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गद्य

बदलता हुआ पहनावा और उसका समाज पर प्रभाव
आलेख

बदलता हुआ पहनावा और उसका समाज पर प्रभाव

डॉ. चंद्रा सायता इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** परिवर्तन प्रकृति का नियम है। संसकृति और सभ्यता भी इस प्रभाव से नहीं बच सकते। संसकृति का संबंध मानव हृदय से होता है।अत: इस पर परिवर्तन का प्रभाव अत्यंत धीमी गति से होता है। दूसरी और सभ्यता अर्थात मानव परिवेश के अ़तर्गत आनेवाली भौतिक वस्तुएं जैसे खाध पान, पक्षनावा, भवन चल सम्पति आदि।इन पर परिवर्तन का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है। आज के विमर्श का विषय "बदलता हुआ पहनावा और समाज पर उसका प्रभाव" पर चर्चा करना है। ऐसा बदलाव या परिवर्तन सभ्यता के बदलाव से संबद्ध है। पहनावा सभ्यता का अभिन्न अंग है।विचारणीय है कि कर्मेन्द्रियो़ द्वारा हम जो भी काम करते हैं वही सभ्यता है। पहनावा हमारी चक्षुओं को आकर्षित करता है। हम जहाँ नए फैशन के परिधान कहीं भी चाहे सिनेमा में ही क्यों न हों, तुरन्त उन परिथानों में स्वत: को काल्पनिक रूप से देखने लगते हैं।...
श्राद्ध या दिखावा
लघुकथा

श्राद्ध या दिखावा

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर म.प्र. ******************** मीनू ने रानू से कहा, रानू चलो बाजार चलते हैं। "क्यों? अरे! तुम्हें नहीं मालूम क्या? श्राद्ध पक्ष चल रहा है। ढेर सारी सब्जियां, मिठाइयां, फल, सूखे मेवे लाना है। और उपहार में देने के लिये कपड़ें बर्तन तथा सोने व चांदी के आभूषण भी तो लेना हो। भाई हम तो अपने सास-ससुर का श्राद्ध उत्सव के जैसा मनाते हैं। दो ढाई सौ लोगों को खाना खिलाते हैं, गरीबों को दान करते हैं। मंदिर में चढ़ावा देते हैं, तभी तो हमारे पूर्वज खुश होते हैं और हमें आशीर्वाद देते हैं। क्यों रानू हमने तो तुम्हें कभी सास-ससुर का श्राद्ध करते नहीं देखा? अरे भाई इतनी भी क्या कंजूसी है? अरे भाई इतना जो कुछ है आखिर उन्हीं का तो दिया हुआ है। रानू के मुंह से तपाक से निकल गया। भाभी मैंने अपने सास- ससुर को जीवित में ही तृप्त कर दिया था। इसलिए उनका आशीष तो सदा मेरे साथ है। रानू ने मन म...
शिक्षक दिवस : गुरु श्रद्धा एवं सम्मान का उत्सव
आलेख

शिक्षक दिवस : गुरु श्रद्धा एवं सम्मान का उत्सव

अशोक शर्मा प्रताप नगर, जयपुर ******************** गुरु शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है, ‘गु यानी अँधेरे से ‘रु यानी प्रकाश की ओर ले जाने वाला। प्राचीन काल की बात करें तो आरुणी से लेकर वरदराज और अर्जुन से लेकर कर्ण तक सबने गुरु की महिमा को समझा और उनका गुणगान किया है। गुरु शरण में जाकर ही भगवान राम भी पुरुषोत्तम कहलाए।एक बार अपने स्वागत भाषण में अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन कैनेडी ने कहा था, "अमेरिका की धरती पर एक भारतीय पगड़ीधारी स्वामी विवेकानंद तथा दूसरी बार डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के द्वारा अपने उदबोधन से भारतीयता की अमिट छाप जो अमेरिकावासियों के हृदयों पर अंकित हुई है, जो सदैव अमिट रहेगी।" निःसंदेह यह प्रत्येक भारतीय के लिये अपनी संस्कृति एवं महापुरुषों के प्रति गौरान्वित भाव-विह्वलता से परिपूर्ण श्रद्धा के भावों को अभिव्यक्त करने वाले क्षणों के रूप में रहे होंगे एवं अनंत काल तक रहेंगें ह...
मिस सीमा
कहानी

