
पं. भारमल गर्ग “विलक्षण”
जालोर (राजस्थान)
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यदि मेरा हृदय किसी से अनजाने में, अनचाहे, पर अटूट प्रेम कर बैठता, और मैं उस प्रेम को केवल इसलिए कुचल देता क्योंकि वह समाज की निर्धारित सीमाओं के भीतर नहीं था? नहीं… मैं उस प्रेम को स्वीकार कर लेता। उस आकर्षण को, उस आत्मीयता को, उस जीवन भर के साथ का वचन देने वाले भाव को, विवाह के पवित्र बंधन में बाँध लेता। किन्तु यह कल्पना मात्र ही रोमांच उत्पन्न कर देती है। क्योंकि मेरा यह निर्णय, जो मेरे और मेरे प्रेमी/प्रेमिका के लिए जीवन की नई प्रभात होता, वही समाज के एक वर्ग के लिए काली घटा बनकर आता। और इस काली घटा के तले सैकड़ों जीवन नष्ट हो जाते- कोई अपने सम्मान के नाम पर आत्मघात कर लेता, तो कोई कथित ‘सम्मान’ बचाने के नाम पर हिंसा की भेंट चढ़ जाता। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं, यह भारतीय समाज के उस क्रूर यथार्थ का काला पक्ष है जहाँ ‘प्रेम विवाह’ एक अपराध बन जाता है और उसकी दंड मृत्यु होती है।
कल्पना कीजिए एक छोटा-सा गाँव, जहाँ हर घर की देहरी पर जाति और धर्म की सीमाएँ अमिट अक्षरों में खिंची हैं। यहाँ रहते हैं दो युवा हृदय- शायद अमर, एक किसान का पुत्र, और शायद प्रिया, एक स्थानीय व्यापारी की पुत्री। उनके घरों के बीच केवल एक गली का अंतर था, पर उनकी जातियों के बीच खाई थी सागर जैसी विशाल। विद्यालय की एक ही पंक्ति पर बैठने से प्रारंभ हुई बातचीत धीरे-धीरे मित्रता में बदली और फिर अनजाने में ही प्रेम के गहरे सागर में डूब गई। उनके मिलन में कुछ भी अनुचित नहीं था- केवल दो आत्माओं का आपसी आकर्षण और आदर। परन्तु जब उन्होंने अपने परिवारों के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, तो ऐसा लगा मानो उन्होंने किसी विस्फोटक का घुंडी दबा दी हो।
पहली प्रतिक्रिया भय की थी। “हमारा सम्मान मिट्टी में मिल जाएगा!”, “पूरे वंश पर कलंक लग जाएगा!”, “समाज में कैसे मुख दिखाएँगे?”- ये वाक्य गूँजने लगे। यह ‘सम्मान’ का भ्रम, जो वास्तव में सामाजिक नियंत्रण और दमन का साधन था, पूरे परिवारों पर हावी हो गया। फिर प्रारंभ हुई योजनाएँ। संबंधी इकट्ठे हुए। गाँव के तथाकथित वृद्धों ने ‘पंचायत’ बुलाई। शब्द ‘प्रेम विवाह’ सुनते ही उनके मुख क्रोध से तमतमा गए। यह उनकी सदियों पुरानी सत्ता, उनके नियमों की अवज्ञा थी। उनके लिए यह ‘सम्मान’ का प्रश्न नहीं, अपनी सत्ता बनाए रखने का प्रश्न था।
जब अमर और प्रिया ने चुपचाप विवाह कर लेने का निश्चय किया, तो उस रात गाँव नरक बन गया। किसी ने देख लिया। समाचार अग्नि की तरह फैला। ‘सम्मान’ बचाने के नाम पर उत्तेजित हुए कुछ युवक, जो शायद स्वयं कभी प्रेम कर चुके थे या प्रेम के लिए तरस रहे थे, पर समाज के दबाव में दमित हो चुके थे, वे अस्त्र लेकर निकल पड़े। उनके पीछे थे कट्टर वृद्ध, जो जाति की ‘पवित्रता’ के नाम पर रक्त की होली खेलने पर उतारू थे। उनकी आँखों में प्रेम नहीं, घृणा का उफान था। उनके कानों में ‘सम्मान’ का झूठा नारा गूँज रहा था।
