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पद्य

तन्हाई के सायें
कविता

तन्हाई के सायें

डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी ******************** वो मुझे तन्हा कर गयी मुझे छोड़कर किसी और पर फिदा हो गयी। ******** तन्हाई मुझे बहुत सताती है। हर वक्त उसकी याद आती हैं। ******** पता नहीं क्या कमी थी मेरे प्यार में जो मुझे तन्हा छोड़ गयी इस संसार में। ******* अब तो मैने तन्हाई को अपना दोस्त बनाया है। जुदाई के घाव पर यह मरहम लगाया है। ******* वक्त नहीं कटता तन्हाई में बड़े दुख मिले मुझे बेवफाई में। ******** भगवान किसी को तन्हा न करें। किसी को अपने प्यार से जुदा न करें। ******** कोई कभी तो शिकायत करे। बेवफा बनकर तन्हा न करे। ******* परिचय : डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" निवासी : चिनार-२ ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी घोषणा : मैं यह शपथ पूर्वक घोषणा करता हूँ कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है।...
क्या तब.. क्या अब.. ?
कविता

क्या तब.. क्या अब.. ?

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** मन सोच रहा है कैसे खोल दूँ लब एक अरसे से मूक रहे जो खुलेंगे किस लिए अब…… लबों पर चिन्हित है गहरी मुस्कान मगर जग क्या जाने क्यों सीये थे सुर्ख़ लबों को तब…… आज तलक पनपता रहा आक्रोश गहरी पर्त्तों में रिसता रहा पर्त दर पर्त पीता रहा बूँद बूँद भुलाकर मन की चाहते सब….. पर दबा ही तो रहा,ख़त्म हुआ कहाँ वह आक्रोश मन में सहता रहा,दूसरों की ख़ुशी के लिए होते रहे छेद जिगर में मूक मन उफ़ भी करी कब….. अब होना है अंत यही जब क्या कह दूँ मन की सब जानते हुये भी कि चाहते पूरी नहीं हुई क्या तब….क्या अब…? परिचय :- छत्र छाजेड़ “फक्कड़” निवासी : आनंद विहार, दिल्ली विशेष रूचि : व्यंग्य लेखन, हिन्दी व राजस्थानी में पद्य व गद्य दोनों विधा में लेखन, अब तक पंद्रह पुस्तकों का प्रकाशन, पांच ...
हवाओं को लौट आने दो
कविता

हवाओं को लौट आने दो

शिवदत्त डोंगरे पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश) ******************* पीपल पर अपनी प्रार्थनाएँ टाँग सूर्यास्त का पीछा करते हुए जो आत्माएँ आकाश के भी आकाश में गरुड़ों सी चली गई हैं। देखना, अभी वे लौटेंगी क्योंकि पृथ्वी ही सबको अर्थ और संदर्भ देती है यह पृथ्वी ही है। जो शून्य को आकाश की संज्ञा देती है, यह पृथ्वी ही है। जो प्रकाश को धूप की संज्ञा देती है केवल हवाओं को लौट आने दो- ये सारे के सारे वन; कानन और अरण्य जो अभी भाषाहीन लग रहे हैं आकंठ प्रार्थनामय हो जाएँगे। सारी सृष्टि संध्याकालीन प्रार्थना-पुस्तक-सी पवित्र हो जाएगी। एक-एक पत्र संकीर्तन करता हुआ वैष्णव लगेगा केवल हवाओं को लौट आने दो- यही पीपल पत्र-प्रार्थनाएँ करता हुआ चैतन्य लगेगा, सारी वनस्पतियाँ माधव-गान करती हुई प्रभु के वन-विहार के अनुष्ठान-सी लगेंगी। महाभाव और क्या ...
जरूर कोई बात है
कविता

