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लघुकथा

आखिरी सफर
लघुकथा

आखिरी सफर

केशी गुप्ता (दिल्ली) ********************** मंजुला के पार्थिव शरीर को देखकर कोई कह नहीं सकता कितना संघर्ष से भरा जीवन रहा होगा उसका। चेहरे पर वही सौम्यता और शांति थी। किरण टकटकी लगाए मंजुला के बेजान शरीर को देख रही थी। आंखों से रिमझिम रिमझिम बरस रही थी। अतीत की यादें आ जा रही थी। मंजुला और किरण बचपन की सहेलियां थी। जीवन के उतार-चढ़ाव सुख-दुख की भागीदार। एक दूसरे की सीक्रेट डायरी जैसी। जिसमें इंसान अपने अंदर के सब विचार खोल देता है। आज मंजुला का अंतिम सफर था किरण को अकेला महसूस हो रहा था। अब किससे वह अपने दिल की बात कह पाएगी। कुछ देर में मंजुला का शरीर भी नहीं रहेगा। आने जाने वाले सभी लोग मंजुला के जीवन पर चर्चा कर रहे थे। बेहद शांत मधुर सादगी वाली थी मंजुला। हर हाल में खुश रहने वाली ईश्वर पर भरोसा करने वाली इस तरह की कई बातें रिश्तेदार और अन्य आने जाने वाले कर रहे थे। किरण ही जानती थी कि ...
खूबसूरत चेहरे
लघुकथा

खूबसूरत चेहरे

श्रीमती मीना गोदरे 'अवनि' इंदौर म. प्र. ******************** मूवी देखकर लौट रही दिव्या ने अपना टू-व्हीलर स्टार्ट करने के पहले दुपट्टे से मुंह इस तरह लपेटा कि बस उसकी आंखें ही शेष बची थीं उस पर गागिल चढ़ा लिया। मनीषा पीछे की सीट पर बैठते हुए बोली तुम भी यार... क्योंं पडी रहती हो इस झंझट में, मुझे देखो मैं तो कभी चेहरा नहीं ढ़क सकती, फिर भी क्या तुम्हें मेरे चेहरे की चमक कम दिखती है? "अभी अभी तू छपाक देखकर लौट रही है फिर भी ऐसे सवाल करती है" "मुझे किसी का डर नहीं न ही मैंने कोई ग़लत काम किया है" पर चेहरा तो खूबसूरत है, कहते हुए दिव्या ने गाड़ी बढ़ा दी। ओह..... तभी मै सोचूं खूबसूरत चेहरे आजकल दिखाई क्यों नहीं देते। . परिचय :- नाम - श्रीमती मीना गोदरे 'अवनि' शिक्षा - एम.ए.अर्थशास्त्र, डिप्लोमा इन संस्कृत, एन सी सी कैडेट कोर सागर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय दार्शनिक शिक्षा - जैन दर्श...
सीख
लघुकथा

सीख

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** हर समय उलाहनों की बारिश करती रहती थी सासू मां। 'हमारे समय में बहुत सख्ती थी, अब देखो निर्लज्लता से घूमती है बहुएं'! हर समय अपनी बराबरी बहुओं से करते रहना। रामलाल जी परेशान थे, अपनी पत्नी की आदतों को। कभी स्वयं ससुराल में नहीं रही वह। रामलाल जी के बचपन में ही उनकी माता का देहांत हो गया था। बड़ी बहन और ननिहाल वालों ने शिक्षा दी, बड़ा किया। शादी के बाद पिता गांव में ही रहे और अपनी नवोढ़ा को लेकर रामलाल जी दूसरे शहर चले गये। बच्चों की पढ़ाई नौकरी मे तबादला इसके कारण कभी कभी पिता के पास बच्चों को ले जाते फिर अकेले रह जाते पिता। गांव में अकेले रहते थे। लोग कहते चले जाओ बहू के पास लेकिन अनुभवी आंख एक बार में ही अपनी बहू को जान गई थी। वह अपने बेटे को दुखी नहीं देख सकते थे। रामलाल जी की किस्मत अच्छी थी। चार बहूएं गुणी पढ़ी लिखी। सम्म...
रौनक
लघुकथा

