वस्त्र पराली के
भीमराव झरबड़े 'जीवन'
बैतूल (मध्य प्रदेश)
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धूम-धाम से घर में आये,
दिन खुशहाली के।
कृषक आग में झोंक रहा पर,
वस्त्र पराली के।।
थिरक रही कोने-कोने में,
खुशियाँ मणिकांचन।
श्रम-जादूगर ने बरसाया,
खेतों में शुभ धन।।
तपते दिन पर विहँस रहे,
गुलमोहर डाली के।।
कृषक आग में झोंक रहा पर,
वस्त्र पराली के।।
दूल्हा बनकर चैता आया,
बैसाखी के घर।
गूँज रहे मंगलाचरण अब,
पाखी के दर-दर।।
दमके मुखड़े लगते ज्यों हो,
दीप दिवाली के।।
कृषक आग में झोंक रहा पर,
वस्त्र पराली के।।
थर्मामीटर लेकर सूरज,
नाप रहा पारा।
फाँस रहा ले लू का फंदा,
आतप हत्यारा।।
गायब दरिया के अधरों से,
लक्षण लाली के।।
कृषक आग में झोंक रहा पर,
वस्त्र पराली के।।
तकनीकों ने उत्पादन को,
बुस्टर डोज दिया।
मगर लोभ ने जड़ के ऊपर,
घातक वार किया।।
मँडराती अब मौत स्वयं घर,
आ रखवाली के।।
कृषक आग में झोंक ...