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पद्य

याज्ञसेनी १
कविता

याज्ञसेनी १

मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द' मुज्जफरपुर ******************** बोलो, आखिर कब तक सहते? थक गये थे कहते-कहते। विश्व बिरादरी मान रही थी। तुमने किया है, जान रही थी। किसके बल तुम तने हुए थे? क्यों यों भोले बने हुए थे? रोना है, तुझको रोना है। तेरे किए न कुछ होना है। प्रतिशोध की ज्वाला में हम कबतक दहते रहते- बोलो, आखिर कबतक सहते? सोचो, अब तुम कहाँ खड़े हो? चारो खाने चित्त पड़े हो। करनी का फल भोग रहे हो। दो-दो युद्ध की हार सहे हो। रे मूर्ख, मूर्खता छोड़ो अब तो। रे दुष्ट, दुष्टता छोड़ो अब तो। वीरों की है हुई शहादत, मौन भला हम कबतक रहते- बोलो, आखिर कबतक सहते? . परिचय :- मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द' पिता - रामनन्दन मिश्र जन्म - ०२ जनवरी १९६० छतियाना जहानाबाद (बिहार) निवास - मुज्जफरपुर शिक्षा - एम.एस.सी. (गणित), बी.एड., एल.एल.बी. उपलब्धियां - कवि एवं कथा सम्मेलन में भागीदारी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प...
आरक्षी
कविता

आरक्षी

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** आरक्षी प्रखण्ड में कार्य करती है सिर्फ देह। प्राणवायु का संचालन जिसमे पूर्णतः बन्द हो चुका है ऐसी देह। भावना, विचारों, इच्छाओं से शून्य देह। जो जैसा चाहे वैसा व्यवहार कर सकता है उसके साथ कोई प्रतिक्रिया नही देती ये देह। सबलता के भ्रामक आवरण से ढकी निर्बल देह। ग्रीष्म में सूखती बारिश में भीगती शरद में ठिठुरती चौराहे चौराहे दिन रात खड़ी देह। देश भक्ति जन सेवा खल दलन योग क्षेम जैसे नियमित कर्मो को निष्काम भाव से सम्पन्न करती देह। पर सुखों में प्रसन्न होती अपने दुःखो को छुपाती देह। लाख त्रुटियां जन जन की परिलक्षित परिभाषित नही, कर्तव्य की बलिवेदी पर शीश अपना चढ़ाती देह। . परिचय :- नाम : धैर्यशील येवले जन्म : ३१ अगस्त १९६३ शिक्षा : एम कॉम सेवासदन महाविद्याल बुरहानपुर म....
मन की पीर
कविता

मन की पीर

मनोरमा जोशी इंदौर म.प्र. ******************** आज मे किसको सुनाऊँ, व्यथित मन की पीर। नयन अपलक जागते हैं, बहुरि भरते नीर। वेदना के शूल चुभते, मन पटल पर भाव भरते, कोन जो आकुल हर्दय को, आ बँधावे धीर ,बहुरि भरते नीर। याद मुझको हैं सताती, विरह की ज्वाला जलाती, कब मिलन कैसे मिलन हो, श्वास श्वास अधीर, दूर बसते प्रिय हमारे, मन पखेरु जारे जारे, सरस प्रिय के बिना, अब एक पल गंभीर, बहुरि भरते नीर। . . परिचय :-  श्रीमती मनोरमा जोशी का निवास मध्यप्रदेश के इंदौर में है। आपका साहित्यिक उपनाम ‘मनु’ है। आपकी जन्मतिथि १९ दिसम्बर १९५३ और जन्मस्थान नरसिंहगढ़ है। शिक्षा - स्नातकोत्तर और संगीत है। कार्यक्षेत्र - सामाजिक क्षेत्र-इन्दौर शहर ही है। लेखन विधा में कविता और लेख लिखती हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी लेखनी का प्रकाशन होता रहा है। राष्ट्रीय कीर...
तुम्हे गर भूलना चाहूं
ग़ज़ल