मिस सीमा

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ********************                                          प्रदीप, तुम क्या समझते हो? मैं सीमा की चाल नहीं समझ रही हूँ। आखिर बात क्या हैं नीना दीदी? खुलकर कहो जो कहना चाहती हो।पहेलियाँ क्यों बुझा रही हो? नहीं प्रदीप ये कोई पहेली नहीं है। ये पूरी तरह सत्य हैं। तुम्हारी मिस सीमा, आजकल मेरे लाड़ले अवि पर डोरे डाल रही हैं। ये आप क्या कह रहीं हो दीदी? क्या सबूत हैं तुम्हारे पास? तुम्हें भी सबूत चाहिए, जबकि तुम मिस सीमा के व्यक्तित्व के बारे में अच्छी तरह जानते हो। हाँ, जानता हूँ वह एक स्मार्ट औरत हैं, बेहद चालाक। वह अपनी नाक पर मक्खी तक नहीं बैठने देती। पर आजकल उसकी हालात ठीक नहीं है। वह कर्ज में डूबी हुई हैं। यही तो मैं तुम्हें बताने का प्रयास कर रही हूँ। वह हमारे अवि,पर अपने रूप का जादू बिखेर रही हैं। वह अच्छी तरह जानती है कि वह करोड़ो का मालिक है। वह इसी क...
१००८ कोरोनानंद जी महाराज
व्यंग्य

१००८ कोरोनानंद जी महाराज

सुधीर श्रीवास्तव बड़गाँव, जिला-गोण्डा, (उ.प्र.) ******************** नमस्कार दोस्तों, सबसे पहले शुभकामनाओं की एक खेप स्वीकार कर लीजिए। ज्यादा उलझने की जरूरत नहीं है कि शुभकामनाऔं का ये झोंका आखिर किस पुण्य प्रताप के फलस्वरूप आप को दुर्भाग्यवश अरे नहीं-नहीं भाई सौभाग्य का पारितोषिक प्रसाद स्वरूप आपको सुशोभित हो रहा है। कुछ समझ में आया हो तो बता ही डालिए, ताकि शुभकामनाओं का एक और गुच्छा मैं आपकी ओर अबिलम्ब उछाल दूँ। नहीं समझ में आया तो भी कोई बात नहीं है, निराश होने की जरूरत नहीं है आपको फ्री में एक शुभकामना दे ही देता हूँ। हाँ तो बात शुभकामनाओं की चल रही थी। सबसे पहले मैं आपको शुभकामनाओं के साथ बता दूँ कि मेरी शुभकामनाएं एकदम नये किस्म की हैं जिसमें दिल का कोई कनेक्शन ही नहीं है। आजकल शुभकामनाओं का रोग बेहिसाब बढ़ गया है, इतना बढ़ गया है बेचारा कोरोना भी खौफ में है। यही नहीं गुस्से में भ...
यादों की गठरी
लघुकथा

यादों की गठरी

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ********************                मां, बेटे को मिल रही सफलता पर फूली नही समा रही थी। उसका मन बेटे को दुआएँ दे रहा था। वह बेटे को चूम लेना चाहती थी। पर सम्भव नही था। वह माँ से कोसो दूर बैठा था। कितने साल हो गए थे। उसे गाँव से गए। माँ के चेहरे की झुर्रियाँ लगातार बढ़ती ही जा रही थीं। आँखों की ज्योति भी धीमी पड़ रही थी। पर माँ का उत्साह कम होने का नाम नहीं ले रहा था। वह जब भी उदास होती। अतीत की यादों में खो जाती।उसे आज भी याद हैं जब गाँव के स्कूल मास्टर ने साफ कह दिया था। तेरा लला पढ़ नही सकता, इसका दिमाग बहुत कम है। क्यों अपने पैसे खराब कर रही हो? तुमने क्या सोच कर इसका नाम ज्ञान रखा है। ये तो पूरी तरह अज्ञानी है। कितना मन दुःखा था उस दिन। उसने बहुत मिन्नतें की थी, मास्टर सहाब से। आपका ही बच्चा है, दया कीजिए। शुरू-शुरू में तो वह बिल्कुल नहीं माने थे। ज्ञान स...
अनोखा बंधन
कहानी

