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Tag: श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी

शब्द
कविता

शब्द

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** १८ दिनों के संग्राम ने द्रौपदी को ८० वर्ष का कर दिया ! द्रौपदी कृष्ण से लिपट कर रो पड़ती हैं, कृष्ण उनको ढाढस नहीं बंधाते रोने देते हैं, द्रौपदी का दिल डूब रहा है, उसके दिल की व्यथा आंसुओ में बह रही है। बोल पड़ती हैं, मैंने ये कदापि नहीं सोचा था, केशव समझा रहे हैं, नियति क्रूर भी होती है, वो हमारे सोचने से नहीं चलती हमारे शब्द भी उसका निर्धारण करते हैं। तुम्हारा प्रतिशोध तो पूर्ण हुआ कौरवों का विध्वंस हुआ।। द्रौपदी पूछ पड़ती है केशव से क्या विनाश का कारण बनी मैं?? या विनाश लीला की उत्तर दाई हूँ?? नही हो इतनी महत्वपूर्ण तुम, क्रूर बनी परिस्थितियां, होती दूरदर्शी तुम जो बदली होती स्थितियाँ, नहीं पाती घोर कष्ट, यातना और अपमान!! क्यों मौन रही जब कुंती ने तुम्हें पांच पतियों ...
विमाता (कैकेयी)
कविता

विमाता (कैकेयी)

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** विधाता के संदेश को जानती थीं नियति थी ये भी ज्ञात था ! अवांछनीय कर दी जायेंगी ममता की परिभाषा से विमुख कर दी जाएंगी! मातृत्व प्रेम से नहीं अपितु कुमाता रूप मे जानी जाएंगी! उन्हें दुत्कारा जाएगा तमाम दोषारोपण लगाए जाएंगे, राज काज से बेदखल कर दी जायेंगी! आत्मविश्वास की धनी, कर्तव्य पर अडिग, ममता की मूरत थीं, कुशल योद्धा, उत्कृष्ट राजनीतिज्ञ थीं!! दो वाचनों का वरदान ले जिद पर अडी, राम को मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम बना गईं!! नारायण के पुनीत कार्य का आरम्भ बनीं, युगपत में व्याप्त घोर असंतोष का अंत कर रामराज्य लाने का स्त्रोत बनीं! राम के वनवास का कारक बनीं सम्पूर्ण जगत को राम नाम का बीज मंत्र दे गईं! अधर्म पर धर्म की विजय हो स्वयं का जीवन प्राण विहीन बना गईं!! कितने क...
थोड़ा अलग हूँ
कविता

थोड़ा अलग हूँ

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** हाँ मैं थोड़ा हट कर हूँ, क्युकी थोड़ा अलग हूँ! अंदर से टूटे होकर भी चेहरे पर मुस्कान लिए फिरती हूँ, लाखों अनसुलझे सवाल हैं पर मौन हो सब गुनती हूं थोड़ा तो सबसे अलग हूँ!! थोड़ा उलझी सी हूँ, सपनों की उमंग आज भी लिए फिरती हूँ उनको पूरा करने की जिद की तमन्ना रखती हूँ थोड़ा अलग हूँ!! बेपरवाह लोगों की परवाह करती हूँ आज तक जो ना समझ पाए लोग उनको समझने की कोशिश करती हूँ अपमान बार बार किए लोगों का भी सम्मान करती हूँ, रिश्तों में श्रद्धा रखती हूँ शायद इसीलिये थोड़ा तो अलग हूँ!! जीवों से प्यार करती हूँ उनकी परवाह करती हूँ , लोग अक्सर पूछते हैं ये बोलते तो नहीं फिर कैसे इनकी जरूरतें पूरा कर पाती हूँ?? इनकी मासूमियत में लाखों सवाल जवाब छिपे हैं इनके प्रति दुत्कार और तिरस्कार के, जिनको ...
थोड़ा खुश हो लेते हैं
कविता