तुम्हे गर भूलना चाहूं

दामोदर विरमाल महू - इंदौर (मध्यप्रदेश) ******************** तुम्हे गर भूलना चाहे तो अक्सर याद आते हो। हमे गर चोट लगती है तो क्यों आंसू बहाते हो। तुम्ही ने की है गर ये हंसी ज़िन्दगी मेरी बर्बाद, फिर क्यों मुझपे ये बदनुमा इल्ज़ाम लगाते हो। हम तो किया करते थे कोशिशें तुम्हे हंसाने की, तुम हो ज़ालिम जो मुझे हर एक पल रुलाते हो। तुमसे बिछड़े हुए कितने बरस बीत गए देखो, फिर क्यों तुम मुझे अपने ही पास... बुलाते हो। जब बचा ही नही कुछ तेरे और मेरे दरमियान, तो क्यों गैरो से अक्सर मेरी खैरियत मंगाते हो। बहुत देर की अपने आपको साबित करने की, अब फ़िज़ूल में क्यों इतना झूठा प्यार जताते हो। बुरे तुम नही थे बुरा तो दिल है तुम्हारा शायद, क्यों अपने अंदर तुम ये सब देख नही पाते हो। हम अंजान नही है तुम्हारी ज़िंदगी से समझे, पता है तुम अब भी औरों से दिल लगाते हो। . प...
हृदय प्रफुल्लित
कविता

हृदय प्रफुल्लित

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** मदहोशी का आलम ऐसा खिल गये पुष्प अन्तस्तल में, नृत्य करे यह मन मयूर कोयल की कून्क मरुस्थल में। पुष्पित हो महका हर कोना, झूम उठा मेरा तन मन, आज प्रफुल्लित रोम रोम होगा प्रियवर से मधुर मिलन। अब नहीं कलुष मन में कोई, हर पल मुस्कायें होंठ मगन, झूम झूम नाचें इत उत, बाजे पायल रुनझुन-रुनझुन। . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प...
माँ कंकाली स्तुती
कविता

माँ कंकाली स्तुती

ओमप्रकाश सिंह चंपारण (बिहार) ******************** तापा सेमरौन गढ़ में विराजत तू माँ महामाया कंकाली- ध्यावत तुमको निश दिन नेपाल-भारत के वासी सदियो से माँ पूजित-सिद्धयोगी बाबा मंशा राम की हरछन जलती धुनी। जय माँ कंकाली जय माँ कंकाली दुखियो की दुख हारती माँ तू सुख शांति की दाती। जय माँ काली कंकाली। ऋषि मुनि से तू पूजित धन वैभव की दाती। तापा सेमरौन गढ़ में विराजत तू सुख शांति की दाती। सत्रु मर्दन करती छन में सेवक को हो हर्षाती। पुत्र हीन को तू पुत्र देती हो हरदम तू मदमाती उच्च सिघासन पर विराजत हरछन घंटा नद घहराती जय माँ काली कंकाली भक्त जन जब तुम को देखे सारा संकट टर जाती जय माँ काली कंकाली बड़े बड़े साधक का माँ तू सिद्ध साधन कर जाती अनुभव स्वयं साधक को होती जब तेरी किरिपा ही जाती जय माँ काली कंकाली। सदियो से तू माँ विराजत औघड़ सिद्घ बाबा मंशा राम थे वा...
अब जाने दो मुझको
कविता

अब जाने दो मुझको

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ******************** तुम पर जो शेष है वही उधार हो गया हूँ मैं चुकाकर तेरा मोल कर्जदार हो गया हूँ मैं। नही समझी तू मुझे किसी लायक भले ही एक तेरा ही तो दारोमदार हो गया हूँ मैं। मर चुके हैं दिल में पनपे सारे ही जज्बात ना तो गुल और ना ही खार हो गया हूँ मैं। आता नही था मुझे कभी यूँ शायरी का फ़न तू देख बड़े शायरों में शुमार हो गया हूँ मैं। केवल सच के बुनियाद पर टिका हुआ हूँ मैं तू मानती है झूठ का करोबार हो गया हूँ मैं। जाने दे मुझे,तू अब खुद से दूर रोकना मत किसी का सच्चा वाला प्यार हो गया हूँ मैं।   परिचय :- कवि आशीष तिवारी निर्मल का जन्म मध्य प्रदेश के रीवा जिले के लालगांव कस्बे में सितंबर १९९० में हुआ। बचपन से ही ठहाके लगवा देने की सरल शैली व हिंदी और लोकभाषा बघेली पर लेखन करने की प्रबल इच्छाशक्ति ने आपको अल्प सम...
धुंध हठीली
हाइकू

