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Tag: प्रमोद गुप्त

चुनावी दीवाने
ग़ज़ल, गीतिका

चुनावी दीवाने

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** देखा जिसको, वो चुनावी दीवाने लगे, वे छोड़ धन्धा, गालों को बजाने लगे। देश-दुनिया का जिनको पता ही नहीं परिणाम, हार-जीत का, सुनाने लगे। घोषणाएं क्या रिश्वत का ऑफर नहीं एक हम हैं, लार अपनी टपकाने लगे। व्यवस्था में ये दल भी विवश हैं सभी झुन-झुने, अपने-अपने, दिखाने लगे। हम देश-राष्ट्र का, अन्तर भूले सभी दादा के संग संस्कृति भी जलाने लगे। सत्य को पुस्तकों में किया है दफन झूँठ को ही, कुतर्कों से सजाने लगे। जैसे पशु, मैं धरा पर, विचरता रहा, छोड़ डंडा, मुझको ग्वाले मनाने लगे। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उ...
झर्र बिलैया
गीतिका, बाल कविताएं

झर्र बिलैया

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** टी ली, ली ली झर्र बिलैया। खा गई अक्षु, सारी मलैया। अम्मा से कट्टी क्यों कर लूं वह तो मेरी जय-जय मैया। करवाऊंगी, मैं सबकी पिट्टी जब भी आयेंगे, आबू भैया। किट्टू हैं, मेरी प्यारी दीदी संग-संग नाचें ता-ता थैया। मैं भी पढ़के दिखलाऊँगी- चाचा जी मेरे, बहुत पढैया। जब हम अच्छे काम करेंगे- तो फ्रेंड बनेंगे सभी सिपैया। रोज खिलाया करती हप्पा- जब-जब घर आती है गैया। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उसके बाद -वीर अर्जुन, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण, युग धर्म, विश्व मानव, स्पूतनिक, मनस्वी वाणी, राष्ट्रीय पहल, राष्...
हम बच्चे मन के कच्चे
बाल कविताएं

हम बच्चे मन के कच्चे

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** हरदम बाइक कार चलानी, डांटे अक्षु को उसकी नानी। उछल-कूद व धमा-चौकड़ी करती हो अपनी मनमानी। हम बच्चे मन के कच्चे है- कभी-कभी करते शैतानी । खेल समय पर खेलो भैया डांट पड़े ना तुमको खानी। सही समय पर पढ़ने जाओ भैया आबू और किट्टू रानी। हम खेलेंगे और खूब पढ़ेंगे निश्चित ही मंजिल है पानी। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उसके बाद -वीर अर्जुन, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण, युग धर्म, विश्व मानव, स्पूतनिक, मनस्वी वाणी, राष्ट्रीय पहल, राष्ट्रीय नवाचार, कुबेर टाइम्स, मोनो एक्सप्रेस, अमृत महिमा, नव किरण, जर्जर कश्ती, अनुश...
स्वयं चले आये
ग़ज़ल

स्वयं चले आये

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** हम सीते जा रहे, उधड़ता जाता है- ये भाग्य क्या-क्या गुल खिलाता है। कर्म की सुई को, जो न देता विराम निश्चित ही एक दिन मंजिल पाता है। स्वयं चले आये, बहुत दूर उजालों से- अंधेरों में हमको अब हौवा डराता है। चढ़कर उतरना है, उतरकर चढ़ना है। प्रतिदिन ही सूरज, यही तो बताता है। अर्जुन बनकर कुरुक्षेत्र में उतरना तुम- अभिमन्यु हर-बार युद्ध हार जाता है। एक हाथ मे शस्त्र, दूसरे से कृपा बरसे ऐसा प्रतापी ही श्रेष्ठ शासन चलाता है। वीर नहीं, वह तो केवल बिजुका ही है- जो आवश्यक होने पे शस्त्र न उठाता है। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित...
कहाँ गंगाजल है
ग़ज़ल