जरूर कोई बात है

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** धुरंधर लठैत मुस्कुरा रहा है, विरोधी लठैत भी मुस्कुरा रहा है, पता करो पीछे जा भौंकने वालों दोनों मिलकर कोई खिंचड़ी तो नहीं पका रहा है, हर कोई इन पर भरोसा कर रहा मगर ये भरोसे के काबिल नहीं है, नहीं पता तो चुप रहा कीजिए जनाब सपने में भी मत कहना कि ये हमारी बर्बादी में बिल्कुल शामिल नहीं है, मत ताकते रहो चेहरा और लिबास, खोजो और ढूंढो कहां है कालिख छुपा खास, कहीं ढंक ले तुम्हें वातावरण आभासी, कोई भी बन सकता है अडिग सत्यानाशी, अतीत के अपने अंजाम क्या याद नहीं, उनके पुरखों के कर्म कभी लगे सही? बहुतों के कर्म सही लगते हैं होते नहीं, वे कुकर्म भूल जाते हैं उसे कभी ढोते नहीं, बावरे मन और बावरे चित्त लेकर अब तक कितनों को हम समझ पाये हैं, थोड़े की चाह में सब कुछ तो लुटाये हैं, क्यों नहीं दिख रहा लेकर खड़े व...
पगडंडी
कविता

पगडंडी

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** पथ पगडंडी पर पडे पतझड के कोलाहल मे किसी की अस्पष्ट आवाज सुनाई दी पीछे मुडकर देखा, कोई नही था। सोचा मुझे भ्रम हुआ आगे चली फिर देखा कोई नयी था फिर कोई बोला पीछे मत देखो आगे चलो, बढो आत्मविश्वास, साहस के साथ सामिप्य मै तुम्हे दुगा, मै मन हू तुम्हारा। अकेलापन, सन्नाटे, तुफान से लङना सिखो, बढो आगे पिछे मुडना कायरता है और तुम, तुम कायर नही हो, मेरे साथी। मजबुत मानव हो पथ चाहे कैसा भी हो उसे सुगम बनाओ, आगे बढो, आगे बढो। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं आप सन १९६८ से इंदौर के लेखक संघ रचना संघ से जुड़ी आप शासकीय सेवा से निमृत हैं पीछेले...
सीख
कविता

सीख

किरण विजय पोरवाल सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** फूलों से सीखा मैंने है महकना। पेड़ों से सीखा मैंने है झुकना। नदीयो से सीखा बढ़ते है रहना, धरती से सीखा धैर्य है रखना, आकाश से सीखा मौन है रहना, पशु पक्षी से सीखा नियम में चलना। संतो से सीखा संयम में रहना, गुरु से सीखा आत्मा में रमना, कांटों से सीखा सम्भल कर चलना। शत्रु से सीखा कूटनीति का ज्ञान, दोस्त से सीखा का स्नेह और प्यार, मां से सीखा संस्कारों का ज्ञान, पिता से सीखा दुनिया की पहचान। प्रकृति का कण-कण हमें दे रहा है सीख, गुढ़ रहस्य उसमें छुपा, ज्ञान ध्यान और योग। परिचय : किरण विजय पोरवाल पति : विजय पोरवाल निवासी : सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) शिक्षा : बी.कॉम इन कॉमर्स व्यवसाय : बिजनेस वूमेन विशिष्ट उपलब्धियां : १. अंतर्राष्ट्रीय साहित्य मित्र मंडल जबलपुर से सम्मानित २. अंतर्र...
मन
कविता

मन

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** अपनी आँखों से काजल उतार कर मेरे माथे पर टीका लगाती। मेरे होंठों पर लगे दूध को अपने आँचल से पोछती होठों से प्यार की चुम्बन देती माथे पर शुभाशीष की तरह। फिर भी माँ के मन मे नजर ना लग जाए कहीं भय समय रहता। भले ही माँ भूखी हो मुझे आई तृप्ति की डकार से माँ संतुष्ट हो जाती। आईने में संवारने लगी हूँ खुद को क्योकि मे बड़ी जो हो गई। पिया के घर माँ की दी हुई पेटी जब खोलकर देखती हूँ उसमे रखे मेरे बचपन के अरमान जिसे संजो के रखे थे मेने गुड्डे -गुडिया कनेर के पांचे और खाना बनाने के खिलौने। इन्हें पाकर मन संतुष्ट लेकिन आँखे नम आज माँ नहीं है इस दुनिया मे। अपनी बेटी के लिए आज वही दोहरा रही हूँ जो सीखा-संभाला था अपनी माँ से मैने कभी। परिचय : संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता : श्री शांतीलालजी वर्...
देह  से परे
कविता

