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एक राष्ट्र, एक चुनाव- बेरोज़गारी के बढ़ते भाव

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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देश में “वन नेशन, वन इलेक्शन” का पुछल्ला बड़े जोर-शोर से उछाला जा रहा है। जाहिर है, जब सभी अपनी राय उंडेल रहे हैं, तो भला मैं क्यों चुप रहूँ? राय देने में रत्ती भर भी गुरेज नहीं है अपुन को… कोई माने या न माने। मुझे तो देश के युवाओं की रोज़ी-रोटी पर लात मारने जैसा लग रहा है यह! ज़रा उन लोगों की सोचो जो चुनावों के चूल्हे पर ही अपनी दो जून की रोटी सेंकते हैं । उनकी तो रोज़ी-रोटी ही छिन जाएगी साहब! वैसे ही देश में रोज़गारों की भट्टी बुझ चुकी है… थोड़ा-बहुत रोज़गार इस चुनावी सीज़न में मिल भी जाता है…
सरकार उस पर भी छीना-झपटी करना चाहती है! देखो न, नज़र उठाकर… भारत के नक्शे पर उंगली फेरो ज़रा… कहीं न कहीं कोई न कोई राज्य पर लटकी हुई हैं चुनावी झालरें… चुनावी सावों का दौर- जुलूस, जलसा, जुगाड़… बमचिक सा चुनावी मेला टाइप का खिंच ही गया है।
अब जब बारहमासी यह त्यौहार, कहीं न कहीं अपनी जाजम बिछाकर पसरा हुआ है, तो देखो न, कितने ही बेरोज़गार आदमी और आदमी जैसे दिखने वालों को लगा रखा है काम पर- सांसदों के, विधायकों के, सरपंचों के, पार्षदों के… चुनावी धंधा भी धंधा है साहब! धंधा कोई बुरा नहीं… धंधा कोई छोटा नहीं… थोड़ी सी ठनगन हो आप में, तो छोटे-छोटे चुनावों में भी अच्छा पैसा कूट सकते हो। अब यूँ मानिए – वैसे भी एक राज्य में धंधे की मार आदमी को दूसरे राज्य में पलायन कर ही रही है… तो ऐसे में इस राज्य में हो गए चुनाव, तो क्या! उठाओ झोला, और अपने नेता का सिफ़ारिशी लेटर… वो दूसरे राज्य में भी लगवा ही देगा… जहाँ दो पैसे मिले साहब, वहीं बसेरा!
अब जब चुनाव पाँच साल में एक बार होंगे, तो कितना ही वो कमा पाएगा? साल भर की रोज़ी-रोटी नहीं निकाल पाते हैं साहब! और आप बात कर रहे हैं पाँच साल की! ज़्यादा से ज़्यादा तीन महीने का जुगाड़ खींच- खांच के!
लेकिन तीन महीने तो बढ़िया चलता है सब… भीड़ के बेतरतीब आँकड़े, गले फाड़ते हुए नारे, बदहवास सा शोर, हलुआ-पूरी, आलू के झोल की सब्ज़ी, चाट-पकोड़ी, सपाट धूल उड़ाती जीप में सवारी, चाय-बीड़ी, सिगरेट, दारू-शारू, पिस्टल-बिस्टल… टोपी लगाओ तो ठीक, नहीं लगाओ तो रखो जेब में- नाक पोंछने को काम आएगी!
बैनर लगवाने के नाम पर मज़दूरी में दो-चार रुपए का जुगाड़ भी हो जाता है… दिहाड़ी का अच्छा जुगाड़। अच्छा धंधा चलता है चुनावी मेले में! सज जाते हैं- बिना ठेके की टेम्पररी रूप से उठायी गयी दुकानें- ठेले ही ठेले , ठेलों पर ठेलते हुए नारे, “जय हो”, “जीतेगा भाई”, “जीत गया”, “हमारा नेता कैसा हो…” झंडियाँ, पोस्टर… ढकेलते-धकियाते, दूसरी पार्टी के कार्यकर्ताओं से भिड़ते-लड़ते-भौंकते। खूब दुकानें… ‘बस कौन-सी दुकान उठानी है भैया, रेट-शेट मालूम कर लेना पहले।‘ पिछली बार इस पार्टी की दूकान ने मजदूरी में घपला किया..बचना इस से !“ क्या कहा रेट-शेट? अरे वो तो उस पार्टी की विचारधारा का आदमी है भाई! नेता उसका आदमी है, उसकी जात का भी… वोट तो उसे ही देना है। अपनी जात के १०० वोट और दिलवाएगा भई…! अब बताओ ..दद्दा की भी

