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ग्रीष्म

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”
इन्दौर (मध्य प्रदेश) 

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टपक रहा है ताप सूर्य का, धरती आग उगलती है।
हवा मचलकर लपट फैंकती, पोखर तप्त उबलती है।।

दिन मे आँच रात में अधबुझ, दोपहरी अंगारों सी।
अर्द्धरात अज्ञारी जैसी, सुबह-शाम अखबारों सी।।

सिगड़ी जैसा दहक रहा घर, देहरी धू-धू जलती है।
गरमी फैंक रही है गरमी, तपती सड़क पिघलती है।।

सीना सिकुड़ गया नदियों का, नहरें नंगीं खड़ीं दिखीं।
कुए-बावड़ी हुए बावरे, झीलें बेसुध पड़ीं दिखीं।।

उतरा हुआ ताल का पानी, पहुँच गया पाताल तलक।
हरी सब्जियाँ ग़म में डूबीं, दाल सुखाने लगी हलक।।

आस-पास के बोरिंग सूखे, सरकारी नल चले गए।
हैण्ड पम्प में रेत आ गया, ऐसे प्यासे छले गए।।

घातक तपन धूप की बेटी, घर के कोने-कोने में।
उमस और धमकों को लेकर, उलझी खेल खिलौने में।।

बनकर बहू ससुर घर आई, लदी सुहाने सोने में।
मगर सास पर अपना गुस्सा, उगल रही पट धोने में।।

गोरी गोरी के गालों की, पूरी उतर गई लाली।
काली आँखें लाल हो गईं, गोरी देह पड़ी काली।।

तपन-घुटन में हौकन ज्वाला, बाग-बाग में लगी हुई।
बदली जैसी बरस रही है, आग-आग में लगी हुई।।

ऊनी वसन बिना खिड़की की, जेलों में हैं गुड़ी मुड़ी।।
एक दूसरे के ऊपर चिपके जैसे हो गए घड़ी।।

जीव-जन्तु पशु-पक्षी वनचर, प्यासे आकुल लगते हैं।।
जीभ निकाले श्वान हाँफते, बेबस व्याकुल लगते हैं।

हरे खेत हो गए मरुस्थल, पर्वत रेगिस्तान हुए।
सारे विटप बिना छाया के, जलते हुए मकान हुए।।

एसी-कूलर अंखे-पंखे, डुलें वीजने नरमी से।
बिगड़ रहे हैं सुधर रहे हैं, जूझ रहे हैं गरमी से।।

जिनके सुधरे ए सी-फ्रीजर, कूलर पानी आता है।
उनके घर में जेठ मास में, जड़काला आ जाता है।।

इस पर भी यदि बिजली माता, चली गईं तो मरना है।
धार लगाकर चुए पसीना, तन बन जाता झरना है।।

करवट बदल रहा है मौसम, मन सूना पनघट क्यों है।
चलो चलें गर्मी में देखें, मरघट पर जमघट क्यों है।।

मन बेचैन हृदय घायल सा, उठा-बैठ में अड़चन है।
साँस खंजरी सी बजती है,धक-धक करती धड़कन है।।

जीने-मरने की नौबत है, प्यासों में अकुलाहट है।
घर भर है हलकान सुबह से, मौसम में गरमाहट है।।

कीमत बढ़ी हुई छाया की, लगी हुई आवाजाही।
पत्तेदार हरे पेड़ों के, नीचे पड़े कई राही।।

ककड़ी की बढ़ गई मांग तो, तरबूजों को बुरा लगा।
तरबूजों के भाव घटे, तो खरबूजों को बुरा लगा।।

आइसक्रीम बेचनेवाले, की बिगड़ी बन आई है।
इतनी हुई कमाई सजनी, को नथनी बनवाई है।।

खौल रहा है पेट “प्राण” का, शरबत चाहत करता है।
मगर सुगर हो गयी घूँट भी, तन को आहत करता है।।

कोई तो सूरज को बोले, या लाए काली बदली।
सुनता नहीं किसी की कोई, कहाँ गए बजरंग बली।।

परिचय :- गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”
निवासी : इन्दौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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