धुंध हठीली

अशोक बाबू माहौर कदमन का पुरा मुरैना (म.प्र.) ******************** धुंध हठीली इंसान सुस्ता रहा खामोश मन। धुआँ शहरी नखरे अजीब से झेलता कौन। कोहरा जमा छत और दीवाल दुखिया मन। सेहत कैसी मुख बाँधे रुमाल अजीब पंगा। हवा भी रूठी धुंध दिखाये आँखें ड़रते हम। . परिचय :- अशोक बाबू माहौर ग्राम - कदमन का पुरा, जिला - मुरैना (म. प्र.) प्रकाशन - हिंदी रक्षक डॉट कॉम (hindirakshak.com) सहित देश विदेश की विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित सम्मान - इ-पत्रिका अनहदकृति की तरफ से विशेष मान्यता सम्मान २०१४-१५ से अंलकृति। नवांकुर साहित्य सम्मान साहित्य भूषण सम्मान मातृत्व ममता सम्मान आदि। प्रकाशित साझा पुस्तक :- (१) नये पल्लव ३ (२) काव्यांकुर ६ (३) अनकहे एहसास (४) नये पल्लव ६ (५) काव्य संगम (६) तिरंगा मौलिकता - मैं अशोक बा...
उजालों की निशानी
ग़ज़ल

उजालों की निशानी

पुरु शर्मा अशोकनगर (म.प्र.) ******************** . उजालों की निशानी संभाले रखना उम्मीदों की लौ जलाऐ रखना गुजरेंगी मुश्किलों की हवाएँ भी बस होठों पे मुस्कुराहट बनाएँ रखना मंजिलें मुकम्मल होंगी जरूर, बस सदाक़त का सफ़ीना थामे रखना ग़र हैं बेसबब मोहब्बत वतन से तो अमन-ए-पैगाम बनाए रखना यह धरती हैं माँ का आँचल इसकी आन को संभाले रखना . परिचय :-  पुरु शर्मा निवास : बहादुरपुर, जिला - अशोकनगर (म.प्र.) कई समाचार पत्रों में लेख व कविताएँ प्रकाशित, निरंतर लेखन कार्य जारी। वर्तमान में भोपाल में स्नातक की पढाई में अध्ययनरत आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख...
महाकाल हूँ
कविता

महाकाल हूँ

राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** काल हूँ महाकाल हूँ अनंत का विस्तार। रुद्र का भी अवतार भाव से करता भक्तों को भव पार हूँ। न दिखे सत्य तो संपूर्ण संसार का करता विनाश हूँ। काली का महाकाल हूँ विष्णु का आराध्या मैं विश्वनाथ हूँ। मैं स्थिर हूँ अस्थिर भी हूँ इसीलिए सदाशिव हूँ। देवों का भी देव हूँ इसीलिए मैं महादेव हूँ। आदि हूँ, अनादि हूँ अनंत हूं, अपार हूं। अव्यय हूँ, अव्यग्र हूँ तभी तो जगद्व्यापी मैं सदाशिव हूँ। परिचय :- राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्...
धर्म बनाम पंथ
कविता

धर्म बनाम पंथ

प्रो. आर.एन. सिंह ‘साहिल’ जौनपुर (उ.प्र.) ******************** महज़ सनातन मूल्य अनूठा बाक़ी सारा जग ही झूठा मज़हब नहीं पंथ कह भाईं मझहब से छिड़ जात लड़ाई मठाधीश मज़हब चलवाते पन्थी दिल से दिल मिलवाते लक्ष्य एक पर पंथ अनेका पंथ से ही सम्भव है एका मज़हब तर्क नहीं स्वीकारे पंथ प्रेम बस प्रेम पुकारे मज़हब मन संकीर्ण बनाता पंथ सदा भ्रातृत्व सिखाता। . परिचय :- प्रोफ़ेसर आर.एन. सिंह ‘साहिल’ निवासी : जौनपुर उत्तर प्रदेश सम्प्रति : मनोविज्ञान विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश रुचि : पुस्तक लेखन, सम्पादन, कविता, ग़ज़ल, १०० शोध पत्र प्रकाशित, मनोविज्ञान पर १२ पुस्तकें प्रकाशित, ११ काव्य संग्रह सम्पादित, अध्यक्ष साहित्यिक संस्था जौनपुर उत्तर प्रदेश आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिच...
गुरु और शिष्य
गीत

