानि से बचे, अर्थ का हो संचय, गरीबी बेरोजगारी है मिटे, उन्नत समृद्ध देश। मेल मिलाप भाईचारा प्रगति का है मार्ग, रोजगार व्यापार का जल्दी हो विकास । एकता मै बडी़ शक्ति है, मान और सम्मान, परिवार की एकजुटता शक्ति की पहचान। दुख सुख में सहभागी बनें, रहे सदा यह ज्ञान, सुख दुख के अनुपात का तभी होता एहसास। परिचय : किरण विजय पोरवाल पति : विजय पोरवाल निवासी : सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) शिक्षा : बी.कॉम इन कॉमर्स व्यवसाय : बिजनेस वूमेन विशिष्ट उपल...
क्षणिक लालिमा
कविता

क्षणिक लालिमा

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** इतना न फूलो अमल तास माँ धरा तो आनन्दित है पाकर लाल बिछावन लेकिन लेकिन अन्य वृक्ष लजाते है देख तुम्हारी लालिमा। कहीं, कहीं तो हरित पर्ण ने लाल दुशाला औढा है और कहीं पत्तो न फूलों को अंजुरी मे समेटा है। श्पाम वर्ण तितली मंडराती मानो काला टीका लगाया हो प्रकृति ने लाल पुष्पों के गाल पर। मोगरा, चम्पा, चमेली जुही कहते हम श्वेत वर्ण बिखेरते पर पर इतना न ही तुम तो अमलतास लालिमा मे नहाते से लगते हो। पर पन्छी का घोंसला नही घनी छाया के बाद भी क्यों आखिर क्यों हे लालिमा क्पा तुम क्षणिक हो बोलो, कुछ तो संकेत दो। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं ...
पढ़े ला जाबो ना
आंचलिक बोली, कविता

पढ़े ला जाबो ना

अशोक कुमार यादव मुंगेली (छत्तीसगढ़) ******************** (छत्तीसगढ़ी बोली) चलव-चलव संगवारी, पढ़े ला जाबो ना। अपन जिनगी ला अब गढ़े ला जाबो ना।। खुलगे जम्मों स्कूल, हो जा तंय तियार। धरले तंय हा बस्ता, गियान के उजियार।। सिकसा के सीढ़िया मा चढ़े ला जाबो ना। चलव-चलव संगवारी, पढ़े ला जाबो ना।। नवा किरन के संग मा, नवा होही अंजोर। पढ़ईया लईका मन ले, चमकही गली-खोर।। लक्ष्य अउ मंजिल कोती बढ़े ला जाबो ना। चलव-चलव संगवारी, पढ़े ला जाबो ना।। मोरो सपना पूरा होही, तोरो सपना पूरा होही। काबिल बनबो, हमरो बर कुछु अच्छा होही।। अगियान अंधियारी ला मेटे ला जाबो ना। चलव-चलव संगवारी, पढ़े ला जाबो ना।। स्कूल सिकसा के मंदिर, गुरुजी रद्दा देखाही। गुरु गियान के भंडार, बिदया के शंख बजाही।। गियान, भकती के कंठी जपे ला जाबो ना। चलव-चलव संगवारी, पढ़े ला जाबो ना।। परिचय : अशोक कुमार यादव निवासी...
पिता कि परछाई
कविता

