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कविता

मैंने प्रियतम को लिखी पाती
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मैंने प्रियतम को लिखी पाती

डाॅ. उषा कनक पाठक मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) ******************** मैंने प्रियतम को लिखी पाती लेखनी थी उस क्षण मदमाती लिखा- हे !मेरे पावस तुम बिन रहता है अहर्निशि अमावस तुम्हे क्या पता यह धरती अविरल संताप से जल रही है क्षण-क्षण भीषण ज्वाला के हाथों पल रही है अज्ञात ऊष्मा से किसी तरह धीरे-धीरे चल रही है अनल-संतप्त हो, विस्फोट करने को व्याकुल अब टूटने वाली है धैर्य रूपी साँकल बोलो तुम कब आओगे मुरझाई लता को कब सरसाओगे हे! निष्करुण तुम्हें दया नहीं आती विरहाग्नि से जल रही मेरी छाती यदि तुम शीघ्र न आओगे मुझे जिन्दा न पाओगे मैं स्वयं को दे दूंगी जल समाधि मिट जायेगी मेरी सम्पूर्ण व्याधि परिचय :- डाॅ. उषा कनक पाठक निवासी : मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्री...
नेह का निमंत्रण
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नेह का निमंत्रण

ओम प्रकाश त्रिपाठी महराजगंज (उत्तर प्रदेश) ******************** नेह का निमंत्रण मीत, तुझको हूं भेज रहा आज अपनी गरिमा को, अब तो पहचानो। कोसते हो जिनको कि, तूने कुछ नहीं दिया आज उस ब्रह्म का, आभार तुम मानो ।। विश्व पर विपत्ति आज, कैसे पड़ी हैआन भान कर इसका तू घर नहीं त्यागो। मान बात घरनी की, जाओ न विदेश अब जीवन है अमूल्य सिर्फ, पैसे पे न भागो ।। क्रूर कोरोना काल, आगे है बढ रहा राह इसका छोड़ अब नयी राह गढ लो। सह नहीं जायेगा, बिछोह तेरा मीत मेरे परिजन के संग, अब प्रीति करना सीख लो।। रीति जो है प्रीति की ,तू छोड़ेगा कभी न मीत विश्वास को हमारे, ठेस न लगायेगा। कुछ ही दिनों की बात, मान एक पाती लिखो संकट का काल मीत, स्वयं कट जायेगा।। परिचय :- ओम प्रकाश त्रिपाठी निवासी : शिकारगढ जनपद-महराजगंज (उत्तर प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौल...
मिलन की प्यास है
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मिलन की प्यास है

मनोरमा जोशी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** मैं सौ-सौ बार निहारूँ, फिर भी बढ़ती प्यास है। मेरे और तुम्हारे मन का, प्रियतम जाने क्या इतिहास है। मेघों ने अपनी प्यास बुझाई सागर से, धरती की बुझी प्यास व्योम के जलधर से। धरती से लेकर नीर चली सब सरिताएं, जाकर के प्यास बुझाई क्रम सत्वर से, मेरी आँखें युगों-युगों से प्यासी पर, अभी अधूरी आस है। मेरे और तुम्हारे मन का जाने क्या इतिहास है। मन का आशामृग ढू़ढ़ रहा कस्तूरी है, लक्ष्य पास है, फिर भी बहुत ही दूरी है। जाने कितनी गंध रूप की मुझे लुभाती, तुम बिन कुछ ना भाता मजबूरी है, मेरे मन चाहा सौरभ का तो, मेरे अन्तर ही में वास है, मेरे और तुम्हारे मन का, यह जाने क्या इतिहास है। मिलन की प्यास है। परिचय :-  श्रीमती मनोरमा जोशी का निवास मध्यप्रदेश के इंदौर में है। आपका साहित्यिक उपनाम ‘मनु’ है। आपकी जन्मतिथि १९ दिसम्बर १९५३ और जन्मस्थान नरसिंहगढ़ है। ...
आहिस्ता-आहिस्ता
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आहिस्ता-आहिस्ता