गुरु और शिष्य

संजय जैन मुंबई ******************** गुरु शिष्य का हो, मिलन यहां पर, फिर से दोवारा। यही प्रार्थना है हमारा। यही प्रार्थना है हमारा।। गुरु चाहते है, कि शिष्य को, मिले वो सब कुछ। जो में हासिल, कर न सका, अपने जीवन में। वो शिष्य हमारा, हासिल करे, अपने जीवन में। मैं देता आशीष शिष्य को, चले तुम सत्य के पथ पर, मिलेगा ज्ञान यही पर।। गुरु शिष्य का मिलन...। शिष्य भी पूजा करता, अपने गुरु की हर दम। उन्होंने मार्ग प्रशस्त किया, मोक्ष् जाने का शिष्य का। इसी तरह अपनी कृपा, मुझ पर बनाये रखना। ऐसी है प्रार्थना गुरुवर, में सेवक हूँ गुरुवर का। में सेवक हूँ गुरुवर का ।। गुरु शिष्य का ......।। नगर नगर में श्रावक जन, पूजा गुरु शिष्य की करते। उनके बताये हुए मार्ग पर, सदा ही हम सब चलते। मिल जायेगा हमे भी, शायद पापो से छुटकारा। यही समझता मानवधर्म हमारा। यही बतलाता मानवधर्...
प्रेम
कविता

प्रेम

श्रीमति सीमा मिश्रा सागर मध्यप्रदेश ******************** प्रेम तुमसे क्या कहूँ! और कितना कहूँ न कह पाऊगी पूरा, जितना कहूँ! प्रेम की गागर कहूँ या प्रेम का सागर कहूँ ! रचे बसे हो आत्मा में, या फिर आत्मा ही कहूँ! प्रेम तुमसे क्या कहूँ............!! तुम्हें अपना सखा कहूँ, या अपना सगा कहूँ! चित्त में बसी चितवन कहूँ, या चितचोर मै कहूँ! प्रेम तुमसे क्या कहूँ............!! सांसो की पतवार कहूँ, या पतवार का माछी कहूँ! आंखों में समाया चांद कहूँ, या धड़कनों का साज कहूँ! प्रेम तुमसे क्या कहूँ..........!! निश्छल सी प्रीत कहूँ, या प्रीत की कोई रीत कहूँ! रामचरित की चौपाई कहूँ, या गीता सा ज्ञान कहूँ! न कह पाऊगी पूरा, चाहे जितना कहूँ! प्रेम तुमसे क्या कहूँ.........!! मन में प्रज्वलित चाहत की पवित्र ज़्योत कहूँ, या मुझमें बसा बेइंतहा इंतजार मै कहूँ दूर रहके भी हरपल ...
तो सुख सदा समाय
छंद, दोहा

तो सुख सदा समाय

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** दर्शन- टूटते घर और जिम्मेदार बहु। जी खूब कही। माता पिता की नाज़ो पली आपके लिए बिल्कुल ना भली। सोचा है इसका कारण कभी? कारण क्या है अचानक उसके लक्ष्मी से दुर्गा बन जाने के? कली जो थी फूल की उसके अंगारे बन जाने के? आपका बुढ़ापा बिगड़ जाने से लेकर वृद्धाश्रम की दहलीज़ तक पहुंचा दिए जाने के। बेटी हमेशा सुकुमार, नादान, चंचल चित्त युक्त सुंदर शालीन युवती वाचाल, चपला है। बहु स्वर्ग से उतरी महान वुभूति सब उलूल-जुलूल सहने वाली अच्छी, सभ्य, संस्कारी घूँघट धारिणी, गुस्से वाला थप्पड़ खाकर भी शांत रस विचारिणी, एक निरीह अबला है। अजी ख़ूब सोची, हाड़ मांस की देह धारी दोनों बेटी-बहु में भेद कुछ ज़्यादा ही तगड़ा है। तो बस यही आपकी उल्टी गंगा वाली सोच आपको भुगतवाती है। स्त्री हो चली शिक्षित जान चुकी अपना स्तर आपको आप, ही की भाषा में, ब्याज सहित जब लौटती ह...
बेशकीमती मोती
कविता

