बचपन की सुनहरी यादें
अभिषेक मिश्रा
चकिया, बलिया (उत्तरप्रदेश)
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बाल दिवस आया है, फिर से शोर मचाने को,
इस उम्र ने झकझोरा है, कुछ पीछे लौट जाने को।
वो दिन जब हम छोटे थे, ख़्वाब बड़े सजाते थे,
हर पल में था हँसी भरा, जो अब बस यादें लाते है।
वो मिट्टी की गुल्लक, जिसमें सपने झनकते थे,
वो कागज़ की नावें, जो बारिश में तैरते थे।
वो टूटा हुआ बल्ला, जिससे क्रिकेट खेलते थे,
और अम्मा की डाँट में भी, हम हँसकर मिलते थे।
न फोन था, न इंटरनेट, न कोई अजब कहानी थी,
बस दोस्तों की टोली, और मासूम सी जवानी थी।
वो स्कूल का बस्ता, जो कंधों को झुकाता था,
पर टीचर के आते ही, हर शोर रुक जाता था।
आज सोचा तो याद आया, वो आमों का बाग़ कहाँ,
वो गेंद जो छत पर थी, अब तक लौटी या नहीं भला।
वो दादी की कहानियाँ, वो गर्मी की रातें,
जहाँ परियाँ मुस्कुरातीं, और चाँद सुनाता बातें।
सच कहूँ, वो दिन रेशम से भी म...

