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हवाओं को लौट आने दो

शिवदत्त डोंगरे
पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश)
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पीपल पर अपनी
प्रार्थनाएँ टाँग
सूर्यास्त का पीछा
करते हुए जो आत्माएँ
आकाश के भी
आकाश में
गरुड़ों सी
चली गई हैं।

देखना, अभी वे लौटेंगी
क्योंकि पृथ्वी ही
सबको अर्थ और
संदर्भ देती है
यह पृथ्वी ही है।

जो शून्य को आकाश
की संज्ञा देती है,
यह पृथ्वी ही है।
जो प्रकाश को धूप की
संज्ञा देती है
केवल हवाओं को
लौट आने दो-

ये सारे के सारे वन;
कानन और अरण्य
जो अभी भाषाहीन
लग रहे हैं
आकंठ प्रार्थनामय
हो जाएँगे।
सारी सृष्टि
संध्याकालीन
प्रार्थना-पुस्तक-सी
पवित्र हो जाएगी।

एक-एक पत्र
संकीर्तन करता
हुआ वैष्णव लगेगा
केवल हवाओं को
लौट आने दो-
यही पीपल
पत्र-प्रार्थनाएँ करता
हुआ चैतन्य लगेगा,
सारी वनस्पतियाँ
माधव-गान करती हुई
प्रभु के वन-विहार के
अनुष्ठान-सी लगेंगी।

महाभाव और क्या है?
प्रार्थना का
सुगंधोत्सव के
रूप में जन्म ही
महाभाव है।
केवल हवाओं को
लौट आने दो-

अरण्यों में जो मंत्रों
के वाद्य
श्लोकों के वस्त्र
और प्रार्थना की वंशियाँ
हवाएँ टाँग गई हैं
देखना
सायंकालीन इस
आकाश के गुलाल
मंदिर में
संकीर्तन का कैसा
रासोत्सव होता है।

हवाएँ-
पीपल पर अपनी
प्रार्थनाएँ टाँग
सूर्यास्त का पीछा
करते हुए
आकाश के भी
आकाश में
गरुड़ों-सी जो
चली गई हैं।
केवल उन्हें लौट आने दो
क्या इस वैष्णवता
से साक्षात् के लिए
क्या तुम उनके
लौट आने की
प्रतीक्षा भी नहीं
कर सकते?

परिचय :- शिवदत्त डोंगरे (भूतपूर्व सैनिक)
पिता : देवदत डोंगरे
जन्म : २० फरवरी
निवासी : पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश)
सम्मान : राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच इंदौर द्वारा “समाजसेवी अंतर्राष्ट्रीय सम्मान २०२४” से सम्मानित
घोषणा पत्र : प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है।

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