कहाँ गंगाजल है

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** निकलता नहीं, क्यों सवालों का हल है, हैं गलत फॉर्मूले और कुतर्कों में बल है । लूटे जाएं हमसे और निठल्लों में बांटे- राजधानी, या फिर, घाटी-ए-चम्बल है । सब अपेक्षाओं से नाता, जो हैं तोड़ देते- उन्हीं बावलों का, बस जीवन सफल है । अपनी व्यवस्था की डोर, है चार हाथों- व निर्णय सभी का, अलग आजकल है । जब आजाद हैं हम, तो कुछ भी करेंगे- और कुर्सी पर बैठे, गांधी जी अटल हैं । गिरी मक्खी नहीं, दूध में छिपकली है- इसे पूरा ना बदलना, मेरे साथ छल है । तूने ही तो किया, सारे तत्वों को दूषित- अब ढूंढ़ता फिर रहा, कहाँ गंगाजल है । परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविता...
स्वयं चले आये
गीतिका

स्वयं चले आये

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** हम सींते जा रहे, उधड़ता जाता है- ये भाग्य क्या-क्या गुल खिलाता है। कर्म की घड़ी को, जो न देता विराम निश्चित ही एक दिन मंजिल पाता है। स्वयं चले आये , बहुत दूर उजालों से- अंधेरों में हमको अब हौवा डराता है। चढ़कर उतरना है, उतरकर चढ़ना है। प्रतिदिन ही सूरज, यही तो बताता है। अर्जुन बनकर कुरुक्षेत्र में उतरना तुम- अभिमन्यु बार-बार युद्ध हार जाता है। एक हाथ मे शस्त्र, दूसरे से कृपा बरसे ऐसा प्रतापी ही श्रेष्ठ शासन चलाता है। वीर नहीं, वह तो केवल बिजुका ही है- जो आवश्यक होने पे शस्त्र न उठाता है। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय स...
वोट का मोल
गीतिका

वोट का मोल

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** नस-नस में इसकी, बहुत झोल है- कौन कहता है दुनिया, ये गोल है। सद्भावनाएँ ढूँढे से न मिलती यहॉं केवल सिक्कों से हो रही तोल है। बेचने सपने फिर वे गली आ गए- बजता खूब उनका, फटा ढोल है। जिसे नाली से कोई, उठाता नहीं- शराबी बुधुआ की वोट का मोल है। भाई, भाई का शत्रु बना है मगर- मिलता जाति से निर्मित घोल है। आपस के हैं उन्हें क्यों छोड़ें, भले कारनामों के उनकी खुली पोल है। पीढ़ियों से जो खिचड़ी पकाते रहे- अब बहुत ही ऊँचा उनका बोल हैं। भेड़िये भी चुनेंगे, आज राजा मेरा- क्यों कि मानव का पहना खोल है। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिच...
चौकीदारी छोड़ तू
कविता

चौकीदारी छोड़ तू

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** सड़कों पर गुंडई दिखा वह खास हो गए, बदमाशी की परीक्षा में अब पास हो गए । ये राजा क्यो किताब से बाहर नहीं चलता- जब, टेड़ी अंगुलियों के सभी दास हो गए । सब हो गए हैं स्वार्थी, इस जंगल के पेड़ ये- झूंठे शब्द ही इनका अब विस्वास हो गए । इस घर का होगा क्या ये भगवान ही जाने- सारे ही नियम यहाँ के, बकवास हो गए । विकास के पहाड़ पर हम चढ़ते चले गए- पर ये हृदय क्यों हमारे बदहवास हो गए । डंडा की जगह गधों को जब पान दोगे तुम- तो आरोप तो लगेंगे ही क्यों उदास हो गए । ये चौकीदारी छोड़ तू, ग्वाले का काम कर- ये विकसित-खंडहर, ढोरों का वास हो गए । परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी"...
जाड़ा आया
कविता