वह रात इतिहास में काली स्याही से लिखी गई। अमर और प्रिया को ढूँढ निकाला गया। पहले तो उन्हीं पर आक्रमण हुआ। प्रतिकार करने पर अमर की पिटाई हुई, उसके बाद भीषण प्रहारों से उसका जीवन समाप्त कर दिया गया- ‘समाज का सम्मान’ के नाम पर एक युवा जीवन का अंत। प्रिया को बलपूर्वक घर लाया गया। उसका ‘सम्मान’ अब ‘कलंकित’ हो चुका था। परिवार के लिए अब वह जीवित प्रश्नचिह्न थी। उसके अपने ही भाई ने, ‘कुलमर्यादा’ बचाने के नाम पर, उसे ‘कुलमर्यादा हत्या’ का शिकार बना दिया। उसकी आँखों में प्रेम की चिंगारी अब सदा के लिए बुझ गई। यहाँ तक कि जिन लोगों ने उन दोनों को आश्रय देने या बचाने का प्रयास किया, उनके घरों पर भी आक्रमण हुए। पुलिस आई तो देर हो चुकी थी। सड़कें रक्त से सनी थीं। गाँव में चीखों और सिसकियों के अलावा मौन छा गया।
प्रभात जब सूर्य निकला, तो उसने एक सुनसान और भयाक्रांत गाँव को देखा। अमर और प्रिया के परिवारों में शोक था, पर उस शोक में अपराधबोध और लज्जा भी घुली हुई थी। उन्होंने ‘सम्मान’ बचाने के लिए अपने ही बालकों को खो दिया था। हत्यारे युवकों के परिवार भी व्यथित थे- उनके पुत्र अब हत्यारे थे। गाँव के वृद्धों ने तुरंत एक ‘सर्वसहमति’ का दिखावा रचा कि यह ‘दुर्भाग्यपूर्ण घटना’ थी, लेकिन ‘कन्या के सम्मान’ का प्रश्न था! मृत्युभोज हुआ, क्षमायाचना हुई, पर किसी के मन में सच्चा पश्चाताप नहीं था। मरने वालों के परिवारों पर दबाव बनाया गया कि वे पुलिस में शिकायत न करें- ‘गाँव का सम्मान’ दाँव पर लगा था। कुछ दिनों बाद सब कुछ ‘सामान्य’ हो गया, मानो कुछ हुआ ही न हो। पर गाँव की वायु में भय और दुःख का विष घुल गया था।
इस पूरी दुःखद घटना में सबसे भयावह पहलू यह है कि हिंसा को ‘सम्मान’ के पवित्र आवरण में लपेट दिया गया। जिस शब्द का अर्थ गौरव, मर्यादा और स्वाभिमान होना चाहिए, वही हत्या और आत्मघात का उचित कारण बन गया। प्रश्न उठता है:
१. किसका सम्मान? क्या वास्तव में प्रिया का सम्मान उसके अपने निर्णय लेने या प्रेम करने से समाप्त हो गया था? या फिर यह ‘सम्मान’ उस पुरुषप्रधान व्यवस्था का था जो स्त्री के शरीर और जीवन पर नियंत्रण चाहती है?
२. सम्मान बनाम जीवन: क्या किसी अमूर्त, सामाजिक रूढ़ि का ‘सम्मान’ दो जीवित, श्वास लेते मानवों के जीवन से भी अधिक मूल्यवान हो सकता है? क्या मानव जीवन की कीमत ‘सामाजिक प्रतिष्ठा’ से कम है?
३. हिंसा का औचित्य: क्या ‘सम्मान’ शब्द का उपयोग हिंसक और अपराधिक कार्यों को नैतिकता का वस्त्र पहनाने के लिए किया गया? क्या यह सामूहिक पागलपन को उचित ठहराने का एक सुविधाजनक बहाना था?