तो बात निराली..दद्दा पैसे भी दे रहे हैं इस काम के… वो तो वैसे भी जी-जान से जुटा है… पर दद्दा हैं न, बहुत उदार टाइप के हो जाते हैं चुनावी मौसम में! बहुत ही अच्छे से सुनती हैं पार्टियाँ इन बेरोज़गारों की। सच पूछो तो एकदम से इनके ऊपर दिल सा कुछ आ जाता हैं … प्यार सा लुटाने लगती हैं पार्टियाँ… जी भर के! वो ही बेरोज़गार… जो ओवरएज हो चुके हैं… सदियों पहले डिग्रियाँ ले ली हैं जिन्होंने… बेरोज़गारी के रजिस्टर में इंद्राज हो गए हैं न जाने कब से… लगवा लिया है ठप्पा – ‘शिक्षित बेरोज़गार’ का। अब कम से कम माँ-बाप ऐसे दिहाड़ी मज़दूरी टाइप के काम के लिए फ़ोर्स तो नहीं करेंगे न!
क्या करें बाप भी, बाप करता है ईंट के भट्टे पे काम… पाल रहा है पेट इनका… सूनी निगाहों से देखता रहता है बेटे की डिग्रियों को…l शहर-भर में भरे हैं ऐसे लोग – डिग्रियाँ लिए दौड़ते-भागते, दफ़्तरों के चक्कर लगाते… कई बार ऐसे काम करते जो बिना डिग्री के ही मिल जाते, लेकिन शुक्र है गाँव में करते तो लोग बात बनाते… शहर में कोई जानता नहीं, इसलिए चलता है सब। लेकिन चुनावों ने तो दे ही दिया इन्हें कुछ दो जून की रोटी का जुगाड़।नाम दिया है उनका ‘जमीन से जुड़े कार्यकर्त्ता ‘..नाम में ही एक इज्जत है साहब.. इनके लिए यही इज़्ज़त की रोटी है।
चुनाव! क्या बात है भाई!
मानो उनकी बेगैरत ज़िंदगी में कुछ राहत भर आई हो। चेहरे पर थोड़ी जिल्लत की ज़र्द कम पड़ी है। दो पैसे जेब में पड़ने लगे हैं। दो पैसे का राशन ले आता है घर पर, तो माँ-बाप के सीने की जलन थोड़ी कम हो जाती है- बेटा इतना निकम्मा भी नहीं है। चुनावी मौसम एक बाज़ार लेकर आता है साहब! पूरा बाज़ार किराए के हाथ और बंधी मुट्ठियाँ लेने लिए खड़ा है ,बोली लगा रहा है- नारे, भीड़, आवाज़, शोर- सबके पैसे मिलते हैं। शहर के चौराहों पर मज़दूरों की भीड़ कम हो गई है, सब बुक कर लिए हैं नेताओं ने।
“चलेगा रे!- जीप में चल!- थाम ये झंडा- चिपका पोस्टर- या उखाड़ उसकी पार्टी का!- पीट आ उसको… धकिया दे… विरोधी के चेहरे पर कालिख पोतेगा- एक्स्ट्रा पैसा मिलेगा!”
सुबह का निकला है, तो रात ढले आता है। कई बार वहीं पार्टी कार्यालय में सो जाता है। रातों-रात पंपलेट बंटवाने हैं, बैनर लगाने हैं, विरोधी के उखाड़ने हैं! ये रात बिरात में ही किये जाने वाले काम हैं ! इस बार नेताजी ने स्पेशल टास्क दिया है- विरोधी पार्टी के उम्मीदवार की खुल गई है एक पुराने घपले की फाइल। अब इस सुखद खबर को उसके इलाके में पहुँचाना है। रातों-रात प्रतिष्ठानों के शटर के नीचे से सरका दिए जाएँगे पंपलेट्स। रातों-रात हवा बदलवाना आता है नेता जी को। बस देश में बेरोजगारी बनी रहे, ताकि ऐसे कार्यकर्ताओं की कमी न हो। ये ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ता हैं- जमीन में रेंगते कीड़ों की तरह!

हुड़दंग, धूल, धप्पा, धक्का-मुक्की, आश्वासन- बस एक बार नेता देख ले उसको, महसूस कर ले कि वो कितना लगा हुआ है- तो नेता जी एक धौल जमा देंगे उसकी पीठ पर- “बहुत आगे निकलेगा तू… बस लगे रह, जीत जाएँ तो तेरी नौकरी का भी कुछ कर देंगे।”
फिर चुनाव का दिन भी आ गया- पोलिंग बूथ ड्यूटी- पर्ची काटने, बांटने। उसी रात सोया नहीं वो- दारू उस मोहल्ले में बाँटनी थी- बड़ा रिस्की काम! लेकिन नेता जी ने उसी को दिया।
“विरोधी पार्टी ट्रक देख न ले भाई- सब फिनिश हो जाएगा !” लो जी, इधर वोट पड़े, उधर तनाव खत्म। रिज़ल्ट से पहले ही मजदूरी ले लेना चाहता है वो नेता से। अगर हार गया नेता- तो गई मजदूरी!
मिल गई मजदूरी यार! अब कुछ दिन घर से पैसे नहीं माँगने पड़ेंगे। कुछ दोस्तों के उधार भी चुका देगा। और हाँ- पार्टी भी देनी है यार! दोस्त लोग ताना कसते हैं- “जा रहा है वो, दौड़ता हुआ!” अभी आठ-दस दिन उसे कोई फ़िक्र नहीं। फिर देखेगा- सरपंचों के चुनाव आने वाले हैं।
नेता जी को पसंद आ गया है उसका काम। बढ़िया ढंग से करता है बंदा- लगवा ही देंगे वहाँ पर भी कहकर। वैसे उसे पता है- लोकल चुनावों में ज़्यादा झंझट है, ज़्यादा ठोक-पीट है- पर करना ही है उसे… काम वो काम जिसमें दो पैसे घर में आएँ- बुरा नहीं होता साहब!

और इधर सरकार है कि रोज़गार के एकमेव अवसर भी इन युवाओं से छीन रही है।

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से), काव्य कुम्भ (साझा संकलन) नीलम पब्लिकेशन, काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन ) लायंस पब्लिकेशन।
प्रकाशनाधीन : व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन )  किताबगंज   प्रकाशन,  गिरने में क्या हर्ज है -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह) भावना प्रकाशन। देश विदेश के जाने माने दैनिकी, साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित 
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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