थोड़ा खुश हो लेते हैं

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** चलो आज से थोड़ा थोड़ा खुश होते हैं, मन की दहलीज पर नई उम्मीदें सजाते हैं! बाहरी दुनिया से क्यूँ आस लगाना खुद से खुद में उमंग भरते हैं!! जितने भी घाव मिले अब तक मरहम बन दवा उनकी ढूंढते हैं , सूकून मिले अब दिल को दर्द का दामन छोड़ देते हैं!! कल तक झुठलाया था जिन राहों को पथरीली समझ कर, आज उन्हीं राहों से रूबरू होते हैं!! दुःस्वप्न था जो दुःखद था, अब मुस्कराहटों से नाता जोड़ लेते हैं !! हर एक जीव में रब है, खुदा है, ईश् और ईश्वर भी है, इंसान बन, इनकी तकलीफों को कुछ कम करते हैं इनके मासूम, निःस्वार्थ प्रेम में अपने आप को सराबोर करते हैं प्रभु की अनमोल भेट है ये प्रकृति ये जीव, ये जीवन इनमे खुशियां बांट स्वयं में बसे परमात्मा से मुलाकात करते हैं! चलो आज थोड़ा खुश होते हैं!! ...
यशोधरा
कविता

यशोधरा

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** बुद्ध को अमरत्व मिला, श्री विष्णु के अवतार बने, यशोधरा की बीथी बिसर गई विरह, वेदना, एकाकीपन, पीड़ा ही अर्जित कर पाईं!! प्रश्नो का अंबार लगा, क्यों तुम हमको छोड़ गए लिया था सात वचनों का बंधन इतनी आसानी से तोड़ गए! स्वयं पर विश्वास नहीं क्या बाधा मुझको समझ गए!! जब जूझ रहे थे अंतर्मन से कुछ तो बतलाया होता, इन प्राचीरों में, यूँ ही अकेला छोड़ गए!! नही विस्तृत कर पाई उन स्मृतियों को जो साथ तुम्हारे बीती थी उन सभी सुनहरे सपनों को अग्नि में सुलगते छोड़ गए!! देह का बोझ ढोना हुआ दुष्कर, सारी आशाएं कुम्हलाईं ! मृत्यु भी ना वर पाऊँ राहुल को पीछे छोड़ गए!! किस से बांटू वेदनाओं को कैसे उसको मैं बहलाऊं विरान, सिसकती इन दीवारों पर कोई संदेश छोड़ के नहीं गए!! मुक्ति पथ पर निकले थे, तुम समाधिस्थ हु...
गृहणियां
कविता

गृहणियां

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** अजीब सी होती हैं गृहणियां, समाज शास्त्र पढ़े बिना संबन्धों को तिनके-तिनके जोड़ती है ये गृहणियां मनोविज्ञान पढ़े बिना ही सभी की उलझने सुलझाती हैं ये गृहणियां होम साइंस ना हो पढ़ा कभी ,फिर भी पाक कला में निपुण होती हैं गृहणियां, दूध में साइटृक एसिड डाल पनीर बनाती, सोडा बाइ कार्बोनेट से स्वादिष्ट, स्पंजी केक बनाती, नित नए प्रयोग कर कर, सोडियम क्लोराइड का सही नाप तोल समझाती, खुद को वैज्ञानिक कभी नहीं समझ पाती ये गृहणियां , मसालों के नाम पर आयुर्वेदिक ख़ज़ाना भी हैं रखती, गमला, मिट्टी में, तुलसी, गिलोय, पारिजात , बो बोकर रसोईघर में ही औषधि बनाती, फिर भी कुछ नहीं करती ये गृहणियां सुन्दर रंगोली बनाती, चित्रकारिता में निपुण, ढोलक की थाप पर नृत्य और संगीत के मीठे सुर छेड़ती खुद को केवल ह...
नियति
कविता

नियति

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** जो कल सब कुछ यही छूटना है, उसे आज अपने हाथों छोड़ देना एक कला है ! उसी में ब्रह्म है, मोक्ष है और पूर्णता है !! भीड़ में उलझा अशांत मन, उस पीड़ा की अनुभूति भी नहीं कर पाता, जो मुक्ति के लिए बेचैन है, पानी के बुलबुले सा बनता बिगड़ता इंसानी जीवन, समझ नहीं पाता ! जब स्वयं के भीतर ही नहीं जाना दूसरी उलझनों में क्या पाओगे ! इस जीवन को एक उपलब्धि जानो कर्तव्य कर्म है, प्रेम सृजन, स्वयं के हृदय के मौन को पहचानो !! जिस दिन तुम मौन में उतर एकाकी हो जाओगे, उस दिन एक हाथ अपने हाथ मे महसूस करोगे, वो दूर नहीं तुमसे, बस तुम पास जा नहीं पाते उसके, तुम भीड़ में इस कदर बे हुए हो, देख नहीं पाते उसको! स्वयं में छिपे हुए परब्रह्म को पहचानो , वह ब्रह्म जो सभी वर्णनों, संकल्पनाओं से परे है! अंत ...
निःशब्द रात
कविता