अनोखा बंधन

डॉ. सर्वेश व्यास इंदौर (मध्य प्रदेश) ********************** प्रस्तावना:- व्यक्ति अपने सामाजिक जीवन में कई लोगों से मिलता है, जुुुड़ता है, बिछड़ता है, लेकिन इस भीड़ मेे कुछ लोगों से ऐसे मिलता है और जुुुड़ता है, जैसे जनम-जनम का साथ हो। सामने वाला कब, कहाँ और कैसे उसके इतने निकट आ जाता है कि कुछ पता ही नहीं चलता। कोई कहता है, कि यह पूर्व जन्म का अधूरा कर्ज है, जो मनुष्य इस जनम में पूरा करता है और कोई कहता है कि कुछ रिश्ते और कुछ फर्ज पूर्वजन्म मे अधूरे रह जाते हैं, उन रिश्तो का प्रभाव इतना गहरा होता है, कि मानव को उन रिश्तो की पूर्णता एवं उस फर्ज की प्रतिपूर्ति हेतु इस जन्म में आना पड़ता है। प्रकृति उन्हें मिलाती है, वे उन रिश्तो से भागने की कितनी भी कोशिश क्यों न करे, पर प्रकृति किसी न किसी बहाने उन्हें बार-बार सामने खड़ा कर देती है। हालांकि व्यक्ति इन रिश्तो को कभी परिभाषित नहीं कर पाता है लेक...
विकृती को मान्यता
आलेख

विकृती को मान्यता

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** बीते अनेक वर्षों मे, फिल्मों में दुर्जन खलनायकों को महिमामंडित करते बाजारवाद का योजनाबद्द षड्यंत्र हम देखते आ रहें हैं। इसमें सद्गुणी, सज्जन नायक कहीं तो भी पीछे पड़ता गया। आगे चल कर नायक में ही खलनायक की विशिष्टता (दुर्गुण) की भी बाजार को जरुरत महसूस होने लगी। इसी तरह आज वर्तमान में समाज में भी नायक और खलनायक में अंतर करना कठिन हो गया हैं। अच्छाई और बुराई में आज इतना साम्य हो गया हैं कि उनमें भेद करना कोई जरुरी नहीं समझता। नैतिकता और अनैतिकता के सारे मापदंड ही ध्वस्त हो चुके हैं। समाज के लिए भी अहितकर बातें समाज के ध्यान में ही नहीं आती। उसका एक महत्वपूर्ण कारण यह हैं कि समाज ने विकृती को जीवन का अभिन्न अंग समझ लिया हैं और उसे स्वीकार भी कर लिया हैंI यह भले हीं विडम्बना लगे परन्तु आज का कटु सत्य यहीं हैंI ‘सब चलता हैं,’ हमें क्या करना?’,’ह...
रिश्ते का लिहाज़
लघुकथा

रिश्ते का लिहाज़

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ********************                   लंबे समयांतराल बाद जिला कलेक्टर के आदेशानुसार लाकडाउन में थोड़ी छूट दी गई। ज्यादातर लोग घरों से निकल कर बाजार की तरफ चल पड़े थे, दैनिक जीवन से जुड़ी आवश्यक सामग्री की खरीदी करने के लिए। बालकनी में बैठे-बैठे मैं लोगों को बाजार आते-जाते देख रहा था, इच्छा हुई कि बाजार घूम आता हूँ। मैं भी घर से निकल पड़ा बाजार की तरफ। बाजार पहुंचकर मैं समैय्या के होटल में एक कप चाय बोलकर चाय आने का इंतजार कर रहा था, तभी मेरी नज़र पड़ी होटल में एक कोने में बैठे तीन लोगों पर, जो कि एक ही स्टूल पर बैठे थे, जिनमें एक व्यक्ति ठीक बीच में बैठे थे, और शराब की बोतल से शराब गिलास में डालकर क्रमश: पहले और फिर दूसरे व्यक्ति को बारी-बारी से दे रहे थे।जब पहले व्यक्ति शराब पी रहे होते तो दूसरे सज्जन दूसरी तरफ नज़र घुमा लेते थे और जब दूसरे सज्जन शर...
सास का स्नेह
लघुकथा