देह से परे

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** काया से परे, एक स्त्री के भूगोल को जान पाए हो कभी ? उसके भीतर उलझी हुए सडकों को कभी समझ पाये हो क्या ? एक खौलता हुआ इतिहास है भीतर उसके, क्या पढ़ पाये हो कभी!! नहीं समझ पाये आज तक उसको रसोई और घर-परिवार से परे भी एक दुनिया है उसकी, पुरुष से परे क्या उसकी जमीन समझा सकते हो उसको ? सदियों से तितर-बितर हुई ढूंढ रही अपने घर का पता बता सकते हो उसे ? कभी विस्थापित कभी निर्वाचित हुई उसके सम्मान को समझा सकते हो समाज को? उसकी दहलीज पर पड़े मौन शब्दों को जाना है कभी ? इस कुरुक्षेत्र में कई बार छली गई उसके मर्म की अनुभूति तुमको हुई है कभी ? उसकी पीठ पर पड़े अनगिनत गांठों को टटोला है तुमने, नहीं ना .....? वो कहना चाहती है" "इस देह से परे भी स्त्री की एक दुनिया है!! पर...
कुछ सिखा है
कविता

कुछ सिखा है

डॉ. राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** टूटे हुए लफ्ज़ों को बटोर कर मैंना लिखना सिखा हैं। बहतें अश्कों के दरिया में डूबकर मैंना तैरना सिखा है। जिस मिट्टी में मेरे अपनों ने ही मुझे मिट्टी किया, उस मिट्टी से मैंना खुद को ढालना सिखा हैं। जिस ऊंचाई के अहं में लोगों ने मुझे नीचे गिराए, उस ऊंचाई के भी आसमाँ को मैंना छूना सिखा है। मुकाम-ऐ-दौर में अपनों से ही मुझे जो ठोकरें मिली, उन ठोकरों से मैंना आगे बढ़ना सीखा हैं। परिचय :-  डॉ. राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।  ...
मैं बेचारा तन्हा अकेला
कविता

मैं बेचारा तन्हा अकेला

बाल कृष्ण मिश्रा रोहिणी (दिल्ली) ******************** मैं बेचारा तन्हा अकेला भीगी राहों पर ढूँढ रहा, खुद को, कहीं। सड़कें भीगीं, शहर धुंधला, आसमान में घना कोहर। भीगे आँखों से छलके यादों की धार, हर बूँद में गूँजे तेरा प्यार। शहर की भीड़ में, मैं खुद से पूछता, अपनी परछाई से ही अब मैं रूठता। पत्थरों में चमक, पर दिल में अँधेरा, टूटे सपनों सा लगता जीवन। खोया है कुछ, या पाया सवेरा? मैं मुस्कुराता नहीं मगर, हार भी मानता नहीं। सपनों की राख से, गढ़ता कोई सितारा। परिचय :- बाल कृष्ण मिश्रा निवासी : रोहिणी, (दिल्ली) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।...
महारानी लक्ष्मीबाई
दोहा

महारानी लक्ष्मीबाई

प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे मंडला, (मध्य प्रदेश) ******************** लक्ष्मीबाई नाम था, वीरों की थी वीर। राज्यहरण उसका हुआ, तो चमकी शमशीर।। ब्रिटिश हुक़ूमत से भिड़ी, रक्षित करने राज। नमन आज तो कर रहा, देखो सकल समाज।। शौर्यवान रानी प्रखर, जिसका मनु था नाम। उसके कारण ही बना, झाँसी पावनधाम।। स्वाभिमान को धारकर, छेड़ दिया संग्राम। झाँसी दे सकती नहीं, हो कुछ भी अंज़ाम।। रानी-साहस देखकर, घबराये अंग्रेज़। यहाँ-वहाँ भागे सभी, लखकर रानी तेज।। घोड़े पर चढ़ भिड़ गई, चली प्रखर तलवार। दुश्मन मारे अनगिनत, किए वार पर वार।। पर दुश्मन बहुसंख्य था, कैसे पाती पार। गति वीरों वाली हुई, करो सभी जयकार।। मर्दानी थी लौहसम, अमर हुआ इतिहास। लक्ष्मीबाई को मिली, जगह दिलों में ख़ास।। परिचय :- प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे जन्म : २५-०९-१९६१ निवासी : मंडला, (मध्य प्रदेश) शिक्षा : एम.ए (इतिहास...
रिश्तों में दरार
कविता