निःशब्द रात

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** निःशब्द रात रात की चादर ओढ़ फिर आइ निःशब्द रात निर्जन तिमिर भरी राह की रात दुबके हुए चीखते चिल्लाते निशाचरों की ये रात !! ना जाने कहाँ गुम थे चांद सितारे अंधेरा तैरता हुआ घने बादलों की तरह फिर भी चल पडी तन्मयता से ओढ़ कर सन्नाटे की चादर यादो के दिए कि झिलमिल रोशनी अम्बर पर टिमटिमाते आंख फाड़े तारो की रात ! गुम हुए थे ये सारे रात के सहारे कभी पालकी सजा चलते थे ये हरकारे चाँद से मिलने के बहाने सुख दुख को गले लगाने, जाना है उसपार, जहां से वापस आना है दुश्वार! शनैः शनैः ढल रही है रात!! क्षितिज पर भोर ने दस्तक दी गहरी नींद से तब मैं भी जागी थी आप बीती सुना थक गई है रात गगन में सुनहरे सज रहे हैं तोरण द्वार निःसतबध कर गुजर गई निःशब्द रात!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्...
काया
कविता

काया

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** आज मैंने अपनी काया से पूछा तुम्हें और क्या चाहिए, इतनी लंबी यात्रा हुई कोई तो वज़ह होगी कुछ तो चाहत होगी चलते रहने की औषधियाँ तो बहुत हुई अब कौन सा परिपूरक चाहिए ? आकार पर बहस छिड़ी जो रंग रूप पर आकर ठहरी समय ने कई निशान दिए हैं भेंट स्वरूप इन खिंचाव भरे निशान पर चिंतन करना चाहती है कोमलता नहीं दृढ़ता चाहती है, पडती हुई सिलवटों को रोकना चाहती है उन सभी जानी अनजानी औषधियों से दूर होना चाहती है जो पुनः जीवित होने का ढोंग रचती हैं, "स्वयं" के बंधन तोड़ना चाहती है नश्वर जगत को समझना चाहती है उसके सारे प्रश्न धीरे-धीरे तैयार हो रहे थे तभी कानों में धीमी सी फुसफुसाहट सुनाई दी क्या अब भी तुम मुझसे प्यार करोगी!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतु...
जाल
कविता

जाल

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** प्रत्येक व्यक्ति स्वयं के लिए चहुँ ओर इच्छाओं का जाल बुनता है सुख और दुख के तराजू में तौलता हुआ कभी उठता तो कभी गिरता है, इच्छायें मरती है, जाल बिखरता है उम्मीदें समाधिस्थ होती हैं ताउम्र वो समझता है ईश्वर नाखुश है तभी तो आशाएं बिखर रही तिनका बनकर वह नहीं समझता संसार मिथ्या है कर्म शिव है! शून्य और अनंत के बीच उकेरते कुछ संवाद, जिसमें प्रार्थनाएं संजो देनी है, क्योंकि ये जाल उसने नहीं, स्वयं मनुष्य ने बुनी है!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश) सम्मान : राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच इंदौर द्वारा "जीवदया अंतर्राष्ट्रीय सम...
विकल्प
कविता

