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राम, बाहर निकल …

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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राम, बाहर निकल …
राम, बाहर तो निकल…
हठ मत कर,
ज़्यादा मचमच मत कर।
तू बाहर नहीं निकलेगा तो
‘स्वच्छता अभियान’
धरा रह जाएगा…

पकड़ तेरी बाल-पोथी,
देख सूरज चढ़ गया l
स्कूल की टन-टन बज गई,
डर मत, जाकर पढ़,
जाकर मर-छत के
नीचे दबकर मर!
क्या कहा? डर लग रहा है?
छत जर्जर है, झर-झर है…
ऐसे “अघट” से मत डर,
सब जगह अघट ही अघट है…

मौत से क्या डरना?
घर में भी घर कर ही जाएगी।
राम, तू अभी बच्चा है,
देश का भविष्य है,
तुझे भविष्य-निर्माताओं के
हाथों में मरना शोभा देता है-
यहाँ बेनाम सा मर जाएगा-
बीमारी से, भूख से, ग़रीबी से,
या फिर लाद देगा बाप
तुझ पर ज़िम्मेदारियों का बोझ।
देख सरकार ने क्या किया है-

तुझे इज्ज़त से मरने का इंतज़ाम!
सरकारी इमारतें बनाई ही ऐसी हैं
कि आप लोग शान से मर सकें,
अंकड़ों में आ सकें-
मुआवज़ा और मुद्दा- दोनों मिलेंगे,
मुआवज़ा तुझे, मुद्दा विपक्षी पार्टी को।
देख, हमने तो सरकारी
भवन ही ऐसे बनाए हैं-

जहाँ तुझे सरकार हर
क़दम पर नज़र आए-
जर्जर, लीक करती दीवारें,
खंडहर, दरारें-
सब सरकारी सिस्टम की
अमूर्त पेंटिंग हो जैसे।
मत चल ऐसे संभल के,
कुछ तो मदद कर,
देख बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं …

दरवाज़े पर दंगे हैं,
गली में गड्ढे हैं,
रपटाती सड़कें है
फिसल कर मर ।
सड़क पर रैलियाँ हैं,
पुल पे दरारें हैं,

भगदड़ है, भीड़ है,सत्संग है
बिजली का खंभा भी
झूलते तारों के साथ
अब गले लगाने को है तैयार-
बलात्कार, आगजनी,
हत्या, लूटमार-
दरकते पहाड़ हैं, बाढ़ है,
मतवाले, मस्त हाथी जैसा ट्रैफ़िक है …

सब कुछ तेरी
सेवा में अर्पित है,
लोकतंत्र के भविष्य…
तू निकल तो सही!
बस और ट्रेनें भी कहीं
किसी खाई में गिरकर
अंजाम दे ही देंगी।
वैसे तो हवाई
जहाज़ तक गिर रहे हैं।
लेकिन तेरी औक़ात कहाँ
ऐसे हाई प्रोफाइल
तरीके से मरने की?

बहुतेरे इंतज़ाम हैं तेरे लिए-
तेरी हड्डी-पसली एक न कर दी
तो सरकार का नाम लेना छोड़ देना।
तू है न ज़िद्दी-
घर में क्यों पड़ा रहता है?
देख, मौत कैसे
पलक-पांवड़े बिछाए
तेरा इंतज़ार कर रही है-
बस तू घर से बाहर तो निकल!
वो श्याम तो जा नहीं रहा…
मैं क्यों जाऊँ?
चिंता मत कर-
कदम कदम पे लिखा है:
“मरने वाले का नाम।”

सरकार ने सबकी मौत का
बंदोबस्त कर रखा है-
श्याम का घर पर रहकर
ही बंदोबस्त है-
मौत एट योर डोर स्टेप !
तुझे खबर है की नहीं
प्रशासन कब से तेरी
खबर लेने पर तुला है-
तू कब अख़बार में छपे,
तू खुद अख़बार
बन जाएगा राम!
तो डर मत,
बस बाहर निकल।

एक तू ही है जो
विश्वास नहीं करता…
हमने तो अस्पताल में भी
पूरे इंतज़ाम किए हैं कि
राम बच न पाए!
पता नहीं ये राम
कितना जीवट वाला है-
मरता ही नहीं- बस
जीने के लिए मरा जा रहा है!
यही तो सरकार की टेंशन है।
तू बच गया तो योजनाओं
का सारा टेंशन है!
मुआवज़ा किसको बाँटेंगे?
न्यूज़ वालों की टी आर पि की टेंशन,
विपक्षियों को मुद्दे की टेंशन-
इन सबकी टेंशन…

धोड़ा ध्यान कर,
स्वार्थी न बन
तेरा मरना ही सिस्टम की
मृत आत्मा के लिए ‘सीपिआर‘
जैसा काम करता है-
सिस्टम को दो-चार
घंटे के लिए कुछ साँसें
देने का काम कर।
देख, कितनी मुस्तैदी से
सिस्टम के बुलडोज़र
सबूतों के कचरे के
निस्तारण में लगे हैं।
कितनी तेज़ी से सिस्टम
संवेदनाओं की फैशन
परेड में लगा है।
राम, बाहर तो निकल!
वोट देने, धरना देने!
छत पे, छज्जे पे-
गली में कूचे में,
जरा मुंडी ही दिखा दे
खिडकी के बाहर
बस बता दे सबूत की
देख तू अभी भी ज़िंदा है ..

बस भीतर मत रह-
यहाँ अकर्मण्यता है-
सिस्टम में तुम्हारी
भागीदारी न करने के
आरोप में धारा लग जाएगी!
राम, तेरी भलाई इसी में है कि
तू बस साँस ले और चुप रह।
जैसा सरकार कह रही है-
वैसा कर।

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से), काव्य कुम्भ (साझा संकलन) नीलम पब्लिकेशन, काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन ) लायंस पब्लिकेशन।
प्रकाशनाधीन : व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन )  किताबगंज   प्रकाशन,  गिरने में क्या हर्ज है -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह) भावना प्रकाशन। देश विदेश के जाने माने दैनिकी, साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित 
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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