रौनक

कुमुद दुबे इंदौर म.प्र. ******************** आँफिस से लौटे साठे जी, घर मे कदम रखते ही पत्नी शोभा से बोले शोभा ! मैं कुछ दिनों से देख रहा हूॅ अपनी कालोनी के अतुल जी के यहाँ, जहाँ हमेशा सन्नाटा छाया रहता था, आजकल रौनक बनी हुयी है। देर रात तक घर की लाईटें जलती रहती हैं और लोगों का आना जाना भी लगा रहता है। क्या बात है? शोभा बोली! मैने उनकी पडोसन माला से पूछा था, वह बता रही थी-अतुल जी के माता पिता साथ ही रहते थे। दम्पती बहुत ही मिलनसार, व्यवहारिक और काॅलोनी के लोगों की किसी भी प्रकार की परेशानी हो सहायता के लिये सदा तत्पर! बच्चे बडे बूढे सभी के चहेते रहे हैं। रिटायरमेंट के बाद अधिकांशतः समय अपने गाँव में ही व्यतीत कर रहे हैं! फिलहाल कुछ दिनों के लिये आये हुये हैं। . लेखिका परिचय :- कुमुद के.सी.दुबे जन्म- ९ अगस्त १९५८ - जबलपुर शिक्षा- स्नातक सम्प्रति एवं परिचय- वाणिज्यिककर विभाग से ३...
पेट की आग
लघुकथा

पेट की आग

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर म.प्र. ******************** मैं बिलासपुर स्टेशन से इंदौर आई। जैसे ही मैं स्टेशन पर ट्रेन से नीचे उतरी। एक बूढ़ा व्यक्ति जिसकी कमर झुकी हुई थी, आंखों में मोटे ग्लास का चश्मा था, मुंह में झुर्रियां पड़ गई थीं, वह ठीक से चल भी नहीं पा रहा था। मेरे पास जल्दी-जल्दी आया और बोला मैडम आपको कहां जाना है? मैं आपको छोड़ देता हूं, और मेरे कुछ कहने से पहले ही मेरा सूटकेस लेकर चलने लगा मैं उसके पीछे-पीछे चलने लगी, जब मैं उसके रिक्शे में बैठी तो उसने रिक्शा खींचना शुरू किया, कुछ ही दूर जाकर उसका श्वास फूलने लगा। वह पसीना पसीना हो गया मैं तुरंत उसके से उतर गई और सौ का नोट उसके हाथ में रख दिया। बड़ी हिम्मत करके मैने पूछ ही लिया, कि बाबा आप बूढ़े हो गए हो, और आपकी उम्र रिक्शा चलाने की नहीं आराम करने की है। तुम्हें इस उम्र में रिक्शा में रिक्शा नहीं चलाना चाहिए। क्या करूं मेडम...
मान
लघुकथा

मान

आशा जाकड़ इंदौर म.प्र. ******************** अरी  सुलक्षणा कल "हरतालिका तीज" है, याद है ना। अरे माँ मैं तो भूल ही गई थी। अच्छा हुआ आपने याद दिला दिया, ठीक है कर लूँगी। "अरे माँ आपने अभी तक चाय नहीं बनाई सुबह-सुबह किसको फोन करने बैठ गयीं?" सीमा अपनी माँ के गले में हाथ डालते हुए बोली।" तेरी भाभी को ही फोन लगा रही थी, उसे याद दिला रही थी कल हरतालिका तीज है, व्रत कर लेना "और भाभी ने कहा होगा ठीक है मैं कर लूंगी। "हां तेरी भाभी बोल रही थी कि माँ मैं तो भूल ही गई थी अच्छा हुआ आपने याद दिला दिया।"  देख मैं उसे याद दिला देती हूं तो निधि बड़ी खुश हो जाती है। पर माँ आपको पता है न कि भाभी व्रत नहीं कर पाती हैं, उन्हें भूख सहन नहीं होती है। फिर क्यों याद दिलाती हो? अब उसकी इच्छा होगी तो कर लेगी नहीं तो कोई बात नहीं है। मैंनें अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। पर देख बेटा मेरा मान तो रख लेती है। कभी म...
मेज के उस पार की कुर्सी
लघुकथा