संजीव कुमार बंसल पीलीभीत (उत्तर प्रदेश) ******************** आहिस्ता-आहिस्ता क्यों बदल जाते हैं लोगों के चेहरे! आहिस्ता-आहिस्ता लेकर इम्तिहान- क्यों होते हैं सवेरे! आहिस्ता- आहिस्ता ही जिंदगी- क्यों आती है समझ! जलते चिराग पड़ने पर जरूरत- अक्सर क्यों जाते बुझ! आहिस्ता-आहिस्ता मिल ही जाता है-हर समस्या का हल, तू मान मेरी बात, आहिस्ता- आहिस्ता ही होगा तू सफल। आहिस्ता-आहिस्ता बनता है समुद्र में- जो तूफानी ज्वार, भाटे के रूप में जाएगा आहिस्ता- आहिस्ता, कर ऐतबार। गंदे पानी में जो होती है गंदगी अपार, उसे हिलाना नहीं, गंदगी सब बैठेगी आहिस्ता- आहिस्ता, बस करना इंतजार। परिचय :- संजीव कुमार बंसल निवासी : पीलीभीत (उत्तर प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के ...
जीवन चक्र कैसे अवरूद्ध हो गया
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जीवन चक्र कैसे अवरूद्ध हो गया

गोविंद पाल भिलाई, दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** जीवन चक्र कैसे अवरूद्ध हो गया है देखो आज, इसे चलाने कर्तव्यों की वलिवेदी पर डटे हुए हैं मेरे सरताज। विरह की अग्नि में जल रही हूँ प्रिये तुम्हारे बिन, पर डटी हुई हूं घर पर गईं सारी सुख-चैन छीन। हे प्रिये कुछ ही महीने तो हुए थे तुम्हारे संग हमनें गुजारी, क्या पता था तुमसे दूर कर देगी हमें ये महामारी। संकट की इस घड़ी में देश बचाने कबसे निकले हो पहनकर वर्दी, पर चिंता मुझे खाये जा रही है तुम्हें न हो जाये कहीं खांसी- सर्दी । प्रकृति को नाश किया है मानव ने उढेलकर अपना मन का जहर, प्रकृति भी कहाँ छोड़ने वाली वो भी वरपा रही है कहर। पर प्रिये तुम छोड़ना नहीं अपना कर्तव्यों का डगर, मैं बचूं या न बचूं प्रियतम तुम शहर को बचा लेना मगर । हे चंचल हवा मेरे प्रीत की पाती लेकर उन तक पंहुचाना, आंसुओं से लिखी गईँ मेरी पाती का संदेश उन्हें जरूर सुनाना...
प्रेम, प्रीत, प्यार, स्नेह…
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प्रेम, प्रीत, प्यार, स्नेह…

गौरव सिंह घाणेराव सुमेरपुर, पाली (राजस्थान) ******************** प्रेम, प्रीत, प्यार, स्नेह, नाम अलग पर एक है भाव। उसी के प्रति होते ये, जिनसे होता विशेष लगाव।। जब मेरे ईश से होती प्रीत, तो मन में न रहता मेरा चित्त। प्रभु चरणों के वन्दन से ही तन मन हो जाता चिंता रहित।। पिता से अदृश्य बंधन है, अब क्या बताऊ ये बात। त्याग-बलिदान की मूरत ऐसी होगी न जग में तात।। माँ के बारे में क्या लिखू, माँ ने ही मुझे लिखा है। इस जग जो भी सीखा माते, तुमसे ही तो सीखा है। डांट, प्यार, समर्पण, वात्सल्य, चिंता हरपल ही करती हो। बच्चों की रक्षा करे विपदा से, नही किसी से डरती हो।। अर्धांगिनी का पवित्र प्रेम, जैसे राम के लिए ही सीता है। घर के प्रति सम्पूर्ण समर्पण, ऐसी प्यारी गृहीता है। माँ क दुसरा रूप तुझ में, ओ मेरे जीवन का गहना तुम। मुसीबत जब भी आती मुझ पर देती सदा साथ बहना तुम।। घर में छोटे फूल के जैसे खिले...
प्रीत की पाती लिखे, सीता प्रिये प्रभु राम को
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प्रीत की पाती लिखे, सीता प्रिये प्रभु राम को

