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दीपक की रोशनी
कहानी

दीपक की रोशनी

नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी महराजगंज, रायबरेली (उत्तर प्रदेश) ******************** चार दिन गुजर चुके थे, टूटी-फूटी मढ़इय्या में सन्नाटे का बोलबाला था। वेदना पांव पसार रही थी, दहलीज से गलियारे पर कुछ हलचल देखी जा सकती थी, लेकिन जर्जर कोठरी की मायूसी को नहीं। कुछ घरेलू सामान अस्त व्यस्त पड़ा था, बर्तनों में जूठन तक नहीं थी, चूल्हे की आग उदर में जल रही थी। झूला बनी खटिया पर रह-रह कर ननकू के कराहने की आवाज मानो उसके जीवित होने का प्रमाण दे रही थी। बेबसी, लाचारी और बीमारी उपहासिक संयोग कर रही थी, सहसा अति कोमल लेकिन रूदित आवाज में रोशनी ने कहा "मां बर्तन भी भेज दोगी तो जब कभी रोटी बनेगी तो? मां कुछ बोल पाती तब तक दीपक ने धीरे से आंचल खींचते हुए कहा "मां अनाज के पैसे से दुकानदार ने पूरी दवा नहीं दी" मां मुझे भूख नहीं लगी, कुल दीपक के चेहरे पर रोशनी की चिंता दिख रही है, रोजदिन की तरह पड...