विकल्प

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** समय कभी तय नहीं होता होता भी तो मेरे हाथ मे नही है किन्तु विकल्प क्या है! चाँद और सूरज ने अकेले ही मजबूत बनने के बहाने दे दिए बारिश की बूँदों ने हथेलियों पर कुछ ख्वाहिशे रख दी जिनसे हथेलियाँ तो भीगी किन्तु रेखाएं भरी नहीं, ऊँचाई ने चलते चलते पर्वत के शिखर पर पहुचा दिया आनंदित हूँ क्युकी विदा का पल निकट आता जा रहा है उस हवा की तरह जाना चाहती हूँ कि गुजरूं करीब से तो सरसराहट की भनक भी ना हो, शिकन नहीं मुस्कराहट छोड़ जाना चाहती हूँ जीवन पर्यंत प्रयासशील रही सबकी झोली खुशियों से भरना चाहती थी जीना कोई मजबूरी नहीं, बस शिवमय होना चाहती हूँ!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी...
गौरैया की वाणी
कविता

गौरैया की वाणी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** सोचती हूँ स्वयं के अस्तित्वहीन होने के पहले अपना परिचय याद दिला दूँ इसी बहाने मानव की संवेदनहीनता का परिचय दे दूँ इस स्मृति दिवस पर सबकी यादों को ताजा कर सकूं सबको बता सकूं, कभी हर घर के मुंडेर और झुरमुट में होता था घोंसला हम नन्ही परियो का फुदकते-चहचहाहते कभी इत आंगन कभी उत आँगन छोटा सा अपना जीवन गुहार लगाती, कराहती नष्ट होती जा रही हैं हम गौरैया ज्ञान विज्ञान ने ऐसा हाहाकार मचाया सुख रहे नदी गाँव और ताल बसेरा होता था हरी-भरी वृक्षों की डालियाँ, छज्जा बनती थी टहनियां, कभी किसी रोशनदान, कभी किसी आँगन में झूमा करती थी हम सब अनवरत विकास ने उजाड़ दिए वो हरियाली वो घर आंगन, कहां जाए दाना चुगने, संग अपने सखी सहेलियों के फुदकने, हम सब तो हैं पर्यावरण की सहेलियाँ घरों की शुभ ल...
कुछ लिखूं
कविता

कुछ लिखूं

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** मन की लिखूं तो शब्द रूठ से जाते हैं और सच लिखूं तो अपने, जिंदगी को समझना चाहूँ तो सपने टूट जाते है और हर घड़ी अपने लिखू तो क्या लिखूं अब ना अपने हैं ना सपने कुछ अजीब सा चल रहा है ये अंतर्द्वंद गहरी खामोशी है खुद के अंदर एक ऐसी जगह चाहिये जहां खुद को भी ना ढूँढ पाऊँ कभी उड़ जाऊँ स्वच्छंद सी किसी रोज़ इस जहां से गुम ही जाऊँ एक तिनका बन के लहरों की गहराई में छोड़ जाऊँ ना मिटने वाले निशान सबके हृदय में चढ़ जाऊँ किसी फूल की पंखुडी बन श्री चरणों में कभी ना मुरझाने का आशीर्वाद लिए!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश) विशे...
याचक
कविता

याचक

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** यह हार नहीं क्षणिक विराम है क्योंकि जीवन कुरुक्षेत्र का महासंग्राम है बुरे कर्म बुरे शब्द अब नहीं ग्रहण करूंगा बहुत हुआ खुद से विमुख होना दया की भीख अब नहीं मांगूंगा वरदान लूँगा, चाहे वो तमस हो, चाहे हो ताप , जान चुका हूँ सम्मान के बिना कोई अस्तित्व ही नहीं मनुष्य बन धर्म की संपूर्ण कला से विकसित करूंगा स्वयं को मुक्त आए थे जीवों का जीवन बदलने का संकल्प लिए, है सृष्टि का कर्ज इस जन्म मे मेरे लिए बार-बार आना पडे इस कर्तव्य पथ पर फिर भी, भागुंगा नहीं विक्षिप्त होकर बार-बार ही सही मुक्त आया हूँ मुक्त ही जाऊँगा, अनवरत अनन्त काल तक!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र,...
गौशाला की रूनझुन
कविता