पिता कि परछाई

अभिषेक मिश्रा चकिया, बलिया (उत्तरप्रदेश) ******************** पिता कोई नाम नहीं, एक एहसास है, जो परछाईं बन हर पल मेरे पास है। बचपन में जब पाँव लड़खड़ाए थे, वो थाम के उँगली चलाते थे। मैं हँसूं यही कामना लेकर, ज़ख़्म अपने मन में छुपाते थे।। कभी सिर पे छत, कभी गीतों में, हर रूप में साया बन जाते थे। मैं न गिरूं, यही सोच-सोचकर, अपने घावों को सह जाते थे।। पढ़ाई की रातों में नींद नहीं थी जब पन्नों संग मैं लड़ता था। चाय की हल्की भाप लिए, हर सवाल में संग मुस्काते थे।। मेरी किताबों में जो उजाला था, उसमें उनकी थकन समाई थी। मैं जो कुछ भी बन पाया आज, वो बस उनकी छांव से आई थी।। जब नौकरी की ओर मैं बढ़ा, वो बैग मेरा खुद उठाते थे। भीड़ में पीछे रहते हुए भी, मुझे सबसे आगे बतलाते थे।। मेरे नए शहर की रौशनी में, उनकी आंखों का पानी था। मैं जो खड़ा था मंचों पर, वो नीचे बैठ...
ज़िंदगी तेरा कोई पता नहीं
कविता

ज़िंदगी तेरा कोई पता नहीं

डॉ. राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** ज़िंदगी तेरा कोई पता नहीं कब आती हो और कब चली जाती हो। लोग सोचते हैं शायद किसी का कसूर होगा मगर आती हो तो हज़ारो बेकसूरों को भी अपने साथ ले जाती हो। कोई तड़फता है अपनों लिए कोई रोता है औरों के लिए पर तुम छोड़ती नहीं किसी को भी अपने साथ ले जाने को। जब मरता है कोई एक तो अफ़सोस-ऐ-आलम कहते है सब पर जब मरते है हज़ारों तो ख़ौफ़-ऐ- क़यामत कहते हैं सब। तू भी कभी तड़फती रूहों को अपने गले लगाए ज़रा रोए कर मरते हुए किसी चेहरें को खिल-खिला कर ज़रा हँसाए कर। मानता हूँ की ख़ौफ़ तेरे रोम-रोम में बसा हैं फिर भी किसी मरते हुए इंसा के माथे को चूम ज़रा-ज़रा सा मुस्काया कर। ज़िंदगी तेरा कोई पता नहीं कब आती हो और कब चली जाती हो। परिचय :-  डॉ. राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम...
भूल रहे घरेलू कला कौशलता
कविता

भूल रहे घरेलू कला कौशलता

ललित शर्मा खलिहामारी, डिब्रूगढ़ (असम) ******************** न जाने क्यों किन कारण से दिन प्रतिदिन बदल गये अधुनिकता के रंग में ढल गए नए रंगरूप में उमंग-तरंग में चढ़ गए घरेलू कला कौशलता के नुस्खे भूल गए आधुनिकता में बेसुमार रम गए घर की रसोईघर में भोजन पकाने में मिट्टी के सुंदर टिकाऊ चूल्हे धुंए की लोहे की फुँकनी मिट्टी के बने मनमोहक घड़े तांबे पीतल के बने बर्तन मसाले कूटने के मामजस्ते काठ के बने चकले बेलन कांच के अचार रखने के व्याम अनेकों सामानों को अकारण उन्हें भूल गए पकाने की पद्धति में न जाने कितने पिछड़ गए पौष्टिक आहार बनाने में शिथिल पड़ गए भोजनालय की सारी पद्धति भूल गए घरेलू स्वादिष्ट भोजन छोड़ बाहर के स्वाद चखने में बेधड़क रम गए न जाने क्यों घरेलू कला कौशलता अधुनिकता के चक्कर में भूल रहे आधुनिकता के गहराइयों में बेहिसाब गहरे रम गए परिचय...
पिता हूँ… पिता का दर्द जानता हूँ …
कविता

