अश्रुबाँध
शरद सिंह "शरद"
लखनऊ
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जाने कब का बँधा अश्रुबाँध,
आज दरकने लगा है,
अश्रु सैलाव आज बढ़ने लगा है।
दिन का चैन नीद निशा की बहाने लगा है।
लाख रोका न आये सैलाब ऐसा,
पर हर बार सैलाब उमड़ने लगा है।
हारी नही थी अपनी बदहबासियो से,
भयावह भँबर मे नाव डगमगाने लगी है।
सहसा ही अदृश्य हाथ सम्मुख था मेरे,
कश्ती मेरी तट पर बढ़ने लगी है,
डुबाना न कश्ती कसम है तुम्हे अब,
अन्तिम समय तक न होना जुदा अब
कान्हा मेरे अब स्वयं मे समाना,
मन्जिल कठिन है पर आगे ही बढाना।
झेले बहुत दर्द हर गम को पिया है,
शायद न अब कुछ बाकी रहा है,
आकर के अब जो लगालो गले से,
सह जायेगे सब जो हमको मिला है।
सह जायेगे सब ......
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लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलन...