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एक आवाज़ ऐसी भी

सपना मिश्रा
मुंबई (महाराष्ट्र)
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पूछा एक दिन मैंने,
मेरे अंदर छुपी आत्मा से कि,
क्या मैं तुम्हें सुन पा रही हूँ।
पूछा एक दिन मैंने,
मेरी आखों से कि,
क्या मेरे अंदर छुपे दर्द को
मैं देख पा रही हूँ ।

अंदर से ग़ुस्से में एक आवाज़ आयी,
जिसे सुनकर ऐसा लगा जैसे
नाराज़ हो मुझसे मेरी
अंर्तरआत्मा सालों से
और मुझसे कभी
बात नहीं करेगी।

बहुत मानने पर मानी वो उस दिन।
फिर बोली !
आज कल तुम बहुत बदल गयी हो।
मुझे सुनकर भी नहीं सुनती हो तुम।
मुझे देखकर भी अनदेखा करती हो तुम।
जाने कहाँ खोयी रहती हो आजकल तुम।
तुम तो ऐसी बिल्कुल भी ना थी।
अब तो ना ही तुम मुझे सुनती हो,
ना ही देखती हो।

याद है वो दिन जब तुम
मुझसे घंटों बातें किया करती थी
अकेले में बैठकर।
कितना हंसते थे हम दोनों
एक दूसरे को सुनकर,
देखकर और महसूस करके।
अचानक तुमको क्या हो गया,
जो तुम इतनी बदल गयी।
ऐसा लगता है मानो!
तुम मुझसे कितनी दूर चली गयी हो।

फिर! मेरी आत्मा ने पूछा मुझसे?
क्या सच में अब तुम मुझे
कभी नहीं सुनोगी?
क्या सच में तुम मुझे अब
हमेशा अनदेखा कर दोगी?
क्या हम दोनों अब एक दूसरे को
कभी महसूस नहीं कर पाएँगे?

मैं बिल्कुल स्तब्ध खड़ी थी की,
क्या जवाब दूँ अपनी अंर्तरआत्मा को,
कैसे समझाऊँ उसे की
कितनी ज़िम्मेदारियाँ हैं मुझपर।
कैसे कहूँ उसको की भूल जाओ
उन स्मृतियों को,
वो तो केवल बचपना था।

फिर मेरी अंर्तरआत्मा ने कहा मुझसे,
विश्वास है मुझे तुमपर।
तुम लौटोगी एक दिन मेरे पास।
मैं तुम्हारी राह देखूँगी।

परिचय :- सपना मिश्रा
निवासी : मुंबई (महाराष्ट्र)

घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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