मेज के उस पार की कुर्सी

अर्चना मंडलोई इंदौर म.प्र. ******************** सुनों आज भी मैं खिडकी के पास रखी कुर्सी पर बैठी हूँ। बाहर बगीचे में ओस से भीगा आँवले से लदा पेड हरे काँच की बूँदों सा लग रहा है। इन दिनों गुलाब में भी बहार आई हुई है। सुर्ख लाल गुलाब पर मंडराती रंग-बिरंगी तितलियां मौसम को और भी खुशनुमा बना रही है। मौसम भी इस बार कुछ ज्यादा ही उतावला है नवम्बर में ही गुलाबी ठंड ने दस्तक दे दी है। ये गर्म काँफी मुझे अब वो गर्माहट नहीं देती क्योंकि मेज के उस पार खाली कुर्सी और काँफी मग का वो रिक्त स्थान तुम्हारी कमी महसूस करवा रहा है। मै अपनी बेबसी ठंडी कर काँफी के हर घूँट के साथ पीती जा रही हूँ। जानते हो ये हवा जो ठंड से भीगी हुई है, ये अब भीगोती नही है। भीगना और गीले होने का अंतर तुम्हारे बिना समझ में आया। मैं हथेलियों की सरसराहट से उस गर्माहट को महसूस करना चाहती हूँ, जो कभी तुम्हारी हथेलियों ने थाम कर गर्मा...
अपना घर
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अपना घर

सीमा निगम रायपुर (छत्तीसगढ़) ******************** अपने घर का सपना सबका रहता है और आज मेरे घर का सपना पूरा होने जा रहा है तो आप अम्मा-बाबूजी को साथ चलने के लिए मत कहना। "मानसी अपने पति अमित को सख्त लहजे में बोल रही थी। "ये कैसी बात कर रही हो तुम एक ही शहर में अम्मा बाबूजी को अलग छोड़कर रहेंगे तो लोग क्या कहेंगे" अमित ने समझाया पर मानसी जिद में अड़ी रही अम्मा-बाबूजी ने दुखी मन से जाने की इजाजत दे दी। पिछले साल ही किश्तो में कर्ज लेकर नई कालोनी में घर लिये थे नये घर मे आकर मानसी उसे सजाने संवारने में लग गयी। गृहप्रवेश भी बहुत धूमधाम से किया। नये घर का आकर्षण अकेले रहने का रोमांच मानसी को लग रहा था कि जिन्दगी में सुख ही सुख है। हर रविवार को अमित अम्मा-बाबूजी से मिलने जाता व उनकी दवाई और जरूरी सामान रख आता।                    अपने घर में रहते मानसी को छः माह हो गए। धीरे-धीरे आर्थिक समस्या ह...
उतरन
लघुकथा

उतरन

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर म.प्र. ******************** देवकी सुनो, जी दीदी चलो मेरी मदद करो। दीपावली की साफ सफाई करनी में, चलो पहले मेरा कमरा साफ करते हैं। ऐसा करो मेरी अलमारी पहले साफ कर दो। अलमारी के सारे कपड़े निकाल लो, और जो पुराने हैं उन्हें अलग रखना, और जो नये हैं उन्हें अलग। फिर आवाज आई, देवकी देख तो यह सलवार सूट कितना सुंदर है? हाँ दीदी बहुत सुंदर है। तो ऐसा कर इसे अपनी बेटी ममता के लिए ले जा। इसे पहनकर ममता बहुत सुंदर लगेगी। और यह उसे  आ भी जाएगा। मैं तो केवल एक-दो बार ही पहनीं हूं। दीदी पर अरे ! पर वर कुछ नहीं, प्यार से दे रही हूं ना तो रख ले। यह  बात नहीं  है दीदी, मैं तो आपकी दी हुई हर साड़ी पहन लेती हूं, कभी मना नहीं करती। पर अपनी बेटी को उतरे हुए कपड़े नहीं पहनाऊंगी दीदी। देवकी के मुंह से यह बात सुनकर प्रभा के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। . परिचय :- श्रीमती शोभारानी तिवा...
परवरिश
लघुकथा

