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मां की परछाई

आयुषी दाधीच
भीलवाड़ा (राजस्थान)

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एक मां जो कि वह भी
किसी की बेटी होती है,
पर जब वह अपनी बेटी
के लिए कुछ लिखती है,
तो सुनिएगा ज़रा-

तू ही मेरे घर की रौनक,
तू ही मेरे दिल की रूह,
तुझमें अपना रूप देखती,
तू उसी रूप का स्वरूप है।

देख के तेरा बचपन,
मुझे अपना बचपन याद आएं,
मासूमियत और शैतानी की हवा,
आज फिर हिलोरे खाती है।

रंग और कदकाठी में,
तुझमे मेरी परछाई देखती मैं,
देख तुझको आईने में,
अपने अतीत का
झोला खुल जाता है।

यक़ीन है मुझको, उड़ान
तेरे सपनो की बाकी है,
कुछ तेरे, तो कुछ मेरे
अधूरे सपने बाकी है,
तेरी हमराह की राही हूँ मैं,
तेरे सपनों की साथी हूँ मैं।

शनै-शनै धुंध हटती रही,
शनै-शनै तेरे संग समय बीतता,
शनै-शनै वह ओझल
होती है मेंरी आंखो से,
फिर वह अपने घर चली जाती है।

परिचय :-  आयुषी दाधीच
शिक्षा : बी.एड, एम.ए. हिन्दी
निवास : भीलवाड़ा (राजस्थान)
उद्घोषणा : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।

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