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Tag: अंजली सांकृत्या

पहचान
कविता

पहचान

अंजली सांकृत्या जयपुर (राजस्थान) ******************** परवाह ना थी, लापरवाह हो गए, चलो एक बार फिर से, शुरुआत करते हैं, खुद की परवाह कर, खुद से हम प्यार करते हैं, ज़रा खुद से हम मुलाकात करते हैं, आओ ज़रा खुद से हम बात करते हैं, थोड़ा ठहर जाओ, खुद के लम्हों की हम, बरसात करते हैं। थोड़ा तारो संग, थोड़ा चाँद सितारों संग, मुलाक़ात करते हैं। जरा नदियों की, दस्तक को सुनो, अपने ख्वाबो को बुनो। पेड़ पर सूखे पत्तो की, गड़गड़ाहट को सुनो। टहनियों पे लगी, लताओ को बुनने दो। कलियो पर लगे, फूलो पर भवरें मंडराने दो। बगिया में खिले, फूलों को महकने दो। मिट्टी की सोन्धी-सोन्धी खुशबू, में खो जाने दो, आ खुद से प्यार हो जाने दो।। कुछ धरा पर गिरी, पानी की बूंदो को सजने दो। बैठे किनारे पर तन्हा, हवा की सरसराहट को, बाहों में अपने समेटकर, इस जगमगाती रात में, अपने जज्बातो की, बौछार...
मैं और वह
कविता

मैं और वह

अंजली सांकृत्या जयपुर (राजस्थान) ******************** मन पिशाचः बुद्ध: शिकार: शांत: अशांत: प्रण: अहिंसा धर्म: अहिंसा कर्म: अहिंसा मन: शांति हेतु उद्देशित भला दृश्यित है. हैवान मैं छुपा शैतान हूँ दिखावटी हूँ, मौन मैं दिल में दबी, बात हूँ ... संकी हूँ, आवारा मैं फिर कहीं, शांत मैं धूप मैं, छाव मैं छाव दबी धूप मैं, हू बारिश विचारो की, बादलो मे छुपी आवाज मैं, हूं अग्नि मैं, तपस्या मैं इक छलावा हूं, दिखावा मै हू स्वार्थ मैं, दबा राज हूँ बर्फ सी, जुबान मैं तितली सी, बात हूँ ... मैं कौन हूँ, मैं मौन हूँ, मैं द्वन्द्व मे, मैं अन्तर्द्वन्द्व हूँ मैं सृष्टि का विचार , मैं मन का विकार, मैं कौन हूँ मैं मौन हूँ मैं अशांत हूँ मैं शांत मैं !!!! परिचय :- अंजली सांकृत्या निवासी : जयपुर (राजस्थान) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी...
गुरू मंत्र निराला
कविता

गुरू मंत्र निराला

अंजली सांकृत्या जयपुर (राजस्थान) ******************** मेरे पथ का साथी हैं, पाखी मेरे हूनूर का... गुरु संग क़दम बढ़ाते चल, गुरु द्रोण की तस्वीर बन... मैं मुसाफ़िर, मँझधार में... मेरे उड़ान को भरते चल... क़िस्मत का खेल ना बन, कर्म का भाग्य बन।। मैं उदय हो जाऊँ सूरज सा, ऐसा उत्साह भरता चल... तूँ परछाईं बनाता चले, मै संग रास्ते चलता चलूँ।। गुरु हैं सफ़लता का मंत्र, थामे उसका हाथ चल।। मेरे ज़ुनून की आग को, पाक नज़रो ने तराशा हैं.. मैं हीरा तेरे कक्ष का, मंज़िल का साथी बन।। क़िस्मत की आँखे दिए, हवाओं को सन्न करता चल... गड़गड़ाहटों के दोर का, मेरा हिस्सा बनता चल... क़लम तूने सिखाई हैं, हवाओं में रूत आइ हैं.. छेड़खानिया मेरे सपनो से, शैतानिया बढ़ाई हैं।। तूँ संग मेरे जलता गया, मैं लोहे जेसे पिघलता गया।। मैं हथियार, तेरी धार का.. तेरा नाम जहांन में करता गया... तेरा ...
असहनीय पीड़ा
कविता

असहनीय पीड़ा

अंजली सांकृत्या जयपुर (राजस्थान) ******************** सुना हैं मैं बेज़ुबान जानवर हूँ!! बहुत विस्मय की बात हैं ना? जहाँ मानुष जीवन हैं वहाँ मेरा भी अस्तित्व हैं सुनो ना! मैं भी भूखा हूँ मुझे भी खाना चाहिए मुझे भी खिलाओ ना खिलाओगे ना? मैंने तो जंगल में ख़ूब ढूँढा पर सब सूखा हैं मानुष ने अपने लिए वृक्षों की कटाई जो की हैं। देखो ना वहाँ कुछ मानुष हैं लगता हैं भले लोग हैं अब मेरी भूख प्यास मिट जाएँगीं हैं ना? देखो वो आ रहे हैं साथ अपने कुछ ला रहे हैं मालिक मुझे खिलाओ ना बहुत भूखा हूँ मालिक हाँ खिलाता हूँ। मैं सब खा गया उनका ज़िन्दगी भर का क़र्ज़दार बन गया... कब तक ? आह मानुष ये क्या किया ? मुझे इतनी पीड़ा क्यूँ मुझसे सहन नहि हो रही... ये मुझे मार देगी हँस रहे हो? मानुष ऐसा क्यों किया.. मेरी हत्या क्यों कि? मानुष तुमने ये क्या किया! हाहाहाहाहा...।। ये...