जाड़ा आया

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** देखो मम्मी-जाड़ा आया, इसने नोजी को, चलवाया। जाड़े से पड़ गया है पाला- कोट मंगा दो बढ़िया वाला। मेरा मफलर लेकर आओ- मेरे कानों को ढक जाओ। किटकिट दाँत गीत सुनाएँ, सब बच्चे, बादाम हैं खाएँ। मुझको पहले चाय पिलाओ फिर थोड़े बादाम खिलाओ। मम्मी, पापा से यह कह देना- मूंगफली-लाकर, रख लें ना। अब मुझको पाँच रुपैया लाओ- और भैया से टिफिन दिलाओ। भैया जब भी जिदपर आता, झट से मेरा टिफिन छिपाता। बस अब पढ़ने को जाती हूँ- पढ़कर वापिस घर आती हूँ। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उसके बाद -वीर अर्जुन, राष्ट्रीय सहारा, दै...
स्वयं दीप बनकर
कविता

स्वयं दीप बनकर

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** जब तक ये अंधेरे, चाल चलते रहेंगे। हम स्वयं दीपक बनकर, जलते रहेंगे। कोने-कोने में सत्ता को षड्यंत्र फैले, हो गए, अपने मस्तिष्क के मंत्र मैले, तम मिटाने को सपने तो पलते रहेंगे। हम स्वयं दीपक बनकर, जलते रहेंगे। सदां की तरह आँधियाँ आएं तो क्या, ज्योति, कभी डगमगा जाएं तो क्या। हम जलते रहेंगे, और संभलते रहेंगे। हम स्वयं दीपक बनकर, जलते रहेंगे। हमने दादा से सुनी है, पुरानी कहानी। निश्चित ही, एक दिन तो है भोर आनी। हम तब तक तेल-बाती बदलते रहेंगे। हम स्वयं दीपक बनकर, जलते रहेंगे। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित ह...
एक दीपक यहाँ भी
गीत

एक दीपक यहाँ भी

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** दीपावली को दीप कुछ जलाएं, इस धरा से, सारे अँधेरे मिटाएं । अहंकार जैसे कितने ही दानव- आकर बस गए, हृदय में हमारे- अन्दर या बाहर सुरक्षित नहीं हैं- अपने-पराये सब, शत्रु हैं सारे । रक्षा हिट ऋषियों की राम जैसे वीरता, आदर्श हम भी अपनाएं । जुआ-नशा सब गलत बात हैं ये इस पावन पर्व को पावन बनाओ, मस्तिष्क में, ठहरा है तम हमारे- कोई तो दीपक यहाँ भी जलाओ । ये जीवन सुखों से परिपूर्ण होगा- नियमित जो, राम का नाम गाएं । परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उसके बाद -वीर अर्जुन, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण, युग धर्म, व...
पर्वत ने कहा…
गीतिका

पर्वत ने कहा…

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** बोलो स्वप्न तुमको, क्या आते नहीं हैं, क्या रातों में अब हम, सताते नहीं हैं । दिनभर साथ रहती है मेरी अमावस- ये चन्दा, और सूरज, सुहाते नहीं हैं । कहाँ पर गिरेगी, बदली की बिजली- वह नहीं जानते हैं, या बताते नहीं हैं । पर्वत ने कहा था, एक दिन नदी से- तोड़कर हृदय को, ऐसे जाते नहीं हैं । कब तक समेटे, ये शब्दों की आँधी- वरना ऐसे तो हम, गीत गाते नहीं हैं । प्यासा है कितना, आँखों का सागर- यूँ मगर हम किसी को, जताते नहीं है । हरबार पूछते हो, तुम क्यों नाम मेरा- एक हम हैं किसी को भुलाते नहीं हैं परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहि...
आवारा मन के..
गीतिका

आवारा मन के..

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** ढूँढे जिसको उधर गया होगा- वो तेरा गाँव, नगर गया होगा । झूँठ के आगे दुम हिलाता है- शायद अंदर से मर गया होगा । सफेद बादल यूँ नहीं बरसा इस मौसम से डर गया होगा । बेटी नदिया को विदा करके कोई पर्वत बिखर गया होगा । भूखे बच्चों के लिए तूफां में- वो समन्दर उतर गया होगा । भीड़ क्यों जुटी, वह बेचारा- नहीं समझा मगर गया होगा । मंजिल मिल जाएगी उसको- जो दिशा परखकर गया होगा । तड़पता, ये जो काँपता हृदय- आवारा मन के घर गया होगा । यूँ ही वह कत्ल नहीं कर देता भाई हद से गुजर गया होगा । बेटा पढ़ा लिया है एम ए तक- वह, अब तो संवर गया होगा । परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"का...
माँ दुर्गा स्तुति
भजन, स्तुति

माँ दुर्गा स्तुति

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** ॐ ह्रीं दुंदुर्गाये नमः, नमस्कार स्वीकार करो ! मुझे भँवर से पार करो माँ, तुम मेरा उद्धार करो । धूं धूं धूमावती ठ ठ, सारे सुख प्रदान करो, करो क्षमा माँ मेरी गलती, और मेरा कल्याण करो । सब की सब बाधाएँ हर लो, दूर क्लेश-विकार करो, रोग-मुक्त, सुख-शान्ति युक्त, माँ मेरा परिवार करो । मेरे अंधकार को हर लो, जय ज्योति माँ जय ज्वाला, मुझको इतनी श्रद्धा दे दो, हो जाऊं मैं मतवाला । मुझे गति दो श्रेष्ठ-मार्ग पर, आगे ही बढ़ता जाऊं, नहीं क्षति हो चाहे मैं, चट्टानों से टकरा जाऊं । लक्ष्मीवान, यशवान बनूँ मैं, ऐसे कर्म कराओ माँ, कोई न शत्रु रहे जगत में, ऐसा ज्ञान सिखाओ माँ । तुझमें और कर्म में मेरी, पूरी-पूरी निष्ठा हो माँ, कोई कटु शब्द ना बोले, हाँ ऐसी प्रतिष्ठा दो माँ । जय अम्बे, जगदम्बे माता, अच्छे मेर...
बाँटते जो रहे…
कविता

बाँटते जो रहे…

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** जो जेबों में छिपा, सूरज रखते रहे हैं- उन्हें क्या पता, स्वयं जलते रहे हैं । बाँटते जो रहे, उजालों को जितना- उनसे अंधेरे स्वयं दूर, चलते रहे हैं । अरे आंधियो, हमको धमकी नहीं दो- इस हृदय में कई, तूफां पालते रहे हैं । अपराध, क्यों ना करें, वह बताओ- सजा तो नहीं, सम्मान मिलते रहे हैं । होता राजा वही, रोक दे रुख हवा का- वरना मौसम यूँ ही चाल चलते रहे हैं । परीक्षाएँ, माना कठिन थी तुम्हारी- पर परिणाम भी अच्छे मिलते रहे हैं । परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उसके बाद -वीर अर्जुन, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण, य...
अपनी राहों पर
कविता

अपनी राहों पर

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** बारूदों की, मस्तिष्कों में- देखो फसलें उगा रहे हैं, स्वार्थ सिद्ध करने के हेतु रोबोटों को जगा रहे हैं । युद्ध क्षेत्र या राजनीति है- राजमहल के अन्दर झाँको, कौन शत्रु व कौन मित्र है- तुम हर दल के अन्दर झाँको, पता नहीं जब तुमको भैया- फिर क्यों बुद्धि खपा रहे हैं । जैसे तुम ही बस राजा हो- यह अहसास कराया तुमको, कर्तव्यों को दूर हटाकर- अधिकार, समझाया तुमको, लौट आओ अपनी राहों पर- फंस जालों में, फंसा रहे हैं । परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उसके बाद -वीर अर्जुन, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण, युग धर्म, व...
क्या ठीक है …?
गीतिका

क्या ठीक है …?

