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अपभ्रंश…

शिवदत्त डोंगरे
पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश)
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प्रेम-
अद्भुत भ्रम है
हम दूर रहकर भी
साथ रहते हैं
और हम साथ
रहते हुए भी
अलग रहते हैं।

तुम्हारे साथ रहकर भी
मैंने अपने भीतर
एक अज्ञात शून्य पाया।

स्मृतियों की परतों में
न जाने कितनी बार
हमने संग-साथ रचा-
पर समय की कलम ने
हर अध्याय को
अधूरा ही छोड़ा।।

तुम मेरे समीप थे,
फिर भी मेरे स्पर्श तक
कभी नहीं पहुँचे।।

मानो एक पारदर्शी दीवार
हमारे मध्य खड़ी थी,
जो किसी अक्षर की तरह
देखी जाती रही,
पढ़ी कभी नहीं।

विचित्र है-
जीवन की व्याख्या
हमने मिलकर लिखी,
पर अर्थ अलग-
अलग निकाले।

और मैं आज सोचता हूँ-
क्या प्रेम सचमुच
दो आत्माओं का
एकाकार होना है?

या फिर

अलग-अलग
आत्माओं का
अपने-अपने
एकांत को
जी भरकर
जीने का अवसर?

क्योंकि मैंने जाना है,
तुम्हारे साथ रहकर भी
मैं अपने भीतर
नितांत अकेला था।

मैंने पाया,
तुमसे दूरियाँ
तुम्हारे निकट
ला रही थी
और तुम्हारे
निकट होना
मेरे लिए दूरियों
का नया नाम था।

पता नहीं
क्या अपभ्रंश
लिख रहा हूँ
परंतु
समीप का विस्तार,
जहाँ हर क्षण
पास होकर भी
स्पर्श अधूरा
रह जाता था।

हाँ
वियोगी प्रेम
दूरस्थ अनुराग
का ही दूसरा नाम है।
शायद यही नियति है-
प्रेम वह सेतु नहीं
जो दो आत्माओं
को मिला दे,
बल्कि वह खाई है
जिसके दोनों ओर
हम खड़े रहते हैं
और समझते हैं
कि हमने एक-दूसरे
को पा लिया।

तुम्हारे बिना जीवन
निश्चित ही अधूरा है,
पर तुम्हारे साथ भी
मैंने अधूरापन ही जिया।

अब लगता है-
प्रेम दरअसल
अकेलेपन का ही
एक और
परिष्कृत नाम है।
जहाँ हम दो होकर भी
प्रेम को एकांत
में ढूँढते रहते थे।

परिचय :- शिवदत्त डोंगरे (भूतपूर्व सैनिक)
पिता : देवदत डोंगरे
जन्म : २० फरवरी
निवासी : पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश)
सम्मान : राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच इंदौर द्वारा “समाजसेवी अंतर्राष्ट्रीय सम्मान २०२४” से सम्मानित
घोषणा पत्र : प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है।


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