विमल राव भोपाल मध्य प्रदेश ******************** प्रीत की पाती लिखे, सीता प्रिये प्रभु राम को। प्रीत की पाती लिखे, राधा दिवानी श्याम को॥ प्रीत के श्रृंगार से, मीरा भजे घनश्याम को। प्रीत पाती पत्रिका, तुलसी लिखे श्री राम को॥ प्रीत की पाती बरसती, इस धरा पर मैघ से। प्रीत करती हैं दिशाऐं, दिव्य वायु वेग से॥ प्रीत पाती लिख रहीं हैं, उर्वरा ऋतुराज को। हैं प्रतिक्षारत धरा यह, हरित क्रांति ताज़ को॥ प्रीत पाती लिख रहीं माँ, भारती भू - पुत्र को। छीन लो स्वराज अपना, प्राप्त हों स्वातंत्र को॥ धैर्य बुद्धि और बल से, तुम विवेकानंद हों। विश्व में गूंजे पताका, तुम वो परमानंद हो॥ प्रीत पाती लिख रहा हूँ, मैं विमल इस देश को। तुम संभल जाओ युवाओ, त्याग दो आवेश को॥ वक़्त हैं बदलाव का, तुमभी स्वयं कों ढाल लो। विश्व में लहराए परचम, राष्ट्र कों सम्भाल लो॥ परिचय :- विमल राव "भोपाल" ...
चिड़िया-बतियाँ-दुनिया
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चिड़िया-बतियाँ-दुनिया

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** चिड़िया बैठ से उस डाल की स्पंदन सहज झलक जाए। बतियाँ पैठ से उस काल की फड़कन आहट खटक जाए। 'अटल' काव्य ये संदेश कहे, फर्क नहीं कोई कहाँ खड़ा है रथ-पथ तीर-प्राचीर अथवा जहां खड़ा होना पड़ा है धरातल की पहचान से धूल फलक पे छा जाए। बतियाँ पैठ से उस काल की फड़कन आहट खटक जाए चिड़िया बैठ से उस डाल की स्पंदन सहज झलक जाए। काव्य-कला जीवन शैली 'अटल' संपदा दुनिया की धन आसन भी स्थाई नहीं ठाकुर ब्राम्हण बनिया की मन फकीरी ही भारी है कुबेर संपदा रुला जाए बतियाँ पैठ से उस काल की फड़कन आहट खटक जाए चिड़िया बैठ से उस डाल की स्पंदन सहज झलक जाए। मन मैदान की हार जीत 'अटल' सुगम पहेली है मन 'विजय' नहीं सुलभ मन सम्मान सहेली है चार दिनों के मेले में विचित्र करतब दिख जाए बतियाँ पैठ से उस काल की फड़कन आहट खटक जाए चिड़िया बैठ से उस डाल की स्पन्दन सहज झलक जाए। व्यवहार ...
बाध्य सैनिक
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बाध्य सैनिक

रवि यादव कोटा (राजस्थान) ******************** शिव का नाग समझकर हमने, कितने सांपो को पाला है, भोली जनता के आगे, नक्सली का राग उछाला है। इसीलिए क्या सवा अरब ने, तुमको गद्दी दिलवाई थी, विकास न्याय रक्षा की, तुमसे आस लगाई थी। चूड़ी कँगन टूट गया, उंगली हाथो से छूट गई, बूढे बाबा की इकलौती, वो लाठी भी टूट गई। सुना आँगन तुलसी का, बगिया का पौधा सूख गया, माँ की आखों का तारा, माँ के आँचल से छूट गया। दया बताई झूठी सी, वन्दे मातरम बोल दिया, उसकी त्याग तपस्या को, बस पैसो में तोल दिया। क्या यही लक्ष्य है बदलावों का, जो तुमने दिखलाया था, या केवल गद्दी के कारण, झूठा स्वप्न बताया था। हमने ही भारत में नित, कुत्तों को सिंह बनाए है, इसी धरा पर कितने ही, अफजल आशाराम बनाए है। नपुंसक बनकर क्यो बैठे हो, दिल्ली के दरबारों में, व्यस्त बने हो क्या तुम भी, सत्ता के व्यापारों में।। कब तक ढोएंगे हम अपने सैनिको की लाशों क...
ये जीवन
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ये जीवन

