बोलती खिड़कियाँ
माधुरी व्यास "नवपमा"
इंदौर (म.प्र.)
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एक वो भी वक़्त था जब,
खिड़कियाँ भी बोलती थी।
खुशबू खाने की,पकवानों की,
अपनापन जब घोलती थी,
दौड़े आते थे पडौसी बच्चे,
काकी जब चौका खोलती थी।
रिश्ते खून के ना होते थे पर,
मन से मन को जो जोड़ती थी।
एक वो भी वक़्त था जब,
खिड़कियाँ भी बोलती थी।
आवाजें हँसने की, रोने की,
होले- से सब कह देती थी।
उमड़ पड़ते थे सब रिश्ते जब,
बेटियाँ पीहर में डोलती थी।
आस-पास के दो घरों को,
जज्बातों से वो जोड़ती थी।
एक वो भी वक़्त था जब,
खिड़कियाँ भी बोलती थी।
रौनक तीज की, त्यौहार की,
जब गलियों-चौबारों में होती।
घर-घर बतियाने लगते जब,
मुस्कान हर चेहरे पर बोलती।
फुहारें हँसी के वो छोड़ती थी,
दिलों में खुशियाँ घोलती थी।
एक वो भी वक़्त था जब,
खिड़कियाँ भी बोलती थी।
अब वो दिन कहाँ रहे जो,
दो घरों को फिर जोड़ पाए।
कीकर उगे है मनके भीतर,
खिड़की कैसे खोली जाएँ।
परायों में भी अपन...