रिश्तों में दरार

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** सबको अपनी पड़ी है कोई नहीं कर रहा विचार, पता नहीं क्यों आ जाते हैं रिश्तों में दरार, अपनों का रूखापन, अपनों की दगाबाजी, किसी को मजबूत कर देता है तो कई बन जाते हैं अपराधी, रिश्तों की दरारों से बढ़ सकता है बैर, एक दूजे को भूल, नहीं सोचते कभी खैर, करने लग जाते हैं एक दूसरे की बुराई, इसकी न उसकी नहीं किसी की भलाई, तब हो जाये शायद बच्चों का बंटवारा, दुलार भी नहीं सकते चाहे हों सबसे प्यारा, आना जाना खतम और बढ़ती है दूरी, पहल कोई भी कर सकता है नहीं कोई मजबूरी, मगर इस हालात में आड़े आता है अहम, बुराई मेरी ही कर रहे सब हो जाता है भरम, लग जाते हैं पहुंचाने को नुकसान और अपनाते हैं साम-दाम- दंड-भेद की नीति, भूल जाते खून से बंधे संबंध व प्रीति, हां ये मेरा भी दर्द है, घुस चुका मुझमें भी ये मर्ज ह...
प्रति गीत (पैरोडी)
गीत, हास्य

प्रति गीत (पैरोडी)

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण" इन्दौर (मध्य प्रदेश)  ******************** क्या देश है देशी कुत्तों का? गलियों में गुत्थमगुत्थों का। इस देश का यारों क्या कहना, अब देश में कुत्ते ही रहना।। यहाँ चौड़ी छाती कुत्तों की, हर गली भौंकते धुत्तों की। यह डॉग लवर का है गहना, कुत्ते को कुत्ता मत कहना।। यहाँ होती भौं-भौं गलियों में, होती भिड़न्त रँगरलियों में। जो तुम्हें यहाँ पर रहना है, हर हरकत इनकी सहना है।। आ रहे विदेशी नित कुत्ते, रुक नहीं रहे ये भरभुत्ते। ढोंगिया रोंहगिया झबरीले, कुछ कबरीले कुछ गबरीले।। कहीं जर्मन है कहीं डाबर है, लगता कुत्तों का ही घर है। न्यायालय का यह आडर है, देखो इनमें क्या पॉवर है।। गलियों में नहीं मिलेंगे अब, एसी दिन-रात चलेंगे अब। भोजन पायेंगे सरकारी, बन गए अचानक अधिकारी। बन रहे शैल्टर होम यहांँ, कुत्तों की है हर कौम यहाँ। बेशक गउएंँ काटी ज...
मेरे सिया के श्रीराम
भजन

मेरे सिया के श्रीराम

प्रतिभा दुबे "आशी" ग्वालियर (मध्य प्रदेश) ******************** मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, मेरे सिया के श्रीराम। उनके चरित्र चित्रण से सीखे, मर्यादा ये संसार।। मोहिनी मूरत मेरे श्रीराम की, दर्शन मिले अपार। पुलकित हो उठे मन मेरा, जब भी लूं राम का नाम।। नहीं भेद करते कभी प्रभु, भावनाओं के साथ। झूठे बेर सबरी के, प्रेम से खाते हैं मेरे श्रीराम।। केवट की नौका को भी, किया प्रभु ने प्रणाम। हाथ जोड़ के केवट को, दिया भवसागर से तार।। आज्ञा से पिता दशरथ की, गए प्रभु वनवास। ऋषि मुनि की सेवा कर, किया है प्रभु ने प्रवास।। रावण पर उपकार किया, करके युद्ध अपार। तरस रहा था मुक्ति को, श्रीलंका का सम्राट।। आजीवन की साधना, लेकर शिव शंकर का नाम। राम का रूप आनंद है, चरणों में जिनके चारों धाम।। सूर्य देव आराध्य हैं, कुल दीपक हैं जिनके श्रीराम। वनवासी कहो या घट घट वासी...
बातें अनछुई
कविता