परवरिश

केशी गुप्ता (दिल्ली) ********************** कॉफी हाउस से गुस्से में उठ स्नेहल बदहवास सी बिना रुके चलती ही जा रही थी स्वाति ने आवाज दी स्नेहल रुक जाओ मगर स्नेहल अनसुना कर वहां से निकल गई उसे मंजिल की खबर नहीं थी। ना जाने वह किस बात की सजा खुद को दे रही थी? आनंद और स्वाति कुछ ना कर सके। स्नेहिल जिंदगी से खफा थी सब कुछ होते हुए भी जिंदगी में कड़वाहट थी। मां बाप के बीच की दूरी ने उसके अंदर एक अजब अहसास पैदा कर दिया था। जाने अनजाने कब वह दोनों से दूर हो गई पता ही नहीं चला। स्वाति ने स्नेहल के पैदा होने पर अपनी दुनिया को बहुत छोटा कर लिया था। उठते बैठते उसे सिर्फ और सिर्फ स्नेहल का ख्याल था। जी जान से उसकी परवरिश में खो गई यहां तक कि नौकरी भी छोड़ दी मगर फिर भी स्नेहल को बांध ना सकी। बच्चों की परवरिश में कितना ही समय दो मगर बात फिर वही जन्मों के संबंधों और किस्मत के लिखे पर आ जाती है, चाहे अनचा...
बुढापे की लाठी
लघुकथा

बुढापे की लाठी

रीतु देवी "प्रज्ञा" (दरभंगा बिहार) ******************** शंभु जी और उनकी पत्नी बहुत खुश है। उनका बेटा संजय उनके दिए संस्कारों तले बड़ा हुआ है। परिवार में भी सबका सम्मान करता है। समाज, देश का सच्चे नागरिक की तरह सभी जरूरतमंदों की सहायता करता है। जिला अधिक्षक होते हुए भी शंभू जी की बीमारी की खबर सुनकर घर आया है। "पापा आपकी तबियत कैसी है? आप और माँ मेरे साथ चलिए।" संजय बोला। "मैं स्वस्थ हूँ। तुम चिन्ता मत करो। तुम अपनी ड्यूटी पर ध्यान दो। हमलोग यहाँ बिल्कुल ठीक हैं।" शंभू जी बोले। "नहीं पापा, अब आप लोग यहाँ नहीं रहेंगे। यहाँ आप लोगों का ध्यान रखने वाला कोई नहीं है। आप लोग मेरे साथ रहेंगे ...........मुझे खुशी मिलेगी। "संजय बोला। दोनों खुशी-खुशी संजय के साथ चल दिए। मन ही मन संजय को ढेरों आशीष दे रहे हैं। वह उनके अपेक्षा पर खड़ा उतरकर बुढापे की लाठी बना है।   परिचय :-  रीतु देवी (शिक्षिका...
अंतर्द्वंद
लघुकथा

अंतर्द्वंद

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** बहुत दिनों बाद बचपन की सहेली रीना से मिलने के लिए मैं अति उत्साहित थी। और इसी खुशी में पूरी रात जगी रह गयी। गुज़रे दिनों की सारी बातें चलचित्र की तरह मानस पटल पर चल रही थीं। महाविद्यालय की वो शांत सी बाला जब काफी अरसे बाद फेसबुक पर दिखी तो पहचानने में बिलकुल वक्त नहीं लगा मुझे। और फिर फोन ने तो वर्षों की दूरियों को पल भर में घनिष्ठ कर दिया। जब भी बात होती रीना की खनकती आवाज उससे मिलने की इच्छा और बढ़ा देती। मिलने की व्यग्रता में अपनी व्यस्ततम दिनचर्या से समय निकाल कर मैं उसके गाँव पहुँच गई। गांव का खुले आंगन वाला घर कितना साफ और सलीके से सुसज्जित था। आखिर रहता भी क्यों न इस घर की मालकिन सुशिक्षित सौम्य महिला जो थी। रीना की सारी पड़ोसन मुझसे मिलने आ गयी थीं। ऐसा लग रहा था मैं सिर्फ रीना की सहेली नहीं उन सभी की रिश्तेदार हूँ। इस अपनापन ने भावा...
माँ से मिलना है …
लघुकथा