अन्नू अस्थाना भोपाल (मध्य प्रदेश) ******************** ये जीवन सीधा सा गुज़र जाए, ये बहुत मुश्किल होता है। दिक्कतें आती रहती हैं, पर सामना सीधे से हो जाए, ये जरा मुश्किल होता है। फूल कांटों में भी उगते हैं, कांटा चुभ न जाए यह जरा मुश्किल होता है। यह जीवन सीधा सा गुजर जाए, यह बहुत मुश्किल होता है। मौत हमेशा साथ रही है रहेगी, वो जरा टल जाए, उससे यह कहना बहुत मुश्किल होता है। उसने तो बहाने ढूंढ रखे हैं, हमें साथ ले जाने के, रुक जा जरा अभी चलता हूं, यह मैं कह दूं ऐसे में वह रुक जाए, यह बहुत मुश्किल होता है। मंजिल तक पहुंचना है मुझे, पर मंजिल बहुत दूर है। रास्ते पर चल निकला हूं, पहुंचूंगा कहां मालूम नहीं, राह दिख रही है करीब, पर मंजिल बहुत दूर है। करीब आ जाए मंजिल, ये कहना बहुत मुश्किल होता है। यह जीवन सीधा सा गुजर जाए यह बहुत मुश्किल होता है। कुम्हार की तरह मैंने चाक पर गीली माटी रख...
रिश्तें
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रिश्तें

संजय जैन मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** कभी रिश्ते बनाते है कभी उनको निभाते है। कभी रिश्ते बचाते है कभी खुदको बचाते है। इन दोनों कर चक्कर में अपनो को खो देते है। फिर न रिश्ते रहते है और न अपने रहते है।। जो रिश्तों को दिलो में संभलकर खुद रखते है। और लोगों को रिश्तों के सदा उदाहरण देते है। और रिश्तें क्या होते है परिभाषा इसकी बताते है। और रिश्तों के द्वारा ही घर परिवार बनाते है।। कई माप दण्ड होते है हमारे रिश्तों के लोगों। कही माँ बाप का तो कही बहिन भाई का। किसी किसीके तो पड़ोसी इनसे भी करीब होते है। जो सुखदुख में पहले अपना रिश्ता निभाते है।। रिश्तों का अर्थ स्नेह और मैत्री भाव से समझाते है। और रिश्तों की खातिर समान भाव रखते है। और अपने रिश्तों को अमर करके जाते है। और अमर हो जाते है।। परिचय :- बीना (मध्यप्रदेश) के निवासी संजय जैन वर्तमान में मुम्बई में कार्यरत हैं। करीब २५...
स्त्री हूं मैं
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स्त्री हूं मैं

रश्मि नेगी पौड़ी (उत्तराखंड) ******************** स्त्री हूं मैं मुझे लाचार मत समझना शक्ति का स्वरुप, मां दुर्गा का रूप हूं मैं… ममता की मूरत, स्नेह का सागर हूं मैं दो घरों की लाज हूं मैं, दो घरों की शान हूं मैं त्याग, दया, करुणा की मूरत हूं मैं गंगा जैसी तरल और स्वच्छ हूं मैं स्त्री हूं मैं, मुझे लाचार मत समझना शक्ति का स्वरुप, मां दुर्गा का रूप हूं मैं… शास्त्रार्थ जो करते, तो मैं गार्गी बन जाती आंच जब मेरे पति पर आती, तो मैं सावित्री बन जाती अस्तित्व जब मेरे खतरे में होता, तो मैं काली बन जाती जुल्म जो तुम मुझ पर करोगे उठूंगी, लडूंगी और आगे बढूंगी अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करूंगी हिम्मत को अपना साथी बना कर, अपनी हर मंजिल फतेह कर जाऊंगी और उतारो मुझे किसी भी क्षेत्र में तो मैं नाम कमा जाऊंगी अपनी एक अलग पहचान छोड़ जाऊंगी स्त्री हूं मैं, मुझे लाचार मत समझना शक्ति का स्वरूप मां दुर्ग...
ज्ञान वही… जो जागृत कर दे
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ज्ञान वही… जो जागृत कर दे