सास का स्नेह

सुभाषिनी जोशी 'सुलभ' इन्दौर (मध्यप्रदेश) ********************                      डाक्टर श्वेता जच्चा वार्ड में राउण्ड पर थी। वहाँ पर एक ऐसी ग्रामीण महिला को बच्ची हुई थी, जिसे बच्चे नहीं होने के कारण उसके पति ने दूसरी शादी कर ली थी। पति की दूसरी शादी के नौ महिने के अन्दर ही उस महिला को बच्ची हो गई। डाक्टर श्वेता जब वहाँ पहुँची तब दादी बच्ची को गोद में लेकर कह रही थी "पगली पहले ही आ जाती तो तेरी दूसरी माँ न आती"। परिचय :- सुभाषिनी जोशी 'सुलभ' जन्म तिथि : ०३/०४/१९६४ शिक्षा : बी. एस. सी; एम.ए.(अँग्रेजी साहित्य), बी. एड. सम्प्रति : शास. शाला में शिक्षिका ! साहित्यिक गतिविधि : गद्य एवं पद्म लेखन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में १०० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित, विभिन्न मंचो से २० से अधिक सम्मान, १२ से अधिक आनलाइन काव्य पाठ घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है...
मैं यमराज हू्ँ
कहानी

मैं यमराज हू्ँ

सुधीर श्रीवास्तव बड़गाँव, जिला-गोण्डा, (उ.प्र.) ********************                      देर रात तक पढ़ने के कारण बिस्तर पर लेटते ही नींद आ गई। पढ़ाई के लिए मैनें शहर में एक कमरा किराए पर ले रखा था। मकान मालिक, उनकी पत्नी और मैं कुल जमा तीन प्राणी ही उस मकान में थे। मकान मालिक पापा के परिचित थे, इसलिए मुझे रहने को कमरा दे दिया वरना इतना बड़ा मकान और रहने को मात्र दो प्राणी, मगर शायद किसी अनहोनी के डर से किसी को किराए पर रखने के बारे में नहीं सोचते रहे होंगे। खैर.........। मैं कब बिस्तर पर आया और कब सो गया, कुछ पता ही न चला। तभी किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। मुझे लग भी रहा था पर मुझे लगा कि शायद ये मेरा भ्रम है। लेकिन जब रूक रूक कर लगातार दस्तक होती रही तो न चाहते हुए भी मै उठा और दरवाजा खोला तो सामने जिस व्यक्ति को देखा, उसे मैं जानता नहीं था। मैनें उससे पूछा कि आप कौन है? उसनें शालीनता स...
गंगासागर
कहानी

गंगासागर

मंजिरी पुणताम्बेकर बडौदा (गुजरात) ********************                          मैं ऑफिस से अपना काम खतम कर निकली वैसे ही रामसिंग जो हमारा प्यून था दौड़ कर आया और बोला कि आपको साहब बुला रहें हैं। बॉस के केबिन में जाते ही बॉस ने मेरे हाथ में कोलकता का हवाई टिकट पकड़ाया और कहा कि "आपको कोलकता ऑफिस में दो दिन के असाइनमेंट पर जाना है। कम्प्यूटर्स सारे ख़राब है तो प्रेज़ेंटेशन के लिये आपको वहाँ जाकर कैसे भी कर मेन प्रोग्राम को ठीक करना है।" मेरा तो जी जल गया क्यूंकि दो दिन के बाद उत्तरायण जो था। बहोत सारे प्रोग्राम बनाये थे कि तिल के लड्डू बनाउंगी, पतंग उड़ाएंगे और मौज करेंगे। और आज बॉस ने ये हवाई टिकट पकड़ाकर सारे प्रोगाम पर पानी फेर दिया। अब मैंने दूसरे दिन कोलकता पहुँच कर दिन भर काम किया और घड़ी में देखा तो शाम के सात बजे थे। फिर दिल बोल उठा कि काश मैं गुजरात में होती। केबिन से बाहर आई तो देखा कि...
सावित्री महल
कहानी

सावित्री महल

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ******************** सात साल से वह उसकी बाट जोह रही थी। अब तो उसकी आँखो से आँसू भी आने बन्द हो गए थे। बस उदासी ही उसके साथ रह गई थी। वह आस-पड़ोस में भी बहुत कम जाती थी। उसकी हालत दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही थी। अपने गुजारे लायक थोड़ा बहुत कमा लेती थी। घर में नाममात्र का सामान रह गया था। सब कुछ धीरे-धीरे बिक चुका था। पर पति महेश का कुछ भी पता नहीं चल सका था। घर पूरी तरह खँडहर में बदलता जा रहा था। यह वही घर था जिसमें वह हजारों सपनें लेकर आई थी। महेश ने भी उसका साथ निभाने की कसमें खाई थी।कितने खुश थे वो दोनों अपनी छोटी सी गृहस्थी में? उसके अधिक सपनें नहीं थे। वह तो सिर्फ पति का साथ चाहती थी। वह आज भी उस मनहूस दिन को कोसती थी। जब उसने मजाक ही महेश से महल बनवाने की बात कह दी थी। उसने यही कहा था कि तुम मुझें कितना प्यार करते हों? बहुत प्यार, तुम बताओ। तुम्हें म...
विद्वता वाग्मिता एवं विनम्रता की त्रिवेणी : साहित्यकार आचार्य श्यामनंदन शास्त्री
आलेख