माँ से मिलना है …

नफे सिंह योगी मालड़ा सराय, महेंद्रगढ़ (हरि) ******************** आज सुबह-सुबह दोस्त के यहाँ चंडीगढ़ गृह प्रवेश हवन पूजा के लिए जाते समय अचानक रास्ते में कार का टायर पंचर होने पर ड्राइवर ने कहा सर! टायर बदली करने में थोड़ा समय लगेगा। मैंने खिड़की खोली और बाहर निकला तो देखा कि...एक बूढ़ी अम्माँ गेट पर खड़ी-खड़ी अपने थूक से पल्लू को गिला करके चश्मा पौंछ-पौंछकर मुझे बार-बार ऐसे निहार रही थी जैसे कोई उम्र कैद की सजा पाया हुआ कैदी किसी के आने का इंतजार कर रहा हो और फिर एक हाथ से इशारा करके मुझे बुलाने लगी। मैंने ड्राइवर से कहा कि....तुम टायर बदली करो मैं आता हूँ। जब मैं थोड़ा नजदीक पहुँचा तो बूढ़ी अम्मा ने वापस जाने का इशारा कर दिया। मैं समझ नहीं पाया ... मेरे पैर जाने को कह रहे थे पर मन बूढ़ी अम्माँ के वापस लौटने के इशारे पर काम कर रहा था। मैंने पैरों की भाषा को पहचाना और बुढ़ी अम्माँ के पास...
निंदाई में पनपा प्रेम
लघुकथा

निंदाई में पनपा प्रेम

प्रिन्शु लोकेश तिवारी रीवा (म.प्र.) ******************** खेतों में चल रही निदाई कि निगरानी के लिए हमें घर से दोपहर ११ के आस पास बजे खेदा गया आज एक अद्वितीय प्रेमी से भेट होगी हमने यह सोचा भी नहीं। घर से ५ सेर पानी और आधा सेर गुड़ लेकर चला और नदी पार खेतों तक पहुच कर निंदाई कर रही मजदूरनी को पानी और गुड़ थमाया फिर निंदाई से उखड़े खरपतवार उठा-उठा कर मेड़ पर रखने लगा मेघों कि कृपा विशेष रही उनके रिमझिम करने से काम में थकान नहीं हो रही । लगभग आधे घंटे के बाद कुछ खेतों आगे एक कृष्णवरण का जवान युवक लगभग ७-८ माह के बच्चे को सिर पर बिठाकर कुछ गीत गुनगुनाते हुए सीधे आ रहा। मैने पास निंदाई कर रही औरतों से उसके बार में पुछा तो एक अधेड़ औरत बोली मेरा लडका है और इसका पति (बगल खड़ी औरत को छू कर)। मैं झुक कर अपने काम में बारिश कि बूदें थोड़ी तेजी से और व्यक्ति छाता लगाकर खेत तक अलौकि...
महत्वाकांक्षा
लघुकथा

महत्वाकांक्षा

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** अपने आंसू पोछते हुए शालू समझ नही पा रही थी इस परिस्थिति के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाये। शिक्षित परिवार की शालू सर्व गुण संपन्न थी। मायके और ससुराल दोनों ही परिवार में प्रिय थी। इकलौता बेटा तरूण की परवरिश भी ऐसे किया कि लोग बाग तारीफ करते न थकते थे। संस्कार और उच्च सामाजिक मापदंड दोनों ही कड़ियों का पालन हो रहा था बेटे के परवरिश में। फिर कहां चूक रह गई । संदीप के बार बार समझाने पर भी शालू के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे कल रात जब बेटे का फोन आया था - "माँ आपको पोता हुआ है और साथ में हमें यहाँ की नागरिकता भी मिल गयी। "आपकी मेहनत ही रंग लायी है माँ जो आज मैं ये सब हासिल कर पाया हूँ। शालू के दिल दिमाग में इक ही बात घुमड़ रही थी - ये सपना तो कभी न था मेरा कि बेटा अपनी मिट्टी छोड़ कर विदेशी बन जाये। उसने तो विदेश में शिक्षा दिलवाने का कदम इस...
अधूरा  पात्र
लघुकथा