४. सच्ची अप्रतिष्ठा किसकी? वास्तविक अप्रतिष्ठा तो उस समाज की हुई जिसने घृणा और हत्या को ‘गौरवपूर्ण’ कृत्य बना दिया। जिस समाज ने युवा प्रेम को मृत्यु के घाट उतार दिया, उसकी नैतिकता ही संदिग्ध हो गई।
परिवारों का टूटना: अमर और प्रिया के माता-पिता जीवित थे, पर मृतकों से भी बदतर दशा में। उनका जीवन केवल अपार दुःख, अपराधबोध और सामाजिक बहिष्कार की पीड़ा में बीतने लगा। उनके स्वप्न, उनकी आशाएँ सब मिट्टी में मिल गए थे।
हत्यारों का भार: जिन युवकों ने हिंसा की, वे या तो भाग गए या कारागार गए। उनके परिवार भी लज्जा और पश्चाताप से जूझ रहे थे। उनके भविष्य अंधकारमय हो गए।
युवाओं का भय: गाँव के अन्य युवा अब गहरे भय में जीने लगे। प्रेम करना तो दूर, किसी दूसरी जाति या धर्म के युवक/युवती से मित्रता करने का साहस भी उनमें नहीं रहा। उनकी स्वतंत्रता का दमन कर दिया गया था।
समाज की मौन सहमति: जो लोग चुप रहे, जिन्होंने विरोध नहीं किया, वे भी मूक सहभागी बन गए। उनकी मौन सहमति ने हिंसा को प्रोत्साहन दिया था। उनकी अंतरात्मा भी उन्हें कचोटती रही।
यह कथा काल्पनिक है, पर इसकी हर पंक्ति भारतीय समाज की वास्तविकताओं से उपजी है। प्रत्येक वर्ष सैकड़ों ‘कुलमर्यादा हत्याएँ’ होती हैं। हजारों युवा जोड़े धमकियों, हिंसा और सामाजिक बहिष्कार का शिकार होते हैं। यह कल्पना भयावह इसलिए है क्योंकि यह हमारे आसपास घटित हो रहे एक सत्य को बेहद तीखे ढंग से उजागर करती है। ‘प्रेम विवाह’ के नाम पर होने वाली हिंसा केवल दो लोगों का जीवन नहीं लीलती; वह पूरे समाज को रक्तरंजित कर देती है, उसकी मानवता को कलंकित कर देती है, और आने वाली पीढ़ियों के मन में भय बो देती है।
सच्चा सम्मान किसमें है? उस समाज में जो युवाओं के निष्कपट प्रेम और व्यक्तिगत निर्णय का आदर करता है, जो हिंसा को किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराता? या उस समाज में जो ‘सम्मान’ के नाम पर अपने ही बालकों का रक्त बहाने को तैयार बैठा है? जब तक ‘सम्मान’ शब्द का अर्थ स्त्री की स्वतंत्रता पर रोक, जाति-धर्म की दीवारों की मजबूती और हिंसा को वैध ठहराना बना रहेगा, तब तक ऐसी दुःखद घटनाएँ घटती रहेंगी। अमर और प्रिया की कथा एक कटु सत्य है, एक चेतावनी है कि प्रेम के नाम पर होने वाली हत्याएँ समाज की नहीं, उसकी सबसे बड़ी अप्रतिष्ठा हैं। सच्चा सम्मान तो मानव जीवन, प्रेम की स्वतंत्रता और व्यक्ति के अधिकारों का आदर करने में है। वही समाज वास्तव में आदरणीय है जहाँ प्रेम विवाह के लिए सैकड़ों लोग नहीं, बल्कि सैकड़ों लोग आशीर्वाद देने को तैयार हों।
परिचय :- पं. भारमल गर्ग “विलक्षण”
निवासी : सांचौर जालोर (राजस्थान)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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