विद्वता वाग्मिता एवं विनम्रता की त्रिवेणी : साहित्यकार आचार्य श्यामनंदन शास्त्री

डॉ. पंकजवासिनी पटना (बिहार) ******************** विद्या ददाति विनयम् की साक्षात् साकार प्रतिमा, सर्जक मेधा एवं साहित्य- साधना के प्रतीक! हिंदी, संस्कृत एवं मगही के अधीती विद्वान, अप्रतिम ज्ञानगर्भित-शिष्यवत्सल प्राध्यापक, काव्यशास्त्र के प्रकांड विद्वान, गंभीर चिंतक, प्रखर वक्ता, सिद्धहस्त लेखक, उत्कृष्ट कवि, लघुकथा के पुरोधा तथा जरूरतमंदों के सहारा, एक सच्चे समाजसेवी एवं प्रगतिशील व्यक्तित्व के धनी मानवता के पैरोकार आचार्य श्यामनंदन शास्त्री अपने कर्म-वाणी-लेखनी और आचार-विचार-व्यवहार से स्वयं को आजीवन मांँ सरस्वती के सच्चे उपासक पुत्र सिद्ध करते रहे। अपने जीवन के अंतिम दिन (यानी प्रयाण-दिवस २५ अगस्त, २००४) तक इस सरस्वती-साधक ने १२ घंटों के प्रतिदिन के स्वाध्याय एवं लेखन के अकाट्य नियम में कोई परिवर्तन नहीं किया!! किशोरावस्था तक ही किशोर वय श्यामनंदन के स्वाध्याय का यह आलम था कि इनके पिता...
पगली
लघुकथा

पगली

माधवी मिश्रा (वली) लखनऊ ******************** मैने उसे स्कूटर पर बैठाया और मुर्गीफार्म का पता पूछते परसुराम मन्दिर पहुच गयी। ये वही जगह थी जहाँ से मै उसे लेकर घर गयी थी। वापस लाते हुए उसकी मूक व्यथा का अनुमान लगाना एक भयावह कल्पना सी लगी वह नही जाना चाह्ती थी मेरा घर छोड़ किन्तु एक क्रूर निर्मम सामाजिक संरचना की अंग होने के कारण मुझे ये अपराध करना ही पडा। कुछ देर तक तो मुझे स्वयं पर ग्लानि की अनुभूति होती रही। सोचती रही की मै उसे ले ही क्यो गयी जब रख पाना कठिन था किन्तु ऐसा नहीं जब मैं अकेले इतने बड़े-बड़े निर्णय लेती हूँ तो ये निर्णय भी किसी के आदेश से थोड़े ही लेना था अतह ले गयी। एक गरीब दुखी भूखी प्यासी माँ के अंदर की चीत्कार ने मुझे हिला के रख दिया था। मैं सोचती गयी, सोचती गयी, पण्डित जी से मैने मन्दिर पर दुर्गा नवमी का हवन कराने के बाद किसी घरेलू नौकरानी दिलाए जाने की बात को कहा...
आखिर क्यों…
लघुकथा

आखिर क्यों…

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** उड़ चली दूर बहुत दूर सपनो के झूले मे, बैठी सूरज की किरनो पर सैर करती, मंद हवा के झोको सी बहती, तितली सी मडराती, ऑखो मे हजारो बसे सपनो को साकार करती, किसी के कोमल स्पर्श को महसूस करती, अपने हर सबाल का सकारात्मक उत्तर पाती, अपने नसीब पर इतराती लहराती बलखाती चलती चली गई, चलती चली गई वह मोहक अहसास एक चुम्बक सा कदमो को जबरन खीचता चला गया, बढ़ते गये कदम। कि अचानक कदम ठिठक गये टकरा गये किसी पत्थर से ..... कहां? कहां है वह स्वप्न संसार? मै तो वही की वही थी, टूटी बिखरी हताश, ओह! तो यह स्वप्न था? पर क्यो? मैने अपने हाथो की लकीरों को ध्यान से देखा वह बदली नहीं थी, फिर यह स्वप्न कैसा?.. फिर? फिर भ्रम, भ्रम था यह सब? ओह रब! क्यो तोड़ता है इतना, क्यो देता है इतनी चुभन? क्या इतना तोड़कर भी तेरा मन नही भरता? या मुझ जैसा कोई और नही मिलता जो बार-बार बहारो का...
असली भगवान है सिर्फ़ “मां”
आलेख