पिता हूँ… पिता का दर्द जानता हूँ …

प्रीतम कुमार साहू लिमतरा, धमतरी (छत्तीसगढ़) ******************** पिता हूँ, पिता का दर्द जानता हूँ ! गम छिपाकर मुसकुराने का मर्म जानता हूँ..!! छाले हो पांव में कोई गम नहीं ! कंधे पर बैठाकर दुनिया घुमाना जानता हूँ..!! जिम्मेदारियों ने जकड़ लिए है पर मेरे ! वरना ख्वाबों के शहर में उड़ना जानता हूँ..!! अपनों की खुशी और अपनों का प्यार ! यही जिंदगी का मकसद मैं भी जानता हूँ..!! मुफ्त में मिल जाएंगे नसीहते हजार ! अच्छी जिंदगी जीने का हर राज जानता हूँ..!! जी रहे है हम भी बेहतर जिंदगी ! पर पिता हूँ, पिता का हर फर्ज जानता हूँ…!! परिचय :- प्रीतम कुमार साहू (शिक्षक) निवासी : ग्राम-लिमतरा, जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)। घोषणा पत्र : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख,...
माँ को मै पलको पे रख लूँ
कविता

माँ को मै पलको पे रख लूँ

किरण पोरवाल सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** माँ को मै पलको पे रख लूँ, उनकी बाते सर पर रख लू, गुढ रहस्य की बाते माँ मै, इतिहास के पन्ने हे माँ में, जीवन के सब सपने माँ में, खाने का भण्डार है (अन्नपूर्णा) माँ में, बीते दिनो की याद है माँ में, संस्कृति और संस्कार है माँ में, मान और सम्मान है माँ में, दुनिया के हर अनुभव माँ में। घर मै एक वर्चस्व ही माँ है, घर की एक रौनक ही तो माँ है, बच्चो का तो सब कुछ माँ है, जीवन का एक पथ ही माँ है, भले बुरे की पहचान है माँ में, मन के भाव की पहचान है माँ में, गम को पीना खुशी से रहना, सबको लेकर साथ है चलना, यही भाव तो माँ रहता, घर मै सदा सजग है रहना, चौकन्ना सदा ही रहना, यह सब तो माँ मै ही रहता, मेरा तो यह अनुभव दिल का, बिन माँ के हम (बच्चा) पथ विहीन है रहता, जीवन का पथ माँ से मिलता, शिखर को छूने का सा...
औरत के अनेकों रूप
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औरत के अनेकों रूप

हितेश्वर बर्मन 'चैतन्य' डंगनिया, सारंगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** औरत के रूप है अनेक, कोई दुष्ट तो कोई है नेक। कोई धारण करे सीता का रूप, तो कोई है सुपर्णखा का स्वरूप।। कोई है साक्षात लक्ष्मी का स्वरूप, तो कोई धरे कुलक्षिणी का रूप। कोई बढ़ाये अपने कुल का मान, तो कोई करे पूर्वजों का अपमान।। कोई बनाये अपने घर को ही स्वर्ग, तो कोई गृहनाश करके बनाए नर्क। कुछ औरतें कहलाते हैं मर्यादित, तो कोई है डायन से परिभाषित।। कोई पति का दुःख-दर्द सुलझाए, तो कोई कोर्ट-कचहरी में उलझाए। कोई प्राणनाथ के रहे जीवनभर साथ, तो कोई करे पीठ पीछे ही आघात।। कोई अपने स्वामी को आबाद करे, तो कोई घर-परिवार को बर्बाद करे। कोई पति से बेइंतहा मोहब्बत करे, तो कोई उसके नाम से ही नफ़रत करे।। परिचय :-  हितेश्वर बर्मन 'चैतन्य' निवासी : डंगनिया, जिला : सारंगढ़ - बिलाईगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्...
देर भी अंधेर भी
कविता

देर भी अंधेर भी

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** झूठे दिलासों में जीने वालों इस जिंदगी में देर भी होता है, और अंधेर भी होता है, बस आश्वासन थोक में मिलता है, हर गली हर चौक में मिलता है, नेता ने दिया अधिकारी ने दिया, निजी ने दिया सरकारी ने दिया, मगर हकीकत कुछ और है, क्यों बदलता नहीं कोई दौर है, पुलिस वालों की जरूरत हो तो देर, डॉक्टर की जरूरत हो तो देर, मौक़ा देख मरीज निकल लेता है देर सबेर, परिजन झुंझलाहट में ऊपर देखते हैं, और कहते हैं उनकी यहीं मर्जी थी, लेकिन लोगों की आस फर्जी थी, यहां कोई किसी की आस पूरा करने वाला नहीं है, अंधेरे में खुद जलाना पड़ता है दीप खुद से बेवक्त होता उजाला नहीं है, प्रकृति का सब ताना बाना है जिसका कोई चितेर नहीं है, कभी धोखे में रह मत कहना कि यहां देर है अंधेर नहीं है, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे त...
मैं बनाम तुम
कविता

