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अन्न का दान

काजल
स्वरूप नगर (नई दिल्ली)
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मासूमियत सी
तल्ख आखें
सिग्नल लाइट के
चौराहे पर हाथ बिखेरे
मांग रही अन्न का दान।

फटे पुराने कपड़े, हा जी,
भूख की मार कर रही,
भीख का काम।

गरीब,
गरीब कहे या
किस्मत की मार,
देख उन्हें गाड़ीवान
बढ़ा देता अपनी रफ्तार
दया करुणा ममता?

इन आखों में सब
है तिरोभाव
यही वजह है गरीब
होने का इतिहास।

ये आंखे बया कर रही
अकल्पनीय
भोगा हुआ यथार्थ।

इंसानियत की मार,
डाल रही लोगो में फूंक।

मूक दर्शक,
देख न पाए,
हक़ीक़ी उनकी
कांच का लिए पर्दा डाल।

बचपन में जो न
खेले खिलौनों से
खेल रही आज
गरीबी के कोने में

खिलौना,
खिलोने नही न
कोई गुड्डा गुडिया,
वह तो है पहिया
एक गाड़ी का।

जिसे घुमाकर,
बच्चा हो रहा
प्रसन्न-चित्त,
गरीबी का दुःख
नहीं कर सकता
उसकी अभिलाषा को दूर।

फिर भी,
मासूमियत सी
तल्ख आखें
सिंगनल लाइट पर
हाथ बिखेरे तल्ख आंखे
नर्म फंसलिया
और पूर्ण आशा
शायद आज मिले
अन्न का दान।

परिचय :-  काजल
पिता : सोहन सिंह
निवासी : स्वरूप नगर, नई दिल्ली
संस्थान : एम.ए. हिंदी विभाग (दिल्ली विश्वविद्यालय)
घोषणा पत्र : मेरी यह कविता स्वरचित एवं मौलिक तथा अप्रकाशित है।


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