असली भगवान है सिर्फ़ “मां”

शिवांकित तिवारी "शिवा" सतना मध्य प्रदेश ********************              इस सृष्टि की रचना करने के कारण हम सभी ईश्वर को सबसे बड़ा रचनाकार मानते है। उसी तरह मां भी इस धरा पर शिशु को नौ माह तक अपनी कोख में रख अथक पीड़ा सहन करने के उपरांत जन्म देती है अर्थात् शिशु की रचना करती है। इस प्रकार ईश्वर के कृत्य को आगे बढ़ाने में उसकी पूर्णतः सहभागिता होती है। इसीलिए मां को धरती पर ईश्वर का रूप कहते है। मां की कोख में रहने पर शिशु की पूरी संरचना होती ही है एवं जन्म के पश्चात भी मां उसकी ऐसी परवरिश करती है कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो जाये और अपने जीवन में सफलता हासिल करें। इस तरह मां सिर्फ जन्मदात्री ही नहीं अपितु उसकी पालनकर्ता भी है। मां के बिना संतान का जीवन पूर्णतया अधूरा, सूना और रुका हुआ होता है। वास्तविकता में मां हर किसी के जीवन में विशेष महत्व रखती है, इस एहसाह को शब्दों में बयां नहीं किय...
लाॅकडाउन का संयुक्त परिवार
लघुकथा

लाॅकडाउन का संयुक्त परिवार

जितेंद्र शिवहरे महू, इंदौर ********************                   सुनैना अभी-अभी छाछ की हाण्डी रखने आयी थी। तीनों भाभीयां ने सुनैना को देख लिया। उसे रोककर वे तीनों उससे बातें करने लगी। तीनों भाभीयां चूपके से अनिल को शरारात भरी आंखों से देख रही थी। अनिल शरमा के यहाँ-वहां हो जाता। सौमती का पुरा परिवार आज उसके साथ था। लाॅकडाउन चल रहा था। दोनों बेटे अपने परिवार सहित विधवा मां सौमती के यहां पैतृक गांव आये थे। उन दोनों बेटों के चार बेटे और तीन बेटों की पत्नीयां तथा इन तीन जोड़ों के कुल पांच बच्चों से सौमती का सुना घर खुशियों से भर उठा था। सौमती का छोटा बेटा रामचंद्र अपनी मां के साथ ही था। उसकी पांच बेटीयां थी। सौमती के मंझले बेटे दयाराम का पुत्र अनिल विवाह योग्य हो चला था। सौमती ने उसी गांव की सुनैना की बात अनिल के लिए चलाई थी। मगर दयाराम अपने पढ़े-लिखे अनिल के लिए वैसी ही बहु चाहते थे ताकी सम...
गरीब की बेटी
लघुकथा

गरीब की बेटी

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** मालूम है!", रामदीन कास्टेबल को एस. पी साहब ने पाँच सौ रुपए का नगद ईनाम दिया"। क्यों भला? रातों रात नेताजी की भैंस ढ़ूँढ दी।" "ये तो भैय्या सच में बड़ी बात हुई। पर उसने उनकी भैंस पहचानी कैसे? सभी तो एक समान दिखती हैं, कोई निशान विशान था क्या? "चुप कर,! खबर, बताकर गलती की, कोई सुन लेगा तो नौकरी गई पक्की" ननकू बड़ा हैरान परेशान है, कभी किसी साहब का कुत्ते खो गया, तो किसी की गाय, सब ढूँढ़ निकालते हैं पुलिस वाले, गरीब की बेटी तो जानवरों से भी बदतर है, तभी तो, मेरी बिटिया गायब हो गई, पर रिपोर्ट भी लिखने को तैयार नहीं हुई पुलिस....। परिचय :-  श्रीमती मनोरमा पंत सेवानिवृत : शिक्षिका, केन्द्रीय विद्यालय भोपाल निवासी : महू जिला इंदौर सदस्या : लेखिका संघ भोपाल जागरण, कर्मवीर, तथा अक्षरा में प्रकाशित लघुकथा, लेख तथा कविताऐ उद्घोषणा : यह...
चमकदार
लघुकथा