बातें अनछुई

पुष्पा खंगारोत जयपुर (राजस्थान) ******************** कुछ बातें अनछुई सी रह जाती है बात जब जज्बातों की आती है, क्या ही कहिये बातों का होना यहाँ फसानो सी जब जिंदगी हुई जाती है, रहा होगा वक्त कभी किसी जमाने में लोगो के पास एक दूजे के लिए आज तो मशीनों से बत्तर जिंदगी होती है, कभी ख्वाब आंखों में सजा करते थे आज तो नींद भी बहुत दूर रहती है, अजीब कशमकश में ढल जाती है जिंदगी न पत्थर सी है न पत्थर से कम लगती जाती है जिंदगी, कुछ बातें अनछुई रह जाती है ना भुलाई जाती है ना जहन से जाती है ll परिचय : पुष्पा खंगारोत निवासी : जयपुर (राजस्थान) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।...
बचपन
कविता

बचपन

सौरभ डोरवाल जयपुर (राजस्थान) ******************** खोया है बचपन, जवानी की हसीं उम्मीद में। जैसे बेच डाला हो सबकुछ, मामूली खरीद में।। बचपन खोया, खोया भाई-बहनों का प्यार। मोह्हले की रंगत खोयी, खोये सभी त्यौहार।। मौज छुटी, मासूमियत छुटी, छुटा दोस्तों का हाथ। दिखावे के रिश्ते बनाये, लगाये बैठे है जो घात।। बचपन के खेल खोये, खोये गिल्ली-डंडा और माल दड़ी। बचपन वाला समय, नही बताती अब हाथ घड़ी।। सूर्योदय सा बचपन बीता, बीत रही दोपहर सी जवानी। कब सूर्यास्त हो जाये क्या पता, कब ख़त्म हो जाये कहानी।। सूर्यास्त होने से पहले, एक बार फिर फिर जिन्दगी को जिया जाये। चलो गाँव की तरफ सौरभ, मोहल्ले में फिर से बचपन वाली मस्तियाँ की जाये।। परिचय : सौरभ डोरवाल निवासी : भोजपुरा, जिला- जयपुर (राजस्थान) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं म...
स्वयं से स्वयं की पहचान
कविता

स्वयं से स्वयं की पहचान

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** हो तिमिर घना, अधीरता नही स्वयं पर विश्वास हो, क्योंकि अमावस की रात मे भी निर्वाण घटित होता है कीचड़ कितना भी हो, कमल भी वहीं खिलता है दिया मिट्टी का ही हो रोशनी भरपूर देता है वो धरती का हिस्सा होता है! ईश्वर की कोई भाषा नहीं होती उस तक पहुचने का एक ही सेतु होता है , मौन का, मौन रह साधना का मौन रह कर्म करने का ! बुद्ध, महावीर या कोई संत नहीं बनना है स्वयं को अंगीकार कर स्वयं से स्वयं की पहचान कराना है ! इस राह में कुछ भी प्राप्त नहीं होता जो मिलेगा वही "स्वयं" को सार्थक करेगा, बहुत कुछ खो जाएगा, चिंता, महत्वाकांक्षा, भय, लालच, इर्ष्या, द्वेष, बेचैनी, साथ-साथ, अमूर्त दुनिया का फैलाव भी जो इंसान स्वयं बनाता है जिसमें सारा जीवन व्यतीत होता है! जिस दिन स्वयं को जानकर ...
बारूदी बस्ती
गीत

बारूदी बस्ती

भीमराव 'जीवन' बैतूल (मध्य प्रदेश) ******************** अरमानों की मौन अर्थियाँ, रोज निकलती हैं। इस बारूदी बस्ती में अब, श्वासें डरती हैं।। हिंसा ने खुशियों को खाई, जब त्योहारों की। अलगू जुम्मन बातें करते, बस हथियारों की।। समरसता से डरी पुस्तकें, आहें भरती हैं।। क्षुद्र स्वार्थ में इस माली ने, पूँजी कुछ जोड़ी। हरे-भरे सम्पन्न बाग की, मेड़ें सब तोड़ी।। कलियाँ बासंती मौसम को, देख सिहरती हैं।। डरी अल्पनाएँ आँगन से, अब मुँह मोड़ रही। हँसिया लेकर बगिया विष की, फसलें गोड़ रही।। गर्वित-गढ़ में न्याय-कुर्सियाँ, पल-पल मरती हैं।। परिचय :- भीमराव 'जीवन' निवासी : बैतूल मध्य प्रदेश घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।...
मातृभूमि (माँ) तुझे प्रणाम
कविता