बेशकीमती मोती

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** नहीं अब तो कदापि भी नहीं सौपूंगी तुझे उस मैले भावों में सीप से ढूंढ ढूंढकर निकाले हुए वो अनमोल बेशकीमती मोती क्योंकि नहीं है तेरे लोलुप से नज़रों में अतुलनीय मोती की पहचान लगा दोगे इक कीमत बिंदास और बेच दोगे बाजार भाव में क्योंकि जीवन बन चुका भौतिकवादी हर भाव में ढूँढते हो बस स्वार्थ अतृप्त रहते हो शायद हर वक्त मृगतृष्णा में पड़ने की है आदत क्योंकि कभी कर्मठ बन नहीं कमा पाते ना ही इच्छाओं से हो उबर पाते आइना देखने का वक्त भी नहीं है पर मोती की है अदम्य सी चाहत क्योंकि उंचाई पर पहुँच कर गरज लेते फिर उन सीढ़ियों को गिरा देते भूल जाते हो उन सबकी कीमत जिसने सौंपा आज तुझे वो राह इसलिए अब कर दूंगी साफ उस मोती को अपने इस बेदाग पाक आंचल से पुनः वापस बंद कर सहेज दूंगी मैं अनमोल मोती पुनः उस सीप में पर न लगने दूंगी तेरे ...
आरज़ू
कविता

आरज़ू

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म .प्र.) ******************** चुपचाप, भीगे भीगे से पल बहकने की कोशिश में भी सजते गये हैं राह में, और चाह ये कि सिलसिला आज़ाद नगमों, नज्मों का आबाद यूँ ही हुआ करे। आज, कल की फिक्र ना हो ज़िक्र अब बीते पलों का, आँधियों के बीच भी हर दीप रौशन हुआ करे। मातम, गमी सब दूर कर हो प्यार का मौसम कभी, आवाज़ मेरे दिल की थी कल और हमेशा रहेगी !! . परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ है। सम्प्रति - सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय ए...
बसंत चालीसा
चौपाई, छंद

बसंत चालीसा

प्रवीण त्रिपाठी नोएडा ******************** मधुमासी ऋतु परम सुहानी, बनी सकल ऋतुओं की रानी। ऊर्जित जड़-चेतन को करती, प्राण वायु तन-मन में भरती। कमल सरोवर सकल सुहाते, नव पल्लव तरुओं पर भाते। पीली सरसों ले अंगड़ाई, पीत बसन की शोभा छाई। वन-उपवन सब लगे चितेरे, बिंब करें मन मुदित घनेरे। आम्र मंजरी महुआ फूलें, निर्मल जल से पूरित कूलें। कोकिल छिप कर राग सुनाती, मोहक स्वरलहरी मन भाती। मद्धम सी गुंजन भँवरों की, करे तरंगित मन लहरों सी। पुष्प बाण श्री काम चलाते, मन को मद से मस्त कराते। यह बसंत सबके मन भाता, ऋतुओं का राजा कहलाता। फागुन माह सभी को भाता, उर उमंग अतिशय उपजाता। रंग भंग के मद मन छाये, एक नवल अनुभूति कराये। सुर्ख रंग के टेसू फूलें, नव तरंग में जनमन झूलें। नेह रंग से हृदय भिगोते, बीज प्रीति के मन में बोते। लाल, गुलाबी, नीले, पीले, हरे, केसरी रंग रँगीले। सराबोर होकर नर-नारी, ...
दस्तक
ग़ज़ल

दस्तक

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** अदब से रहने का ये सिला मिला पाक दामन पे किचड़ उछाल रहे हैं। क्या मैं इतना मशहूर हो गया हूं मुझे बदनाम कर अपना नाम कर रहे हैं। मुद्दई वो गवाह वो मुंसिफ भी वो मुल्ज़िम करार दे मुझे इंसाफ कर रहे है। किसे करेगा फरियाद नाइंसाफी की सभी हुक्मरान गहरी नींद सो रहे है। किसी से उम्मीद न कर इमदाद की सभी अपना अपना रंजोगम ढो रहे है। सितमगर हो सके तो बचाले अपना घर बद्दुआ ओ के साये तेरे दर पे दस्तक दे रहे है। . परिचय :- नाम : धैर्यशील येवले जन्म : ३१ अगस्त १९६३ शिक्षा : एम कॉम सेवासदन महाविद्याल बुरहानपुर म. प्र. से सम्प्रति : १९८७ बैच के सीधी भर्ती के पुलिस उप निरीक्षक वर्तमान में पुलिस निरीक्षक के पद पर पीटीसी इंदौर में पदस्थ। सम्मान - हिंदी रक्षक मंच इंदौर (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० सम्मान आप...
रचनाकार
कविता