चमकदार

राकेश कुमार तगाला पानीपत (हरियाणा) ******************** घर का माहौल काफी गमगीन था। सभी नीमी को बार-बार समझा रहे थे कि वो अपना निर्णय बदल दे। पर वह मानने को तैयार नहीं थी।परिवार के सभी लोग हार चुके थे। वह अपने फैसले पर अडिग थी। माँ कह रही थी, पता नहीं सोनू ने मेरी बेटी को क्या घोल कर पिला दिया है? अब सिर्फ पापा ही कुछ कर सकते हैं, यह उनकी बात कभी नहीं टाल सकती। पापा इसे सबसे ज्यादा लाड़ करते हैं। अगर इसने सोनू से शादी कर ली तो पूरे परिवार की नाक कट जाएगी। पापा सारी घटना को जान कर भी कैसे अनजान रह सकते हैं, भाई चिल्ला उठा? मम्मी मैं पापा से खुलकर बात करूँगा, आखिर उनके मन में क्या चल रहा है? उन्हें पूरा हक है कि वह नीमी को रोक दे। वरना अनर्थ हो जाएगा। क्या हमारी बिरादरी में अच्छे लड़के खत्म हो गए हैं? क्या सोनू ही अकेला कामयाब लड़का रह गया है? मुझें समझ नहीं आता, यह लड़की मान क्यों नहीं रही है? न...
घर एक मन्दिर ही है
आलेख

घर एक मन्दिर ही है

राजकुमार अरोड़ा 'गाइड' बहादुरगढ़ (हरियाणा) ********************                   यह बात निस्संदेह नितान्त सत्य ही है कि घर एक मन्दिर की तरह है। मन्दिर में जाते ही प्रभु से समीपता का एहसास होता है, ऐसे ही घर में जहाँ परस्पर प्यार,लगाव, आकर्षण है, जाते ही अपनेपन का एहसास हिलोरें लेना लगता है, घर की देहरी में आते ही सारी थकान दूर हो जाती है तो यह मंदिर ही जैसा लगता है,नहीं तो मकान ही है, ईंट सीमेंट से बना, जहां एक दूसरे से विमुख कुछ प्राणी बस किसी तरह रहते हैं। पति-पत्नी दोनों या सिर्फ पति की नौकरी,बच्चों के स्कूल,टयूशन व शाम को ऑफिस से लेट आना, फिर घर रसोई के काम, बच्चों से पढ़ाई व अन्य जानकारी लेना अगले दिन फिर वही रूटीन, जिंदगी यूं ही बीतती जाये तो मशीन से क्या अलग है,एकाएक इस महामारी के कारण हुए लॉकडाउन या अब कुछ अनलॉक के कारण जीवनधारा तो बिल्कुल ही बदल ही गई, पहले कहते थे,मरने की फुर्सत न...
उपहार
कहानी

उपहार

सुधीर श्रीवास्तव बड़गाँव, जिला-गोण्डा, (उ.प्र.) ********************      आज रक्षाबंधन का त्योहार था। मेरी कोई बहन तो थी नहीं जो मुझे (श्रीश) कुछ भी उत्साह होता। न ही मुझे किसी की प्रतीक्षा में बेचैन होने की जरुरत ही थी और नहीं किसी के घर जाकर कलाई सजवाने की व्याकुलता। सुबह सुबह ही माँ को बोलकर कि एकाध घंटे में लौट आऊंगा। माँ को पता था कि मैं यूँ ही फालतू घर से बाहर नहीं जाता था। इसलिए अपनी आदत के विपरीत उसनें कुछ न तो कुछ कहा और न ही कुछ पूछा। उसे पता था कि मेरा ठिकाना घर से थोड़ी ही दूर माता का मंदिर ही होगा। जहाँ हर साल की तरह मेरा रक्षाबंधन का दिन कटता था। मैं घर से निकलकर मंदिर के पास पहुँचने ही वाला था सामने से आ रही एक युवा लड़की स्कूटी समेत गिर पड़ी, मैं जल्दी से उसके पास पहुंचा, तब तक कुछ और भी लोग पहुंच गये। उनमें से एक ने स्कूटी उठाकर किनारे किया। फिर एक अन्य व्यक्ति की सहायता...
डॉं. मसानिया कृत शोध नवाचार शिक्षा जगत के लिये उपयोगी
पुस्तक समीक्षा