मातृभूमि (माँ) तुझे प्रणाम

बाल कृष्ण मिश्रा रोहिणी (दिल्ली) ******************** मातृभूमि (माँ) तुझे प्रणाम उगता सूरज तिलक लगाता उज्जवल चंद्र किरण की वर्षा, नतमस्तक हूँ तेरे चरणों में तेरे चरणों में चारों धाम। मातृभूमि (माँ) तुझे प्रणाम।। तेरी माटी शीतल चंदन, जिसमें खेले खुद रघुनन्दन। जिसमें कान्हा ने जन्म लिया, कभी खाई, कभी लेप किया। सीता की मर्यादा यहाँ, यहाँ मीरा का प्रेम। मन के दर्पण का तू दर्शन तेरे आँचल में संस्कृति का मान। मातृभूमि (माँ) तुझे प्रणाम।। कल-कल करती नदियां अपनी संगीत सुनाए। चूं-चूं करती चिड़िया अपनी गीत सुनाए। मातृभूमि की पावन धरा, हर हृदय में प्रेम संजोए काशी विश्वनाथ की आरती, हर मन में दीप जलाए। आध्यात्म की गहराई यहाँ और विज्ञान की उड़ान। मातृभूमि (माँ) तुझे प्रणाम।। दिव्य अलौकिक अजर-अमर कंकर भी बन जाता यहाँ शंकर। बलिदानों की गाथा तू , तू वीरो...
दर्द बहुत हैं जिंदगी की राह में
कविता

दर्द बहुत हैं जिंदगी की राह में

सुशी सक्सेना इंदौर (मध्यप्रदेश) ******************** साहिब, दर्द बहुत हैं, जिंदगी की राह में। हंस के सह लूं मगर, जीने की चाह में। उम्मीदों पर क़ायम है, अरमानों की नांव, खौफ नहीं तुफानों का, अब मेरी निगाह में। जिंदगी का सच तो बहुत खूबसूरत है, मगर कांटे समेट लिए हमने, फूलों की परवाह में। परिचय :- सुशी सक्सेना निवासी : इंदौर (मध्यप्रदेश) इंदौर (मध्यप्रदेश) निवासी सुशी सक्सेना वर्तमान में, वेबसाइट द इंडियन आयरस और पोगोसो ऐप के लिए कंटेंट राइटर और ब्लॉग राइटर के रूप में काम करती हैं। आपकी कविताएं और लेख विभिन्न पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए हैं। आपने कई संकलनों में भी योगदान दिया है एवं कई प्रशंसा पत्र और पुरस्कार प्राप्त किए हैं। विशेष रूप से, आपको अनुराग्यम द्वारा गोल्ड मेडल एवं वंदे मातरम पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। आपकी कई पुस्तकें प्रक...
प्रकृति
कविता

प्रकृति

ललित शर्मा खलिहामारी, डिब्रूगढ़ (असम) ******************** प्रकृति में बनकर वर्षा, हरी भरी लाली चमत्कारी प्रकृति में, बरसाती हरियाली अमृत बनकर प्रकृति को कर तृप्त सूखे से प्रकृति की प्यास, बुझाती बचाती ।।१।। प्रकृति स्वयं प्रक्रिया में करतीऋतु में वर्षा प्रकृति में कीमती उपहार लगती,अमृत वर्षा मौसम में बिन कहे आसमान से जमीन पर आंनद में प्रकृति को खूब, भिगोती है वर्षा ।।२।। प्रकृति की एक मूल आधार, मनमोहक वर्षा घनघोर घटा में उमड़ती है आसमान से वर्षा टपकती जल की असनान से बूंदे बनती वर्षा प्रकृति करती इंतजार अब आओ बरसो वर्षा ।।३।। प्रचंड, तपती, चिलचिलाती, भीषण गर्मी में असहनीय प्रकृति में मानव पशुपक्षी जीवजंतु खेत खलिहान होती जमीन वीरान सुनसान में प्रकृति से जोरशोर प्रार्थनाएं की जाती वर्षा की, ।।४।। झुलसाये, मुर्झाये प्रकृति के पेड़ पौधे की पुकार जीव जंतुओं प्राण...
अलबेला मौसम आया
कविता

