
सुधा गोयल
बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
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हां जी यह सही है कि पिया यानि मेरे पतिदेव पैंतालीस साल आफिस में एक कुर्सी पर बैठ कर थक चुके और बिना कुर्सी के घर आए हैं बलैयां लूं या पूजा का थाल लेकर आरती उतारुं,गल हार पहनाऊं और कहूं -“पधारो सा”।उम्र के इस पड़ाव को चूम लूं। अब हम दोनों गलबहियां डालकर रहेंगे। तुम रिटायर हो ही गये हो में भी बहू पर घर परिवार छोड़ कर रिटायर हो जाती हूं। अभी इतना सोच ही पाई थी कि बहू रानी की भृकुटी देखकर चौंक पड़ी- “सासू मां, अब आप रिटायर होने की मत सोचना। दो-दो रिटायरियों को कैसे झेल पाऊंगी?”
मैंने घूम कर देखा-सुना बहू के चेहरे पर चिंता की लकीरें थीं। पर क्यों- ? यह मैं समझ नहीं पा रही थी। अगले दिन से घर में रिटायरमेंट का कार्यक्रम शुरू होने वाला था। अथ कथा रिटायरमेंट सुनाकर अपना जी कुछ हल्का कर लेती हूं।
दस बज गए हैं पर पतिदेव के पांव बिस्तर से नीचे नहीं आए हैं। “जल्दी क्या है। अब तो आराम ही आराम है। आराम से उठूंगा- बैठूंगा।”
“अब तक आराम से उठते बैठते नहीं थे। कोई बीमारी हो गई है क्या?” पत्नी को शंका हुई।
“यह बात नहीं है भाग्यवान, अब दफ्तर नहीं जाना है न।”
“समझ गई, आप दफ्तर नहीं जाएंगे तो सूरज नहीं निकलेगा। कोई कहीं भी आएगा जाएगा नहीं। आप किस समय तक उठेंगे अपना टाइम टेबल बताइए- “पत्नी ने सवाल ठोंका।
“मेरी मर्जी”- “फिर मेरी भी मर्जी, टाइम टेबिल में कोई बदलाव नहीं होगा। तीन चाय पी चुके हैं। पहले की तरह एक ही मिलेगी।”
वार्निंग मिलने के बाद पतिदेव मुस्कराकर बोले- “देवी,मैं अपनी चाय आप बना लूंगा”- “यानि आप घड़ी-घड़ी रसोई में घुसकर बहू को डिस्टर्ब करेंगे। चाय पत्ती दूध का हिसाब आप रखेंगे।”
यह थी दिन की शुरुआत। अभी पूरा दिन बाकी हैं। दोपहर होते-होते दूध खत्म। तीन बजे पतिदेव के दो मित्र मिलने आए। गलबहियां हुईं। चाय नाश्ते का बंदोबस्त किया। शाम होते-होते चार और आ गये। पहला दिन था। हंसकर झेल लिया। एक किलो अतिरिक्त दूध, चाय नाश्ता अलग, फिर ड्राइंगरुम पर कहकहों का कब्जा। कोई और घर आए, मसलन बहू की सहेलियां, बेटा या पोते के दोस्त। अभी शुरू-शुरू की बात थी, लेकिन शुरू में ही हजम होना मुश्किल हो रहा था।
मैं मोबाइल पर बात करूं तो किससे बतला रहीं थीं। इतनी देर बात करने की क्या जरूरत थी, पड़ोसिन घर आए तो क्यों आईं थीं, कोई रिश्तेदार घर आ जाएं तो ये क्यों आया था, शगुन में देने वाले लिफाफे भी टटोले जाने लगे। बहू बाजार जाए तो क्यों? उसकी किटी पार्टी या बन संवर कर रहना बर्दास्त नहीं। घड़ी-घड़ी रसोई में तांक-झांक। दो ही दिन में बहू का चेहरा उतर गया।
तीसरे दिन सामान की लिस्ट और थैला पकड़ा दिया। वे मेरा चेहरा देखने लगे। “अब क्या बात है?” “पैसे कहां हैं?” “आपकी जेब में”, “मतलब?” “अब खर्च तुम चलाओ। मैंने तो बहुत चला लिया। अब चावल दाल का भाव तुम्हें पता चलना चाहिए। अब आप रिटायर हो गए हैं। तनख्वाह नहीं पेंशन मिलती है। एक लीटर दूध तुम्हारी चाय की भेंट चढ़ जाता है सत्तर रुपए लीटर यानि इक्कीस सौ रुपए, चीनी पत्ती गैस अलग। ढाई लीटर दूध ढाई बजते-बजते दम तोड़ देता है।”
गिरते पड़ते सामान लेकर लौटे। बोले कुछ नहीं पर चेहरे की रंगत बता रही थी कि असल मामला कुछ और ही है। शाम पांच बजते ही मैंने कहा- “चलो पार्क में घूम आते हैं।”- “लेकिन मेरे दोस्त?” “वे अब आपसे पार्क में ही मिला करेंगे। मैंने सबको फोन कर दिया है।”
“फिर तुम साथ चलकर क्या करोगी?”
“देखूंगी कि कौन आता है और कौन नहीं। मेरी भी सैर हो जाएगी।”
“यानि अब तुम मुझे जीना सिखाओगी?”
“हां”- “मैं अब तक झक मार रहा था?”
“शायद हां”- “कैसे?”
“घर चलाना आया नहीं, बस गिनकर पैसे थमा दिए। जिम्मेदारी खत्म। अब गाय की भैंस और भैंस की गाय करते रहो। अब आप घर खर्च चलाएंगे और मुझे पगार देंगे।”- “क्या मतलब?” “मतलब जेबखर्च”- “अब तक कैसे चलातीं थीं?”- “अपने हिसाब से”- “अब भी चलाओ”, “अब नहीं चल सकता। आपकी दखलंदाजी चलती है ”
“फिर मैं क्या करूं?”
“अपनी आदतें बदलो”
“बदल रहा हूं पर तुम्हें सहन नहीं हो रहीं।”
शायद यही सही है। अच्छे भले घर में कोहराम मचा रहता है। कोई किसी को समझ नहीं पा रहा। सभी चिढ़े और खीजे हैं। यह कैसा पिया घर आया।
एक रिटायरी की कहानी।
परिचय :– सुधा गोयल
निवासी : बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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