ममता श्रवण अग्रवाल (अपराजिता) धवारी सतना (मध्य प्रदेश) ******************** क्या होगा गीता पढ़ पढ़ कर, जब मन में न आये कोई ज्ञान। कितना भी पढ़ पण्डित हो जाये, पर, व्यर्थ रहे, जब हो अभिमान।। ज्ञान बहे धरती पर ऐसे, ज्यों हो बादल की बरसात। पर, व्यर्थ बहें ये बूंदे कीमती, बंजर धरती न समझे औकात।। इसी तरह इस मानव मन पर, कभी न पड़ता कोई प्रभाव। चाहे जितने भी ग्रंथ वो पढले, पर मन से न जाये दुर्भाव।। प्रतिदिन होती धर्म सभायें, होता भगवत, गीता का ज्ञान। कितने जाते गुरुद्वारे, चर्च, कितने पढ़ते बैठ कुरान।। पर कभी समझ न पाते ये, अपने ईश्वर का धर्म आदेश। क्या यही सिखाया प्रभु ने हमें, क्या यही दिया था उनने उपदेश।। ईश्वर तत्व है भाव कल्याण का, जो सबका चाहें सदा कल्याण। तो, चाहो तुम यदि प्रभु को पाना, तब समझो फिर तुम उनका ज्ञान। तब समझो फिर तुम उनका ज्ञान। तब समझो फिर तुम उनका ज्ञान।। परिचय :- ममता...
आगरम… सागरम…
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आगरम… सागरम…

ओंकार नाथ सिंह गोशंदेपुर (गाजीपुर) ******************** आगरम सागरम बुद्धि के नागरम कर कृपा मुझ पर कर दे मुझे निर्भयम हर समय लीन तुझ में सदा मैं रहूं अपनी विपदा कभी ना किसी से कहूं हो एके कर्म करते जाए धर्म कर कृपा मुझ पर कर दे मुझे निर्भयम है तुम में सब सब तुम में है पर्वत सागर सब तुम में है कोई कुछ भी कहे ना कोई भरम कर कृपा मुझ पर कर दे मुझे निर्भयम ओंकार कहता हे दिव्य दयानिधिम ना क्षमता मेरी कहुं मैं केहि बिधिम कर कृपा मुझ पर कर दे मुझे निर्भयम आगरम सागरम बुद्धि के नागरम कर कृपा मुझ पर कर दे मुझे निर्भयम परिचय :-  ओंकार नाथ सिंह निवासी : गोशंदेपुर (गाजीपुर) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं,...
मौन
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मौन

धैर्यशील येवले इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** मैं एकांत में संवादहीन बैठा हूँ सबसे दूर अलग हो परिलक्षित भर हो रहा मौन। विचारों का सुप्त ज्वालामुखी फुट पड़ा है दहकता बहता लावा लगता है मुझे भस्म कर देगा भीतर क्या क्या नही भर रखा था मैंने काश की बह जाने देता समय समय पर किंतु मैं दबाता रहा विचारों को आज जब धारण किये बैठा हूँ मौन सत्य की प्रथम सीढ़ी पर ही बह निकला है मेरा सच। कितना कठिन हो रहा है स्वयं को खाली करना यम नियम संयम की राह पर चल पड़ा हूँ धारणा मजबूत हो रही है अब दूर नही है समाधि। परिचय :- धैर्यशील येवले जन्म : ३१ अगस्त १९६३ शिक्षा : एम कॉम सेवासदन महाविद्याल बुरहानपुर म. प्र. से सम्प्रति : १९८७ बैच के सीधी भर्ती के पुलिस उप निरीक्षक वर्तमान में पुलिस निरीक्षक के पद पर पीटीसी इंदौर में पदस्थ। सम्मान : राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच इंदौर hindirakshak.com द्वारा हिंदी रक्षक २०२...
कभी बारिश की नमी थी
कविता

कभी बारिश की नमी थी

सुभाष बालकृष्ण सप्रे भोपाल (मध्य प्रदेश) ******************** धरा पर कभी बारिश की नमी थी, वन विकास की गति अब थमी थी, शहरीकरण ने उजाडे आवास हमारे, पेडो के आशियाने हमारी सर जमी थी, गर्मी से निजात दिलाता, न है अब कोई, सर छ्पाने सघन छाया की, बेहद कमी थी, दाने-दाने को तलाशना, मज़बूरी है, हमारी, पानी के बिना हलक में, बची न नमी थी, याद आते हैं, जंगल के, वो हरे भरे, नज़ारे, क्या यही, वो, हमारी सस्य श्यामला जमीं थी. परिचय :- सुभाष बालकृष्ण सप्रे शिक्षा :- एम॰कॉम, सी.ए.आई.आई.बी, पार्ट वन प्रकाशित कृतियां :- लघु कथायें, कहानियां, मुक्तक, कविता, व्यंग लेख, आदि हिन्दी एवं, मराठी दोनों भाषा की पत्रीकाओं में, तथा, फेस बूक के अन्य हिन्दी ग्रूप्स में प्रकाशित, दोहे, मुक्तक लोक की, तन दोहा, मन मुक्तिका (दोहा-मुक्तक संकलन) में प्रकाशित, ३ गीत॰ मुक्तक लोक व्दारा, प्रकाशित पुस्तक गीत सिंदुरी हुये (गीत सँकलन...
ज़िंदगी… “अनछुए लम्हें”
कविता