अलबेला मौसम आया

डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी ******************** मौसम को मैने इस समय बदलते पाया । वास्तव में अब अलबेला मौसम है आया। ******* न पंखे की जरूरत है न हीटर की जरूरत है। देखिए मौसम कितना खूब सूरत है। ******** ऐसे अलबेले मौसम का अलग ही मजा है। मौसम खराब हो तो लगता सजा है। ******** मौसम बदल रहा है तुम मत बदल जाना। सात जन्म तक मेरा ही साथ निभाना। ******** ये मौसम प्यार का है आओ एक दूसरे में समा जायें । और दोनों मिलकर एक हो जाय। ******* चारों तरफ शांति है न कही शोर है। खुशहाली फैली चारों ओर है। ******** वे बदल गये मौसम की तरह हम इंतजार करते रहे। वे हो गये किसी और के हम सपने देखते रहे। ******** सबसे अच्छा है ये मौसम सबसे प्यारा है ये मौसम। जो करना है कर लो दोबारा नहीं आयेगा ये मौसम। ******* परिचय : डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" निवासी : च...
सर्वदर्शी
कविता

सर्वदर्शी

डॉ. राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** किताबों के बाद इंसानों को पढ़ने का शौक पैदा हुआ, इतना पढ़ा कि वो भी पढ़ लिया जो कभी नहीं पढ़ना चाहिए था उनके अंतर्मन का। तुमको देखने के बाद इंसानों को देखने का शौक पैदा हुआ, इतना देखा कि वो भी देख लिया जो वो छुपाना चाहते थे सदा दुनिया से। परिचय :-  डॉ. राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।  ...
मुरलीधर
भजन

मुरलीधर

रतन खंगारोत कलवार रोड झोटवाड़ा (राजस्थान) ******************** मन बसिया, रंग रसिया गोपाल, तुझे छलिया कहूं या कहूं नंदलाल। हजारों नाम और असंख्य है अवतार, मधुर तेरी मुरली की हैं, तान ओ मुरलीधर।। गोकुलवासियों ने कोई पुण्य कमाया, जो मुरलीधर उनका सखा बन आया। सुख-दुःख का साथी बना नंदलाला, त्रिलोकी का नाथ बन गया रखवाला।। हंसी ठिठोली से चले जीवन की नैया, तारणहार ही बन गया सबका खवैया। सब ग्रामवासियों को बहुत प्रेम से समझाया, पर्वत की पूजा का जीवन में महत्व बताया।। पूजा टली इंद्र की तो, उसका क्रोध जगा, सात दिनों तक वर्षा का सैलाब लगा। त्राहि त्राहि मच गया जब चहूं ओर, तब हरी हर आये सुन दिन हीन पुकार।। गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाया, सब जीवों को उसके नीचे बसाया। मुरली की मधुर तान सुन सब भूल गए दुख और काज, तब से ही गिरधर बन गए गोवर्धन महाराज।। परिचय : रतन ...
यूँ कागज पर लिखने से क्या फ़ायदा
कविता

यूँ कागज पर लिखने से क्या फ़ायदा

इंद्रजीत सिहाग "नोहरी" गोरखाना, नोहर (राजस्थान) ******************** यूँ कागज पर लिखने से क्या फायदा, बरसात में भीग जाएगा बचेगा नहीं, तुमने पत्थर सा दिल कह तो दिया, पत्थर पर लिखोगे तो मिटेगा नहीं। मैं तो दसतपा था फिर क्यों बुलाया, तन पर मधुमास लपेटे हुए, शरद की शीत में कमल मुरझाया, प्यास तन में लिए हुए। तुमने मुँह छिपाया तो ऐसा लगा, अब सूरज उगेगा नहीं.... यूँ कागज पर लिखने से क्या फायदा, बरसात में भीग जाएगा बचेगा नहीं। मैं बसंत की तीज मना लुँगा, तुम्हें कौन ऋतु बसंती बताएगा। तुम अपनी धरोहर तो दिखा, तुम्हारी धरोहर दिल में बसा लुँगा, यूँ नयनों में नयन मत डालना, फिर ये दिल किसी की मानेगा नहीं। यूं कागज़ पर लिखने से क्या फायदा, बरसात में भीग जाएगा बचेगा नहीं, तुमने पत्थर सा दिल कह तो दिया, पत्थर पर लिखोगे तो मिटेगा नहीं। आँख बंद की तो तुम लैला सी ...