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** इन दानवों को पढ़ाना, क्या ठीक है ? लालची रुंठे, तो मनाना क्या ठीक है ? जिसमें सदभावनाएं सब मर ही चुकीं- बताओ ऐसा, ये जमाना, क्या ठीक है ? सच की परिभाषा, हम जानते ही नहीं किसी के सच को बताना क्या ठीक है ? नहाओ चाहो जिस भी नदिया में तुम किन्तु इनमें ही समाना क्या ठीक है ? हो सके तो सबके हृदय की अग्नि मिटा ये घर का चूल्हा बुझाना क्या ठीक है ? स्वाभिमान बिना, हर जीवन व्यर्थ है- बिना बुलाये कहीं जाना क्या ठीक है ? आदमी से भयानक, नहीं प्राणी कोई उनका जीवों को सताना क्या ठीक है ? कभी तो अन्तर में भी सिमट कर देखिए- हरदम स्वयम को दिखाना क्या ठीक है ? परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रे...
भाती है हिन्दी
गीत

भाती है हिन्दी

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** हमको सारा ज्ञान सिखाती है हिन्दी। भाती है, बस हमको भाती है हिन्दी। माँ के संग तूने ही जीना सिखलाया, कैसे बने महान तुम ही ने समझाया, संस्कारों को आचरण से कैसे जोड़ें - बचपन से, यह हमें बताती है हिन्दी। एक-दूजे को जोड़े, ऐसी कड़ी है तू, इसीलिए सब भाषाओं से बड़ी है तू, अन्य-अन्य भाषाओं के भी शब्दों को- अपना समझ के गले लगाती है हिन्दी। सभी विषय का ज्ञान समाया है तुझमें, श्रेष्ठ-जीवन का रहस्य भी पाया है तुझमें, व्यवहार करें हम कैसा, कहाँ जानते थे- हमको सामाजिक-ज्ञान कराती है हिंदी। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशि...
हे कृष्ण ! पुकारे…
गीत

हे कृष्ण ! पुकारे…

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** हे कृष्ण पुकारें तुमको अब तो आ जाओ अपनी सारी लीलाएं, फिर से दिखलाओ। भारत माँ को फिर से शत्रु ने घेरा है, और नागों ने अन्दर भी डाला डेरा है, तेरे सब ग्वाले भी सोये हैं चादर तान कर्म-विमुख सब, चारों ओर अंधेरा है, स्वार्थ में हम जो सदियों से खोए-सोये पाञ्चजन्य का घोष, तुम फिर से गुंजाओ। हम धर्म-कर्म सबको ही भूले-भाले हैं, हमसे बहुत दूर हो चुके सभी उजाले हैं, बुजुर्गों की ना सुनें, पढ़ें ना ग्रंथों को रातें तो रातें, सब ही दिन भी काले हैं, अर्जुन जैसा पात्र, बना करके हमको तुम गीता का सन्देश, आज फिर से गाओ। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक...
सागर बनकर
गीत

सागर बनकर

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** इस तम के पर्वत पर चढ़कर सूरज लाएंगे, फिर तो उत्सव घर-घर में हर रोज मनाएंगे। दुख के बादल दाँत दिखाते द्वारे-द्वारे पर, खट-खट कुंडी बजा रहे हैं किसी इशारे पर। शीघ्र अँधेरे को इसकी ओकात बताएंगे।। थोड़ी गलती हमसे हो गयी स्वार्थ में खोए, धर्म-कर्म सब भूल-भाल तालाबों से सोए। सागर बनकर के लेकिन अब ज्वार उठाएंगे।। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उसके बाद -वीर अर्जुन, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण, युग धर्म, विश्व मानव, स्पूतनिक, मनस्वी वाणी, राष्ट्रीय पहल, राष्ट्रीय नवाचार, कुबेर टाइम्स, मोनो एक्सप्रेस, अमृत महिमा, नव क...
तिरंगा लहराए
गीत