गौशाला की रूनझुन

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** मेरे हृदय स्थल पर मायूसी सी छा जाती है तब घोर अंधेरा छाता है जब रूनझुन की ध्वनि ना हो जेठ महीने की तपन भरी दुपहरी की क्षवरी तन मन को झुलसाती है, तब शीतल सा फव्वारा बन कर घंटी की ध्वनि छा जाती है मन मंदिर सा पुलकित हो जाता है मुरझाया मन खिल जाता है गर्वित होता मेरा जीवन इस ध्वनि के उन्माद से सांसो की लय चल पडती है प्राणों में सुर छा जाता है, कर लूं कुछ संभाषण इनसे मेरा मन अकुलाता है कूद कूद और उछल उछल रहते है ये अब मस्त मग्न इनकी रूनझुन की ध्वनि सुन कर लब झंकृत हो जाता है मंदिर की इन्हें घंटियों में मेरा मन रम जाता है कभी ओम कभी आमेन कभी अमीन निकल आ जाता है !! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम...
पारितोषिक
कविता

पारितोषिक

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** मेरे जाने के बाद, मेरा ये प्रेम ये स्नेह यादों मे सजाए रखना मैं वहीं पारितोषिक हूँ, जिसे पाने की चाहत में खो दिया तुमने बहुत कुछ खो रहे हो, समय, तन, मन धन और बहुत कुछ मैं तुम्हारी स्मृतियों में किसी पहाड़ी जीव की तरह कुलांचे भरता यहां वहां विचरण करता रहूँगा , मेरी उपस्थिति तुम्हें राहों में, गलियों,कूंचो में दिखाई देगी तुमने तो सजाया था मुझे अपने मुकुट के मान सा औरों को ना हो पाया कभी उसका भान सा मेरे आंसुओं को खारा पानी समझ झटका करते थे जो उनकी सोच में मेरे आंसुओं की मिठास बोओगे तुम सोचता रहा उम्र भर तरसता रहा प्रेम करुना, सम्मान को जिस, मधुकर रिश्ता बनाओगे, है विश्वास इस बात का ! जब मैं विदा लुंगी, लूँगा, महसूस करोगे मुझे किसी फूल सा, महाकाया जिसने था कभी कोई घर आँगन मेरी याद क...
ख़त
कविता

ख़त

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** डायरी के पन्नों को पलटते-पलटते हमे याद आने लगे वो तुम्हारे खत कितने महके से हुआ करते थे वो ख़त खुशी का खजाना हुआ करते थे वो ख़त गहरी नींद से जगा दिया करते थे ख़त जागती आँखों में सलोने सपने संजोया करते थे वो ख़त दिल के ज़ज्बात से मुलाकात किया करते थे वो ख़त वक़्त की इस दौड़ में कहीं विलीन हो गए वो ख़त ना वो सपने रहे ना मीठी नींद देने वाले वो ख़त दूर तक फैली ख़ामोशियां हमसे ये सवाल करती हैं कभी-कभी तो बाते हजार करती हैँ चलो पुराने ख़तों से फिर से मुलाकात करते हैं शब्द तो अब भी छुपे होंगे उन पन्नों में क्या पता फिर से चल पड़े वो सिलसिलेवार ख़त!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास...
मैं हूँ ना
कविता

मैं हूँ ना

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** आंधी और तूफ़ानों ने उजाड़ दिए हैं ज़न जीवन वृक्ष अटल एक डटा हुआ पत्ता एक ही बचा हुआ अकेला, कांपता, थरथराता ना उम्मीद हो चला है शनैः-शनैः हिलता कुछ अगल बगल ढूँढता गहन चिंतन में डूबा हुआ, ठौर ठिकाना गुनता हुआ निराश हो चला है, किस्मत से हारा हुआ सा है नई कोपलें तो आएँगी, पर उनके साथ बसेगा कौन अंतर्मन से भयभीत भी है, फिर भी उम्मीद की किरण लिए हुए उस इकलौते पक्षी को संपूर्ण आस से कहता है निडर बनो तुम डटे रहो, धीरज से धैर्य धरो वृक्ष डरता हुआ, संकुचित मन से विश्वास के दो बोल बोल ही जाता है "मैं हूँ ना" ... !! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी :...
संरक्षण
कविता