मैं बनाम तुम

नील मणि मवाना रोड (मेरठ) ******************** इंस्टेंट मैगी सा रिश्ता क्यों हो गया इतना सस्ता सरे बाजार जुड़ता है फिल्मों सा जलवा बिखेरता है चंद लम्हों की चमक-दमक दिखा सिमटने लगता है दो परिवारों का विश्वास चंद पलों में दरकने लगता है। कहां गया वो अपनापन, समर्पण, त्याग… रिश्ता निभाने का वो भाव, एक टीम का सुविचार, हमारे फैसले, हमारा अधिकार हमारी खुशी, हमारा घर, हमारे बच्चे ‘हम तुम अपने’ क्यों ‘स्व’ बदला अहम् में, आया एहसान, त्याग का हिसाब असंतोष, ईर्ष्या, आक्रोश व बहिष्कार का विचार विद्रूप और हिंसक, क्रोध भरा अहंकार। कल्पना लोक में विचराते मीडिया के झूठे इश्तहार बच्चों को बहकाते नकारात्मकता ओढ़ाते विवेकशीलता का संतुलन डगमगाते रिश्तों में षड्यंत्र की दरारें डलवाते ये इश्तहार वास्तविकता पहचानें कल्पना लोक से उबरें ना भटकें बने होशियार। परिचय :- नील मणि...
वक्त
कविता

वक्त

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** वक्त के हालात से नजर मिला के चलो नजारा चैन का देखोगे नजर मिला के चलो किनारा करेगी दुनिया वक्त भी साथ न देगा न होगे दरख्त के साये दामन थाम के चलो। राहे कदम का साक्षी राहे कदम पर चलता साये दरख्त के हो न हो फिर भी दामन मिलेगा सुकून का। वक्त कब होगा कैसा जाने ना कोई रफ्ता-रफ्ता जिन्दगी से सीखो सुकुन से जीना। नजारा चैन का देखोगे नजर मिला के चलो। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं आप सन १९६८ से इंदौर के लेखक संघ रचना संघ से जुड़ी आप शासकीय सेवा से निमृत हैं पीछेले ३० वर्षों से धार के कवियों के साथ शिरकत करती रही आकाशवाणी इंदौर से भी रचनाएं प्र...
याद उस जमाने की
कविता

याद उस जमाने की

किरण पोरवाल सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** याद आती है उस जमाने की प्यार मोहब्बत से बने पकवानो की। चुल्हे पर बनी रोटी की सौंधी-सौंधी खुशबू,बेमिसाल, माँ के हाथ की घेवर जैसी फूली-फूली रोटी की महक। क्या स्वाद था माँ के हाथ की आलू काधा और आलू बैंगन की साग और साथ मै ज्वार मक्का की रोटी वो भी चूल्हे पर बनी, प्यार से माँ थाल परोसती, पास बैठकर हमे खिलाती, गरम-गरम रोटी, ऊपर से माखन की गोटी कर मनवार माँ है देखो प्यार से देखो भात खिलाती, देखो केसे लाड़ लडा़ती। परिचय : किरण विजय पोरवाल पति : विजय पोरवाल निवासी : सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) शिक्षा : बी.कॉम इन कॉमर्स व्यवसाय : बिजनेस वूमेन विशिष्ट उपलब्धियां : १. अंतर्राष्ट्रीय साहित्य मित्र मंडल जबलपुर से सम्मानित २. अंतर्राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना उज्जैन से सम्मानित ३. राष्ट्रीय हिंदी...
ग्रीष्म
कविता