अधूरा पात्र

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** निशा बालकनी मे खडी़ दूर क्षितिज मे आँखे गडा़ये बिचार मग्न थी। उसके हाथ मे एक कागज का टुकड़ा था, शायद किसी का पत्र। उसमे लिखे शब्द उसके मन मस्तिष्क को झकझोर रहे थे, वह जबाब देना चाह रही थी,पर समझ नही पा रही थी कैसे? क्या कहूँ? क्या सम्बोधन करूँ? प्रिय? नही प्रिय होता तो जीवन को अप्रिय न बना देता। मित्र? नही, मित्र तो सुख दुख का साथी होता है, चोट लगने पर वह तिलमिला जाता है स्वयं चोट नही देता। तो क्या सम्बोधन करूँ? अनजान? पर अनजान भी तो नही है। फिर? फिर क्या, बगैर किसी सम्बोधन के ही अपने प्रश्न पूछती हूँ। जिनका सटीक उत्तर उसे देना होगा। पर क्या दे सकेगा वह मेरे प्रश्नों का उत्तर? उसके पास होगा मेरे अनुत्तरित प्रश्नों का हल? शायद, शायद वह जबाब दे, शायद मिल जाये मुझे मेरे जबाब। दे सकोगे मेरे प्रश्नों का उत्तर? लौटा सकोगे वह पल, वह सुहानी शाम, वह गुन...
गरीबी पर चोट
लघुकथा

गरीबी पर चोट

सुरेखा सुनील दत्त शर्मा बेगम बाग (मेरठ) ********************** आज सुबह और दिनों की तरह ही अपने काम में लगी रही, वक्त इतनी तेजी से बीत रहा था कि पता ही नहीं चला, कब ११:०० बज गए, अचानक घर के बाहर एक ठेले वाले की आवाज आई, जो बहुत सस्ते दामों में घर के काम का सामान बेच रहा था, हम कई महिलाएं अपने अपने घर से उसकी आवाज सुनकर बाहर निकल गई, और सामान खरीदने लगी। तभी मेरी नजर मिसेज मित्तल पर पड़ी वह सामान खरीदते हुए कुछ छोटी-छोटी चीजें अपने हाथ में छुपा लेती थी, और अपनी कनखियों से देखती थी कि किसी ने देखा तो नहीं। मैंने देख कर भी अनदेखा कर दिया, सभी लोग सामान लेकर अपने अपने घर को चले गए! तब मैंने ठेले वाले भैया से कहा की अगर ऐसे ही समान बेचोगे तो तुम्हें घाटा होता रहेगा, थोड़ा सा अपनी आंखें खोल कर भी देख लिया करो कि कोई सामान तो नहीं उठा रहा। वह बिना कुछ कहे मुस्कुरा दिया और चला गया। अगली बार फिर वह...
संस्कार
लघुकथा

संस्कार

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** दीदी आप भजन गाइये ना, कितना अच्छा गाती है'। सरला जी उसे देख मुस्कुराई कुछ बोली नहीं। वह अभी इस शहर में नई नई आई थी। धीरे धीरे पास पड़ोस से परिचित हो रही थी। सामूहिक मायका और सामूहिक ससुराल परिवार की आदी, वह सभी को अपने घर जैसा मानती थी। कभी भजन कभी कथा कभी कुछ और कार्यक्रम में आपस में मिलने लगे। उसको सभी के साथ मिलकर अच्छा लगा और सभी ने प्यार से उसे अपनाया। उसकी उम्र से बड़ी कई महिलाएं थी, वह उनका सम्मान करती थी। ऐसे ही स्वभानुसार उसने आज भी कह दिया चलिए दीदी आप सब आज हमारे यहां चाय बनाती हूं। आप सभी का आना नहीं हुआ अब तक। एक दो छोटी थी वह कुछ नहीं बोली, लेकिन जिन्हें दीदी कहकर सम्बोधित किया, वह एकदम तमतमा गई और बोली__ 'यहां दीदी कोई नहीं सबका नाम लेकर बुलाया कीजिए'। हम बुढ़ा नहीं गये है। वह हतप्रभ थी की बड़े लोग प्यार और सम...
सब्ज़ी मेकर
लघुकथा