रचनाकार

रशीद अहमद शेख 'रशीद' इंदौर म.प्र. ******************** अक्षर-साधक शब्दों का संसार बसाता रचनाकार! भावों और विचारों को साकार बनाता रचनाकार! दृष्टिकोण है उसका अपना! पूरा करता स्वर्णिम सपना! सृजन पूर्व अपनी रचना से, उसे बहुत पड़ता है तपना! अधिक समय तक नहीं सहन सकता है वह रचना-भार! भावों और विचारों को साकार बनाता रचनाकार! प्रातः-संध्या या दिन-रैन! सृजन बिना पाए न चैन! उर विशाल,व्यापक मस्तिष्क, सूक्ष्मदर्शी हैं उसके नैन! कथनों के वाहन से जग का भ्रमण कराता बारम्बार ! भावों और विचारों को साकार बनाता रचनाकार! श्रेष्ठ सृजन ही उसका कर्म! अभिव्यक्ति ही उसका धर्म श्रोता अथवा पाठक तक, प्रेषित करता अपना मर्म! अनुपम रचनाओं पर मोहित होता है सारा संसार ! भावों और विचारों को साकार बनाता रचनाकार! सुखद कल्पनाओं का स्वामी! कंटक पथ का वह अनुगामी! सतत व्याख्याक्रम चलता हैं, उसकी रचना बहुआयामी! अति संवेद...
दर्द
कविता

दर्द

मित्रा शर्मा महू - इंदौर ******************** तपती रेत में चलने की आदत सी हो गई, जिंदगी अनसुलझे सवालों से घिर गई। हमने भी देखे थे कभी हसीन सपने, भावना और जज्बातों को समझेंगे हमारे अपने। मगर क्या था कि कुदरत को कुछ और ही मंजूर था, नजारा दिखाना ही उसका दस्तूर था। जिंदगी मिलती है यहां पनाह नहीं मिलती, हर किसीको मुकम्मल जहां नहीं मिलती। दर्द के सैलाबों पे आंसूओं को पीते है, छलनी होता है दिल नस्तरों को चुभने से फिर भी हम जीते है। . परिचय :- मित्रा शर्मा - महू (मूल निवासी नेपाल) आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमेंhindirakshak17@gmail.comपर अणु डाक (मेल) कीजिये, अणु डाक करने के बाद हमे हम...
कलम बना तलवार
कविता

कलम बना तलवार

विनोद सिंह गुर्जर महू (इंदौर) ******************** कवि, कलम बना तलवार। जिनके मन में कलुषित तन में, पनप रहा व्यभिचार.. पहन तू नरमुंडो के हार..।। शासन चुप, शासक सोये हैं। सब अपनी धुन में खोये हैं। अंधा रेबड़ी बांट रहा है। बेहरा सबको डांट रहा है। संविधान के जयकारे हैँ। किंतु आज फिर हम हारे हैं।। अपराधों का बड़ता जाता अजब ही कारोबार।।.. पहन तू नरमुंडो के हार..।। पांडव की सेना घटती है। कौरव की सेना बढ़ती है । कान्हा, अर्जुन यहाँ कहाँ पर, दुशासन बैठे यहाँ घर-घर। भीष्म मूक, विधुर शांत है। भीम शोक में फिर क्लांत है।। द्रोपदी की लाज बचाने, कौन आये इस बार।।.. पहन तू नरमुंडो के हार..।। नरभक्षी और पिशाचों के कर्मों से अपराध बड़ा। क्या बोलूं क्या नाम दूं इसको, शोकग्रसित मन आज खड़ा। तोड़ कलम फेंकू क्या पथपर, और बंदूक उठा लूं हाथ। बोलो कवि क्या बागी होगे, दोगे कदम-कदम पर साथ।। बलात्कार करने वा...
जीवन के सपने
कविता