ग्रीष्म

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण" इन्दौर (मध्य प्रदेश)  ******************** टपक रहा है ताप सूर्य का, धरती आग उगलती है। हवा मचलकर लपट फैंकती, पोखर तप्त उबलती है।। दिन मे आँच रात में अधबुझ, दोपहरी अंगारों सी। अर्द्धरात अज्ञारी जैसी, सुबह-शाम अखबारों सी।। सिगड़ी जैसा दहक रहा घर, देहरी धू-धू जलती है। गरमी फैंक रही है गरमी, तपती सड़क पिघलती है।। सीना सिकुड़ गया नदियों का, नहरें नंगीं खड़ीं दिखीं। कुए-बावड़ी हुए बावरे, झीलें बेसुध पड़ीं दिखीं।। उतरा हुआ ताल का पानी, पहुँच गया पाताल तलक। हरी सब्जियाँ ग़म में डूबीं, दाल सुखाने लगी हलक।। आस-पास के बोरिंग सूखे, सरकारी नल चले गए। हैण्ड पम्प में रेत आ गया, ऐसे प्यासे छले गए।। घातक तपन धूप की बेटी, घर के कोने-कोने में। उमस और धमकों को लेकर, उलझी खेल खिलौने में।। बनकर बहू ससुर घर आई, लदी सुहाने सोने में। मगर सास पर अपना गु...
पिताजी
कविता

पिताजी

प्रीतम कुमार साहू लिमतरा, धमतरी (छत्तीसगढ़) ******************** मेरे लिए आन बान, शान है पिता धरती का साक्षात भगवान है पिता..!! सब रिश्तों का एक मिसाल है पिता अपनों के लिए बनते ढाल है पिता..!! छाले हो पांव में नहीं दिखाते है पिता कंधे पर बैठाकर भी घुमाते है पिता..!! पैरो पर खड़ा होना सिखाते है पिता सही, गलत का राह दिखाते है पिता..!! जिम्मेदारियों का बोझ उठाते है पिता गम सहकर भी मुसकुराते है पिता..!! अपनो कि हर चाह पूरी करते है पिता दो में से दो रोटी देना जानते है पिता..!! भूखा रहकर बच्चों को खिलाते है पिता जिंदगी जीना बच्चों को सिखाते है पिता..!! डगमगाते कश्ती का खेवनहार है पिता बच्चों के लिए मानो पूरा संसार है पिता..!!! परिचय :- प्रीतम कुमार साहू (शिक्षक) निवासी : ग्राम-लिमतरा, जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)। घोषणा पत्र : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जा...
निशाचर
कविता

निशाचर

हितेश्वर बर्मन 'चैतन्य' डंगनिया, सारंगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** देखो तो आज इस जमाने में, बिना अखबार के समाचार आया है। दिन के उजियारे को मिटाने, निशाचर के रूप में अंधकार आया है।। जो दिन में डरा-डरा सा रहता है, वो शाम ढलते ही भौंकने आया है। रात के अंधेरी सुनसान - गली में, राहगीरों का रास्ता रोकने आया है।। जिसको खुद दिशा का पता नहीं, वो मेरी दशा बिगाड़ने आया है। मुझसे जबरन झगड़ा करके, शराब का नशा निकालने आया है।। इंसान कुत्ता बनकर भौंक रहा है, शाम होते ही गली - चौराहों में। मुझे जान मारने की धमकी देने आया है, बहुत नफरत भरी है उसकी निगाहों में।। उसके पैर राह में डगमगा रहा है, फिर भी न जाने क्यों चिल्ला रहा है। मेरा उससे कोई दुश्मनी ही नहीं, फिर भी वो मुझ पर तिलमिला रहा है।। परिचय :-  हितेश्वर बर्मन 'चैतन्य' निवासी : डंगनिया, जिला : सारंगढ़ - बिलाईगढ़ (...
लड़ना भी जरूरी है
कविता