सब्ज़ी मेकर

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी उदयपुर (राजस्थान) ****************** इस दीपावली वह पहली बार अकेली खाना बना रही थी। सब्ज़ी बिगड़ जाने के डर से मध्यम आंच पर कड़ाही में रखे तेल की गर्माहट के साथ उसके हृदय की गति भी बढ रही थी। उसी समय मिक्सर-ग्राइंडर जैसी आवाज़ निकालते हुए मिनी स्कूटर पर सवार उसके छोटे भाई ने रसोई में आकर उसकी तंद्रा भंग की। वह उसे देखकर नाक-मुंह सिकोड़कर चिल्लाया, “ममा… दीदी बना रही है… मैं नहीं खाऊंगा आज खाना!” सुनते ही वह खीज गयी और तीखे स्वर में बोली, “चुप कर पोल्यूशन मेकर, शाम को पूरे घर में पटाखों का धुँआ करेगा…” उसकी बात पूरी सुनने से पहले ही भाई स्कूटर दौड़ाता रसोई से बाहर चला गया और बाहर बैठी माँ का स्वर अंदर आया, “दीदी को परेशान मत कर, पापा आने वाले हैं, आते ही उन्हें खाना खिलाना है।” लेकिन तब तक वही हो गया था जिसका उसे डर था, ध्यान बंटने से सब्ज़ी थोड़ी जल गयी थी। घबराह...
सफाई अभियान
लघुकथा

सफाई अभियान

सुरेश सौरभ निर्मल नगर लखीमपुर खीरी ********************** वह लड़का कंधे पर बोरी लटकाए कूड़ा बीन रहा था, तभी उसके सामने एक लग्जरी गाड़ी आकर रुकी। उसका दिल बैठने लगा। गाड़ी में कुछ सूट-बूट वाले बाबू लोग बैठे थे। उनमें से एक बाबूजी बाहर निकले और लड़के से बोले-ऐ! लड़के इधर आ। लड़का डरता हुआ बाबूजी के करीब आया । उसकी बोरी की ओर इशारा करके थोड़ा ऐंठ कर-ऐ! लड़के, ये बोरी १०० रुपए की देगा। लड़का सकते में आ गया। बीस-तीस रुपए बोरी बिकने वाले कूड़ा को कोई सौ रूपए की मांग रहा है, यह सोच वह हैरत में था, फिर भी थोड़ा हिम्मत जुटा कर बाबू जी से बोला-साहब दो सौ लगेंगे। "ठीक है। ये पकड़ दो सौ, पीछे डिग्गी में डाल दे। "कूड़े की बोरी डिग्गी में पहुंच गई। दो सौ रुपए पाकर उसकी बांछें खिल गईं। बाबू लोग फुर्र से उड़ गए। उन बाबूओं ने अपने कार्यालय पहुंच कर बड़े साहब से कहा-काम हो गया।तब बड़े साहब बहुत खुश ह...
लोकतन्त्र की मार
लघुकथा

लोकतन्त्र की मार

केशी गुप्ता (दिल्ली) ********************** कैसे है मुहम्मद भाई? शर्मा जी ने दूर ही से आवाज लगाई। शुक्र है खुदा का भाई जान मुहम्मद भाई मुस्कुराते हुए बोले। बहुत अरसे से मुहम्मद भाई और शर्मा जी एक ही महौल्ले में रहते थे दोनों में अच्छी जान पहचान थी। गली से गुजरते दुआ सलाम होती ही थी . क्या खबर छपी है ? आज पेपर में शर्मा जी ने पूछा . भाई जान अब कहां कुछ खबर छपती है हर तरफ हाहाकार फैली है मगर मीडिया बिकाऊ हो चला है . सही कह रहे है आप . लोकतन्त्र सिर्फ नाम भर का है . जाने लोग किस ओर जा रहा है . राजनीति का स्तर गिर गया है. उठने वाली हर आवाज को दबा दिया जाता है . ईश्वर नेक राह दिखाए. आमीन मुहम्मद मुस्कुरा उठे. शर्मा जी गली से निकल गए , आज उन्हे अपनी बेटी के ससुराल जाना था शादि का कार्ड देने .शादि की तारिख पास आ चूकी थी , उसी सिलसिले में बाजार से कुछ सामान लेने निकले थे . बैंकों में पैसा होते हु...
अधिकारी दामाद
लघुकथा