जीवन के सपने

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** सपनों से घिरी है हमारी जिंदगी औ जिंदगी के हर पड़ाव पे सपने रहते हैं उलझे हुए हमसब ताउम्र ख्वाब में इन्हें पूर्ण करने के सपने। कुछ पूरे होते कुछ रह जाते अधुरे हमारे ही विचारों से बुने हुए सपने कभी धागे में पिरो ओढ़ लेते सपने कभी जालियों में उलझे रहते सपने। कुछ आसमां को छू लेने के सपने काल्पनिक उड़ान से ओतप्रोत हो यथार्थ की धरातल को स्पर्श कर सागर की गहराई मापने के सपने। प्रेमातुर आलिंगनबद्ध होने के सपने अलौकिक उर्जा से परिपूर्ण स्व को कर्मपथ पर निर्बाध अग्रसित होकर कर्मयोगी बनने के अर्थयुक्त ये सपने। आध्यात्मिक दर्शन के पश्चात अंततः बस आराधक बनकर श्री हरि को अपनी स्तुति से मग्न होकर रिझाने और उनमें समाहित होने के सपने। मंदिर औ श्मशान के धूएं के रंग की तासीर के अंतर को आत्मसात कर अंततोगत्वा उस चरमोत्कर्षानंद के ख्वाब में डूबने उतरने के ये...
धुरंधर कविवर
कविता

धुरंधर कविवर

प्रिन्शु लोकेश तिवारी रीवा (म.प्र.) ******************** बड़े धुरंधर जन्में कविवर नित नया काव्य रच देते हैं। हिय से नहीं कहा करते वो मुख देख आज कह देते हैं। काव्य संग्रह में वो कविता करमट ले ले कहती हैं। कष्ट हो रहा हमें सखी औ तु कैसे ये सहती है। मृत्यु सामने खड़ी देख कर आज बिलखती है कविता। व्हॉट्सएप विद्यालय में खूब मचलती जो कविता। हे! कविता के सृजनकार क्यों मार रहे हो कविता को। स्वयं सुतो का वध करना शोभित है क्या मात-पिता को। चीख- चीख कर कहती है वो क्यों नया रूप देते हो कविवर। निज उत्साह अर्जित के लाने क्यों भन्जन करते मेरा सर। माना की शब्द नहीं तुलसी के ना भाव भरा है सूर के जैसे। पर ऐसी भी ना करो अपाहिज की पड़ी रहूं मैं घूर के जैसे। . परिचय :-  प्रिन्शु लोकेश तिवारी पिता - श्री कमलापति तिवारी स्थान- रीवा (म.प्र.) आप भी अपनी कविताएं,...
प्रीत का दुख
कविता

प्रीत का दुख

सरिता कटियार लखनऊ उत्तर प्रदेश ******************** प्रीत का दुख वो ही जाने जिसको प्रीत होय कड़वा जहर पीये फिर भी जान ना रवां होय फिरै जताते प्रीत की रीत ना जानै सोय रुसवाई का घूंट पिये प्रीत ना रुसवा होय प्रीत जिसम से ना नज़रों से प्रीति दिल से होय ज़िदा होकर ना मरै मरन पे जिंदा होय बंदिशों से ना जिये पहरा भी ना होय वही निभाये प्रीत जिसका रीत पे चलना होय पीड़ा दर्द वेदना का मिलता है अहसास वैद्य नही इस बीमारी का उपचार भी ना होय प्रेम गली है बहुत ही सांकरी कैसे चलना होय सरल नही है जग में मुश्किल जीना होय सरिता के प्रभु संत राजिंदर है ना कोई और जीभा से गुणगान करत दिल से मेरा होय . परिचय :-  सरिता कटियार  लखनऊ उत्तर प्रदेश आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानि...
प्यार कहीं खो सा गया है ….
कविता

प्यार कहीं खो सा गया है ….

हिमानी भट्ट इंदौर म.प्र. ******************** पहले शादी का सफर कुछ इस तरह रहता था .... ना कोई फोन का जरिया ना मिलना बस एक इंतजार और तड़प थी, और तड़प थी। खत का जरिया था संपर्क करने का उस लिखने के लिए को ना देखा जाता था अपने छोटे भाई बहनों से खींचने और लाने का काम किया जाता था उसके लिए उन्हें लालच दिया जाता था इंतजार में जो मजा था। उसे बयां नहीं किया जा सकता। जवाब आने पर डर रहता था कोई देख ना ले क्या बोलेगा इस लेटर को पढ़ने के लिए घर का कोना ढूंढा जाता था रिलेशनशिप प्यार की गहराई होती थी बड़ों के लिए माल होता था फिर आई ट्रंक कॉल की बारी थोड़ी छूट तो मिली बात करने में बहुत परेशानी होती थी आने के लिए आपस में टाइमिंग को सेट करना पड़ता था उससे बात करने का सिलसिला चालू हुआ वह भी क्या टाइम हुआ करता था बात करने के लिए पड़ोसी क्या कॉल किया जाता था और कट कर दिया जाता था कॉल अटेंड करने के लिए...