लड़ना भी जरूरी है

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** हां लड़ाकू हूं, लड़ते आया हूं अभी तक, बिल्कुल नहीं हूं कमजोर क्योंकि, प्रेम और अहिंसा का पाठ पढ़ाया जाता है कमजोरों को, किया जाता है प्रयास उन्हें देने के लिए मेडल सत्य और नैतिकता की, जबकि जीत का निर्णय करता है केवल और केवल ताक़त, जिसके विरुद्ध नहीं करता कोई हिमाकत, लड़ना अहम अंग है जिंदगी का, जो लड़ने से कतराता है, गायब हो जाते हैं पल भर में उनकी सुख-सुविधा, उनके हक अधिकार, सबसे ताकतवर लड़ाई है विचारों की, इस माटी के कण-कण के हिस्सेदारों की, बैठे बैठे कौन किसका हक़ खा रहा है, ध्यान किसी का इस ओर नहीं जा रहा है, भूखों को सुनाया जाता है धर्म की बातें, भूलाकर उनके द्रवित मर्म की बातें, जिस दिन कर गया घर, दिमाग में भरा हुआ डर, उस दिन से हो जाता है चेतना शून्य बड़ा से बड़ा लड़ाका, और बलवान...
अनंत सनातन
कविता

अनंत सनातन

डॉ. राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** दिन बीत जाते हैं मगर नहीं बीतता वह लम्हा जो हमें अपने ईश के समीप ले जाता है। अवधि बीत जाती है मगर नहीं बीतता वह पल जो हमें जड़ता से चेतन की ओर सदा के लिए ले जाता है। समय बीत जाता है मगर नहीं बीतता वह क्षण जो हमें शाश्वत के करीब ले जाता है। वक़्त बीत जाता है मगर नहीं बीतता वो निमिष जो हमें अविनाशी के निकट ले जाता है। परिचय :-  डॉ. राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्...
स्वीकार
कविता

स्वीकार

नील मणि मवाना रोड (मेरठ) ******************** स्वयं को स्वीकार कर तो देखो चित्त को साध कर तो देखो मन की लगाम थाम कर तो देखो गुण अवगुण स्वीकार कर तो देखो ना चोर कहे मैं चोर ना हिंसक कहे मैं हिंसक ना क्रोधी कहे मैं अक्रोधी ना निकम्मा कहे मैं लुल गंदगी छिपे ना इत्र छिड़काने से छिपे रोग को उजागर कर तो देखो स्वीकार लो सत्य को खुलकर बह जाकर तो देखो ज्ञान रोशनी है मन के अंधेरे तक पहुंचा कर तो देखो। परिचय :- नील मणि निवासी : राधा गार्डन, मवाना रोड, (मेरठ) घोषणा : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्र...
क्यों रातें जल्दी ढलती है
कविता

क्यों रातें जल्दी ढलती है

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** सारे दिन अवसाद को ढोया जीवन के अनगिन झमेले रातें ही तो बस अपनी है जहाँ पूरी शांति मिलती है क्यों रातें जल्दी ढलती है एक आस लिए इंतजार करूँ शशि सम पिय का दीदार करूँ मिलन के क्षण जब आते हैं साँसें बिन बात मचलती है क्यों रातें जल्दी ढलती है मद छलकाये उजली चाँदनी ज्वार उठे, चुप मन मंदाकिनी भुजपाश बढाये तन ताप देह पिया मेरी जलती है क्यों रातें जल्दी ढलती है पलकों की छुअन, रजनी रीती कैसे कहूँ, मन पर क्या बीती बातों में वक्त बीत गया लाज लगे, क्या कहती मैं क्यों रातें जल्दी ढलती है जाने कितनी मन भरी पीर बक जाता सब नयन नीर पिया मिले तो धीर धरूँ मैं यूँ ही जान ये निकलती है क्यों रातें जल्दी ढलती है परिचय :- छत्र छाजेड़ “फक्कड़” निवासी : आनंद विहार, दिल्ली विशेष रूचि : व्यंग्य ल...