संरक्षण

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** कभी कभी लगता है मन के भावों ने ठिकाना बदल दिया हो जैसे सभी शब्द भावनाओं के पिरोए जा चुके हैं सभी अश्रु धाराएं बह चुकी हो जैसे सामर्थ्य और ताकत आजमाए जा चुके हैं प्रेम और करुणा का रस सूख गया हो जैसे सभी विकल्प ढूंढे जा चुके हैं राहें भरमाई जा रही हो जैसे वक़्त का पहिया पूरा घूम चुका है समय अधिक शेष नहीं हो जैसे भाव शून्य, दिशा शूलय, ईच्छा शक्ति टूटती सी क्या अब पुकार सुनेगा कोई डर की, रूदन की, क्रंदन की, चीख और पीड़ा, आत्मबल झकझोर रहा, नए शब्द ढूंढे जाएंगे, हिम्मत नहीं हारेंगे नई ऊँचाइयों पर चढते जाएंगे, अश्रु नहीं आस्था के गीत गाएंगे हो भले बाधाएं अनगिनत, जीवों का जीवन सुगम बनाएंगे इतिहास बन जाएंगे करुणा और संरक्षण का इतिहास बनाएंगे!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्...
संरक्षण
कविता

संरक्षण

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** कभी कभी लगता है मन के भावों ने ठिकाना बदल दिया हो जैसे सभी शब्द भावनाओं के पिरोए जा चुके हैं सभी अश्रु धाराएं बह चुकी हो जैसे सामर्थ्य और ताकत आजमाए जा चुके हैं प्रेम और करुणा का रस सूख गया हो जैसे सभी विकल्प ढूंढे जा चुके हैं राहें भरमाई जा रही हो जैसे वक़्त का पहिया पूरा घूम चुका है समय अधिक शेष नहीं हो जैसे भाव शून्य, दिशा शूलय, ईच्छा शक्ति टूटती सी क्या अब पुकार सुनेगा कोई डर की, रूदन की, क्रंदन की, चीख और पीड़ा, आत्मबल झकझोर रहा, नए शब्द ढूंढे जाएंगे, हिम्मत नहीं हारेंगे नई ऊँचाइयों पर चढते जाएंगे, अश्रु नहीं आस्था के गीत गाएंगे हो भले बाधाएं अनगिनत, जीवों का जीवन सुगम बनाएंगे इतिहास बन जाएंगे करुणा और संरक्षण का इतिहास बनाएंगे!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा...
दीवारें
कविता

दीवारें

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** दीवारें सब सुनती हैं, सहती है आत्मसात करती हैं खिलखिलाहट और दर्द की राज़दार होती हैं घर की दरकती दीवारें, रिश्तों के टूटन का आभास कराती हैं कभी बुने थे हजारों सपने कई आकांक्षाये कुछ कढ़ गए हैं कहानी में कशीदाकारी की तरह पुरखों की यादे समेटे स्वयं में ये दीवारें हमसे तुमसे कुछ कहना चाहती हैं समय मिले तो जरूर आकर मिलना, इन दीवारों से जिसकी नींव चुनी थी पूर्वजों ने अपने खून पसीने से संदेश सुनने को तरस रही हैं आज ये दीवारें झुक चुकी हैं, फिर भी टूटी नहीं हैं, खड़ी हैं गर्व से सिर उठाए अपने दम पर हैं इंतजार में कि गूंजेगी खिलखिलाहट और संगीत के स्वर फिर एक बार किलकारियों से सुखद अनुभूति कराएंगी नई फसले फिर से आंगन रोशनी से जगमगा उठेंगे इस कल्पना ने नए प्राण फूंक दिए हैं मानो इन...
उदित हुआ हूँ मैं
कविता

उदित हुआ हूँ मैं

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** उदित हुआ हूँ पुनः अंधकार का सीना चीर कर मृत्यु का भय नहीं, ना कुछ खोने का डर है, अनंतर चल पड़ा हूँ अपने अग्निपथ पर संघर्षशील चुनौतियों का सामना करने! निर्मित हुआ हूँ, विकसित हुआ हूँ लौटा हूं प्रकाश पुंज बनकर दिए की लौ की भांति नहीं, दिवाकर का तेज लेकर, कर्मों के समीकरण से सुलझा सकता हूँ शतरंज की इस पारी को, जो विधाता ने बिछाई थी, किन्तु मैं अजेय होकर निखरा हूँ लिखूँगा अब जीवों का भाग्य मैं स्वयं ही, ना होगा उसमें कोई छल समझौता, ना ही असफलता की होगी कोई परिभाषा उजियारा बन छा जाऊंगा इस विशाल नभ और थल पर, पराजय कोई विकल्प नहीं, अब जीत के मंत्र की जीवनी लिखूँगा! माना कि जीवन संघर्ष का नाम है परंतु स्वयं के पुरुषार्थ से पुरुषोत्तम बनूँगा जीवों के लिए नहीं है शेष कोई उधार मेरे ...
हम सहेलियाँ
कविता

