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ट्रकों का दर्शनशास्त्र: सड़क का पहलवान और प्रेम का दार्शनिक

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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ट्रक का मिज़ाज हमेशा से दबंग, मजबूत और थोड़ा अहंकारी किस्म का माना गया है- सड़क नुमा अखाड़े का पहलवान, जो अपने वज़न और रफ्तार से किसी भी बाधा को कुचलने की क्षमता रखता है। लेकिन कभी-कभी यही पहलवान आपको दिला चुराने वाला ठग सा भी लग सकता है-जब सड़क किनारे खड़ा किसी नववधू की तरह सोलह श्रृंगार किए मुस्कुराता है,तो अच्छे खासे आदमिया भी दिल पिघल नहीं मेरा मतलब दहल जाए। मेहंदी जैसे पैटर्न से रंगे दरवाज़े, झालरों से सजे शीशे, गोटों और कढ़ाईदार पेंटिंग से लिपटी देह, और पीछे लटकता नज़रबट्टू- मानो हर कोना कह रहा हो, “देखो मुझे… मगर प्यार से।” यह ट्रक नहीं मित्र, सड़क पर खड़ी चलती-फिरती अमूर्त कलाकृति है, और उसके पीछे लिखा वाक्य- “बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला”- उसकी सौंदर्य रक्षा का संस्कार है। यह बाहरी रूप भर है। असली प्रेम कहानी तो उसके ड्राइवर के साथ चलती है। ड्राइवर के लिए ट्रक कोई यांत्रिक वस्तु नहीं- साथी, हमदम, कभी-कभी जीवनसंगिनी भी है। महीनों के सफर में जब यह दोनों साथ होते हैं, तो लगता है मानो कोई साधु अपने तपोवन से निकलकर सत्य की खोज में चला हो। यह यात्रा केवल दूरी की नहीं, अनुभव की होती है- जहाँ हर मोड़, हर ढाबा, हर हॉर्न किसी शास्त्र का नया अध्याय जोड़ता चला जाता है।
ट्रक की चाल में रोमांच भी है और भय भी। जब यह अचानक साइड से निकलता है तो सामने वाले को ऐसा अनुभव होता है मानो यमराज का ट्रायल रन चल रहा हो। उसकी रफ्तार देखकर रोमांच और “नियर डेथ एक्सपीरियंस ” दोनों साथ घटित होते हैं। सड़क पर यह जो दृश्य बनता है- वह किसी चलते फिरते स्टंट शो से कम नहीं, बस स्टंट शो में भागीदारी दर्शकों में से ही किसी कि होती है । ट्रक केवल माल नहीं ढोते, वे संस्कृति, भाषा और क्षेत्रीय पहचान के संवाहक हैं। पंजाब का ड्राइवर जब बंगाल पहुँचता है, तो उसके लाउडस्पीकर पर बजता “शीला की जवानी” या “फेविकोल से” किसी राष्ट्रीय एकता के गीत जैसा लुत्फ़ देता है। ढाबों की थाली में परोसी जाती है विविधता की असली थाली- कहीं सरसों का साग, कहीं इडली, कहीं लस्सी, और साथ में गालियों की बोली जो हर राज्य की अपनी लय लिए होती है। यही है भारत की अनौपचारिक सांस्कृतिक नीति- “ट्रक टू ट्रक डिप्लोमेसी।”
इन ड्राइवरों का जीवन साधना से कम नहीं। हफ्तों सड़क पर, नींद से जूझते, अनजान शहरों में गुजर-बसर करते, वे आधुनिक संन्यासी हैं जो पेट के लिए प्रवास पर हैं। इनकी संगत में कई बार ढाबे की कोई वीरांगना दीये की रोशनी में रोटियाँ सेंकती और अपनी आंखें सेंकती दिखाई देती है- जो शायद किसी और के घर की गृहलक्ष्मी भी रही होगी। पर उनकी आँखों में जो सहज सुलभ स्नेह झलकता है, वह इन यात्रियों की थकान का एकमात्र मरहम है। पर यह भी सच है कि उसी यात्रा के अंत में कई बार साथ लौटती है कोई बीमारी, जो उनके घरों को लील जाती है। इसलिए, इन थके हुए, धूल भरे चेहरों को देखकर केवल आलोचना नहीं, श्रद्धा उपजनी चाहिए। ट्रकों के लाउडस्पीकरों से निकलता संगीत सड़क की आत्मा बन चुका है। इंजन की घरघराहट, हॉर्न की ताल और गालियों की तुकबंदी मिलकर एक ऐसा लोकगीत रचते हैं जो किसी शास्त्रीय संगीत से कम नहीं। और यही “परहित सरिस धर्म नहीं भाई” की आधुनिक व्याख्या है- क्योंकि चाहो या न चाहो, उनकी रचनात्मकता से रूबरू होना तय है। वे हर राहगीर को अपनी ‘संगीतमय शिक्षा’ देने से नहीं चूकते- चाहे वह इंसान हो या गाय-भैंस।
ट्रक और सड़क का रिश्ता एक अंतहीन संघर्ष है- किसी बॉलीवुड फिल्म के हीरो-विलेन जैसा। सड़क अपने गड्ढों से ट्रक को गिराना चाहती है, और ट्रक अपने टायरों से उसे दबोच लेना चाहता है। बीच में आने वाली छोटी गाड़ियाँ वही मासूम जनता हैं जो हर लड़ाई में पिस जाती है। और जब कोई बाइक वाला झल्लाकर पूछता है- “क्या सड़क तेरे बाप की है?”- तो सही जवाब यही है: “हाँ, सड़क का असली बाप यही ट्रक है।” उसका अधिकार वैसा ही है जैसा किसी भारतीय पिता का- कड़क, कठोर और थोड़ी हिंसक ममता से भरा।

अगली बार मित्र जब सड़क पर कोई ट्रक दिखे, उसे केवल धातु का ढेर मत समझिए। उसमें एक साधक, एक कलाकार, और एक दार्शनिक देखिये। यह बिना फीस लिए जीवन का वह पाठ पढ़ाता है जो किसी मोटिवेशनल स्पीकर के पास नहीं। बस थोड़ा ध्यान रखिए- “नज़दीकियाँ घातक हो सकती हैं।” क्योंकि ट्रक-दर्शन का अंतिम सूत्र यही है- “कृपया दूरी बनाए रखें।”

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से), काव्य कुम्भ (साझा संकलन) नीलम पब्लिकेशन, काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन) लायंस पब्लिकेशन।
प्रकाशनाधीन : व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन)  किताबगंज   प्रकाशन,  गिरने में क्या हर्ज है -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह) भावना प्रकाशन। देश विदेश के जाने माने दैनिकी, साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित 
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।

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