अधिकारी दामाद

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** प्रिया बैठक में गुमसुम बैठी थी, उसे पता नहीं चल रहा था - रंजन से कैसे जिक्र करे माँ के आने का। क्या शादी के समय हुई घटनाओं को भूलकर सहजता से व्यवहार कर पायेगा रंजन माँ के साथ। माँ की सोच भी तो कुछ गलत नहीं थीं अपनी बेटी के लिए अपने सामाजिक स्तर का ही दामाद चाहतीं थीं। सरकारी अफसर की बेटी का हाथ अपने भविष्य निर्माण में लगे निजी संस्था के कर्मचारी के हाथ में कैसे दे देतीं। अब ये अलग बात थी कि रंजन की पारिवारिक स्थिति से प्रभावित होकर दोनों के दिल में प्यार के बीज माँ ने ही डाले थे। प्रिया के पापा रंजन के ही घर की गली में आलीशान मकान खरीदे और पूरे परिवार को स्थायी रूप से रखकर अपने कार्य स्थल पर चले गए। रंजन के पापा भी उच्च पदासीन पदाधिकारी,बड़े भाई शहर के नामी चिकित्सक। उनका मकान भी कुछ कम आलीशान नहीं था। उसमें सोने पर सुहागा ये कि जात बिरादरी ...
मानव-मूल्य
लघुकथा

मानव-मूल्य

********* डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी उदयपुर (राजस्थान) वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था। उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, "यह क्या बनाया है?" चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, "इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख - पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?" आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी। "ओह! ...
उड़नखटोला
लघुकथा

उड़नखटोला

********** नीरजा कृष्णा पटना 'ये रूपा अभी तक बिस्तर तोड़ रही है, नौ बज रहा है। इस तरह पड़े रह कर तो ये लड़की कभी भी जिम्मेदारी नहीं सीख पाएगी' ना चाहते हुए भी आनन्द बाबू की आवाज़ काफ़ी तल्ख हो गई। 'ज़रा धीमे बोलिए ना! बच्ची है, सब सीख जाएगी! कितनी प्यारी सुन्दर हैं अपनी रूपा! देख लेना, एक दिन कोई राजकुमार आकर मेरी फूल सी बच्ची को उड़नखटोले पर बैठा कर ले जाएगा" अब तो सहनशक्ति जवाब दे गई उनकी, "शीला! कौन से जमाने में रह रही हो? अब ना कोई राजकुमार आएगा, ना कोई उड़नखटोला आएगा, बेटा बेटी सब बराबर होते है, अच्छी शिक्षा दो, हर क्षेत्र में यथासंभव काबिल बनाओ...यही आज के युग की माँग है।" पति की बातें सुन कर वो बहुत सोच में पड़ गई .... 'क्या सचमुच उनकी प्यारी गुड़िया के लिए कोई राजकुमार उड़नखटोले पर नहीं आएगा? क्या सचमुच उनकी रूपा के असीम रूप का कोई मूल्य नहीं है? सोचते सोचते उनको ध्यान आ गया पडौस...
वेणी वाली दुर्गा
लघुकथा

वेणी वाली दुर्गा

********** स्वाति जोशी पुणे देवी मंदिर के आहते में सजी छोटी सी दुकान पर स्मिता सामान ले रही थी। हार, फूल, नारियल,धूप, कपूर, प्रसाद सब ले लिया था, तभी वहाँ रखी लाल रंग की जरी बाॅर्डर की साडी पर उसकी नज़र पडी, कुछ कहने के लिये मुडी, तो देखा पति सतीश दुकान के बाहर कुछ दूरी पर मोबाईल में सिर गडाये खडा था। वहीं से आवाज़ देकर स्मिता ने पूछा, 'ये साडी भी ले लूं देवी माँ के लिये?' 'हाँ,हाँ ले लो’ सतीश ने सिर हिला कर सहमति दी। 'ये औरतें भी ना... एक तो नवरात्रि में भीड़-भाड़ में इनके साथ मंदिर चलो, और फिर, 'ये भी ले लूंँ?, वो भी ले लूँ?''... सतीश मन ही मन बुदबुदाया..मगर पत्नी से कुछ भी कहने के बजाय, हाँ कहना उसे ज्यादा आसान लगा। वैसे भी मंदिर में चारों तरफ लोग ही लोग थे, जहां जगह मिली वहाँ छोटी छोटी दुकानें भी लगा रखी थीं हार- फूल, नारियल वालों ने, कमाई का सीज़न था उनका! उपर से बारिश की चिक-चिक......