डॉं. मसानिया कृत शोध नवाचार शिक्षा जगत के लिये उपयोगी

                                 आगर मालवा के शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय आगर के व्याख्याता डॉ. दशरथ मसानिया साहित्य के क्षेत्र में अनेक उपलब्धियां दर्ज हैं। २० से अधिक पुस्तके, ५० से अधिक नवाचार है। इन्हीं उपलब्धियों के आधार पर उन्हें मध्यप्रदेश शासन तथा देश के कई राज्यों ने पुरस्कृत भी किया है। डॉं मसानिया विगत १० वर्षों से हिंदी गायन की विशेष विधा जो दोहा चौपाई पर आधारित है, चालीसा लेखन में लगे हैं। इन चालिसाओं को अध्ययन की सुविधा के लिए शैक्षणिक, धार्मिक महापुरुष, महिला सशक्तिकरण आदि भागों में बांटा जा सकता है उन्होंने अपने १० वर्ष की यात्रा में शानदार ५० से अधिक चालीसा लिखकर एक रिकॉर्ड बनाया है। इनका प्रथम अंग्रेजी चालीसा दीपावली के दिन सन २०१० में प्रकाशित हुआ तथा ५० वां चालीसा रक्षाबंधन के दिन ३ अगस्त २०२० को सूर्यकांत निराला चालीसा प्रकाशित हुआ। रक्षाबंधन के मंगल पर्व पर डॉ दशर...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : अंतिम भाग- ३१
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : अंतिम भाग- ३१

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** उस दिन स्कूल में सोनू को मैने बडी शान से कहां, 'आज मैने राम मंदिर में पूजा की।' 'क्यों? उस घर के सब बडे कहां गए?' सोनू ने पूछा। सोनू को भी पता था कि वह घर मेरा नही है।' कितने सारे तो भगवान है वहां मंदिर में? तुमने कैसे की होगी पूजा?' सोनू ने मुझसे पूछा। 'माई बताती गयी और मै करते गया।' 'वो बुढीया तो बहुत ही खूंसट है। तू अनाथ उस घर में आश्रित है। तेरे उपर तो बहुत चिल्लायी होगी? है कि नही?' सोनू के बोलने का तरीका ऐसे ही था और वो बातों-बातों में हमेशा मेरी हालात का मुझे एहसास भी करा ही देता था। 'नहीं ज्यादा नहीं चिल्लायी मेरे उपर।' 'ठीक है।मै तेरी जगह होता तो उस खूंसट की एक भी नहीं सुनता।' 'तूने नहीं की कभी तेरे घर में भगवान की पूजा?'मैने सोनू से पूछा। 'अरे हाट! अपने को नहीं कहता कोई ऐसे फालतू काम। इन्ना ही करती है सब कुछ। मेरे को तो सिर्फ खा...
कुलक्षणी औरत
लघुकथा

कुलक्षणी औरत

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ******************** मैं जब भी गाँव जाता तो देखता कि रामदास की घरवाली गृहस्थी के काम में हर पल उलझी ही रहती! बेचारी को पल भर की फुर्सत नहीं थी घर के काम से, शान-शौक तो जैसे सब कब के छूट चुके थे! सिर पर जिम्मेदारी का बोझ था, देखने में लगता जैसे बीमार हो बेचारी! वहीं दूसरी ओर उसका पति रामदास निहायत निठल्ला, कामचोर, पत्तियाँ खेलते हुए समय बेकार करता रहता था! घर की स्थिति बेहद नाजुक थी!गरीबी तो मानो छप्पर पर चढ़कर चिल्ला रही थी कि उसका हमेशा से शुभ स्थान रामदास का घर ही रहा है! इस बार मैं चार महीने से गाँव नही जा पाया था, लेकिन चार महीने बाद में जब गाँव गया तो देखा कि रामदास का तीन कमरे का पक्का मकान बना हुआ था! रामदास ने एक आटो भी खरीद ली थी! सब कुछ बहुत अच्छा हो गया था! मैं ने रामदास से पूछा कि इतना परिवर्तन अचानक कैसे हुआ? और तुम्हारी घर वाली नही दिख र...