तिरंगा लहराए

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** हृदय में लहरें उठती हैं- जब-जब ये तिरंगा लहराए, बलिदानी जो बलिदान हुए- वह याद सभी हमको आये। इस माटी का मोल जरा- पूछो तो फौजी भाई से- बेटा जब बॉर्डर पर हो- तब पूछो उसकी माई से, अपनी भारत माँ के किस्से- हमको अम्मा ने बतलाए। हँसकर फांसी पर झूले- आजादी के मतवाले थे, सावरकर, शेखर, सुभाष- और भगत सिंह निराले थे, इन वीर सपूतों के कारण ही- आजादी को हैं हम पाए। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उसके बाद -वीर अर्जुन, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण, युग धर्म, विश्व मानव, स्पूतनिक, मनस्वी वाणी, राष्ट्रीय पहल, राष्ट्री...
इस समन्दर में
कविता

इस समन्दर में

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** तेरा बस, एक ही, ठिकाना है- तुझको, माया में डूब जाना है। लहरों के मोह में तू भूल नहीं- इस समन्दर में, ज्वार आना है। एक वायरस से बचा मुश्किल- फिर किसको, क्यों, सताना है। वो उलझते हैं जो समझते नहीं- ये जो जीवन का ताना-बाना है। अपने दर्दों को छिपाकर रखना- कुछ मजाकिया सा ये जमाना है। ये भोर यूँ, मुफ्त में नहीं मिलती- पड़ता, सूरज से, छीन लाना है। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उसके बाद -वीर अर्जुन, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण, युग धर्म, विश्व मानव, स्पूतनिक, मनस्वी वाणी, राष्ट्रीय पहल, राष्ट्रीय नवाचार, कुबे...
राजमहल में..
गीतिका

राजमहल में..

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** हमने, स्वयम ही उनको, कई बार मरते देखा निजी स्वार्थ के लिए ही, नजरों से गिरते देखा । जाना कहाँ है पूछा, तो कुछ भी बता न पाए लेकिन उम्रभर निरंतर, उनको है चलते देखा । हम दिशाहीन हो गए हैं, कोई राह तो बताए- उस चन्दा को अमावस में, हमने दुबकते देखा । राजा डरा हुआ है, उसे सूझे न जतन कोई इस राजमहल में भी, चोरों को पलते देखा । ये रोबोट बन चुकी है, एक भीड़ बहुत सारी- बिजूका-से, रक्षकों को अब हाथ मलते देखा । माना कि दूर हैं वो, उनकी यादें ही निकट हैं फिर छाए हैं क्यों बादल, मौसम मचलते देखा । परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाश...
सावन गाता है
गीत

सावन गाता है

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** सच-सच मेरे नयन बताओ, मत इन तारों को गिनवाओ, सूरत दिखा-दिखाकर चंदा मेघों में क्यों छिप जाता है ? क्यों श्वासों को नोंच रहे हैं यादों के पंछी आवारा, इच्छाओं की नाव बह चली और मन का खो गया किनारा, दूर रहो, ओ मस्त हवाओ ! पर मुझको इतना बतलाओ- मेरी वीणा टूट गयी जब- फिर ये सावन क्यों गाता है? छिपा-छिपा रोपे जो मैंने सब सपने नीलाम हो गए, तनिक जरा सी ठोकर खाई, और हाथों के जाम खो गए, मिलने का कोई जतन बताओ कोई मंत्र मुझे सिखलाओ पीपल भी तो पतझड़ बनकर फिर से पत्ते फल पाता है। परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उसके...
धरा पर सूर्य
गीत

धरा पर सूर्य

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** एक दिन, अपने जीवन का- अंधेरा भी मिटाना है, धरा पर सूर्य लाकर उजालों को चुराना है । इन केशों के जंगल की है, छाया बहुत काली, नहीं सच देखने देतीं हैं मेरी आँख मतवाली । हुई है आन्दोलित जीभ कि हमको और खाना है । ये मन, अब तो गगन को माँगते थकता नहीं देखो, कि उड़ जाता है, बाँधे से भी ये बंधता नहीं देखो । अधरों पर लगा ताला हृदय में डूब जाना है । परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उसके बाद -वीर अर्जुन, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण, युग धर्म, विश्व मानव, स्पूतनिक, मनस्वी वाणी, राष्ट्रीय पहल, राष्ट्रीय नवाचार, कुबेर ...