हम सहेलियाँ

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** हम सखियाँ, हम सहेलियाँ, हम हैं हमजोलियां, बात बहुत पुरानी है, पर प्यार, स्नेह, लगाव, परवाह अभी भी नया है जीवन की राह में मिलती हैं कई सखियाँ किन्तु कुछ ही प्रिय और अनमोल बन पाती हैं सहेलियाँ, हम भी हैं कुछ वैसी ही सलोनीयां बरसों साथ रहे, सुख दुख भी बांटे साथ-साथ बच्चे भी बन गए आपस में सहेलियाँ! कभी कहीं जाते कभी कहीं जाते, साथ थिरकते साथ गाते साथ ही साथ हर उत्सव मानते! कभी कोई रूठता कभी कोई टूटता, आपस में मिलकर उसे मनाते और फिर से जुड़ जाते गहरी सहेलियाँ! समय बीता, साल बीते, बच्चे बड़े हुए थोड़ा दूर निकल गए बालों में सफ़ेदी की चमक आई, चेहरे पर सिलवटें भी आ गयीं, थोड़ा कमर भी छुकी थोड़ा मध्यम हुए, जिम्मेदारी के बोझ तले कभी असहाय-लाचार भी हुईं हम सहेलियाँ, मगर सबको साथ लेक...
मनुष्य
कविता

मनुष्य

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** यदि मनुष्य हो, मनुष्यता को अपनाओ धर्म अधर्म, रंग रूप, के भेदभाव को छोडो ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना हो, श्रेष्ठ बनकर दिखाओ! स्वयं के ज्ञान चक्षु को खोलो, धर्म की ध्वनि को पहचानो, निकल पडो इस दुरूह पथ पर पथिक बनकर, वहीं रुकना, मनुष्य की परिभाषा ढूँढने, जहां वो मिलेगा जीवों के रूप में, जो नहीं होगा घृणा, द्वेष, ईर्ष्या से संचित, वहीं मिलेगी परिभाषा तुम्हें मनुजता की, निश्चल प्रेम, स्नेह, करुणा भक्ति और बहुत कुछ, अज्ञानता के बोझ से निकल कर शाश्वत सत्य को पहचानो, यदि मानव बन मानवता को समझ सके, तो लौट आना परिपूर्ण बन अपनी उसी कुटिया में, जहाँ मिलेगा ईश्वर, अल्लाह, खुदा, हंसता-मुस्कराता, निश्चल प्रेम से सराबोर जीवों के रूप में तब कह देना तुम, सृष्टि की श्रेष्ठतम रचना हो मनुष्य के रूप में!...
नंदी
कविता

नंदी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** शिव है सत्य, नंदी हैं धर्म नंदी के बिन शिव अराधना है व्यर्थ नंदी को हमने छोड़ दिया, गौ वंशों का संहार किया भूख प्यास से तड़प तड़प, सड़कों पर दम तोड़ रहे ये कैसी पूजा है शिव की ये कैसे भक्त बने शिव के ??? बछड़ो को अधिकार है जीने का, नंदी बन पूजे जाने का कैसे कहलाएंगे सनातनी, अपनी ही संस्कृति भूल रहे !! नंदी की विह्वल पुकार सुन, दिल रोता पल प्रतिपल, इनके अश्रु विध्वंस बने, विकराल, प्रचंड, विनाश बने जो लील रहा है जन-जीवन ये आँसू वो सैलाब बने! हे मनुज उठो हे जन जागो, रोको ये ध्वंस, विनाश, प्रलय, मानव के भीतर दानव का अब उठ कर के संहार करो नव चेतना नव विज्ञान से संचित करो अनमोल है हैं ये नंदी ही नंदीश्वर हैं, यही साधना नील कंठ की, नंदी ही ना बच पाए जो कैसे होगा फिर शिव पूजन!! परि...