ज़िंदगी… “अनछुए लम्हें”

निर्मल कुमार पीरिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** अधखुले लबों में छूपी, अनकही, कहानियां, हर्फ़ों को हैं, तरस रही, अनजानी, मजबूरियां... कहने को तो, हैं बहूत, लब, लरज जाते मगर, ढल नही पाते, शब्दों में, बह जाते, पाती पे मगर... बिखरें, भीगे, उन हर्फ़ों को, क्यो ना, मोती सा, सहेज ले, खो ना जाये, पाती भीगीं, उसे वक्त से, समेट ले... बैठ, मिल हम, उन पलों को, ख़ुद में, क्यो ना, टटोल ले, अनछुए, लम्हों को, क्यो ना, आओ फिर, उकेर ले... उत्कीर्ण करे, दास्तां नई, अधर पँखुरी, जरा खोल दो, उर छुपे, भावों को फिर, सहज, प्रेम स्याही, से घोल दो... धर दो, अधरों को, अधर पर, शब्द, सांसो में, घुल जाएंगे, लब लरज़ते, गर, कह ना पाये, धड़कनो से, लिख हम जाएंगे... सत्य सँग, वो सुंदर भी होगा वही भावों की, गँगा बहेगी, सहेजेंगे, प्रतीति जटा में, चेतना, "निर्मल" शिव सी होंगी... होगी ना कोई, दास्तां अधूरी, स्वरुप इसक...
उजाला
कविता

उजाला

मईनुदीन कोहरी बीकानेर (राजस्थान) ******************** उजाले के लिए बचा कर रखना अपनत्व की बाती प्यार के तेल में सींच कर, फिर स्नेह का उजाला करना। बुराई की आंधी बुझा ना पाए किसी के दिल का दिया प्यार के आंसुओं से, फिर अंधेरे में उजाला करना। बचपन और जवानी उतार-चढ़ाव की है कहानी इसे सहज कर रखना किसी गरीब की अभिलाषा में, फिर उम्मीद का उजाला करना।। नफरत के इस दौर में घर में भी डर लगता है कोलाहल से भरी हवाओं में प्रदूषण को पर्यावरण में बदलने, फिर आशा की किरण से उजाला करना। वैष्विक महामारी के वायरस को अलविदा करने की मुहिम में सवा करोड़ देशवासियों मुश्किल की घड़ी में, फिर हौसलों के चिराग से उजाला करना। परिचय :- मईनुदीन कोहरी उपनाम : नाचीज बीकानेरी निवासी - बीकानेर राजस्थान घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहान...
रिश्ते सब अनजान हो रहे
कविता

रिश्ते सब अनजान हो रहे

प्रो. आर.एन. सिंह ‘साहिल’ जौनपुर (उत्तर प्रदेश) ******************** रिश्ते सब अनजान हो रहे गिरगिट सा इंसान हो रहे अब कैसी उम्मीद किसी से दिल से जब बेजान हो रहे दौर कठिन है वक़्त बुरा है स्वार्थ का सिर पे भूत चढ़ा है झूँठ की है चौतरफ़ा चाँदी सत्यव्रती हलकान हो रहे शासन में धृतराष्ट्र है बैठे हैं मदमस्त नशे में ऐंठें ये परिदृश्य अशुभ लगते हैं धूमिल सब प्रतिमान हो रहे किस पर करें यक़ीन बताओ दुविधा में कुछ राह दिखाओ बहुरूपियों का दौर है जैसे रूप बदल भगवान हो रहे बगुला भगत सभी लगते हैं छिप छिप स्वाद मधुर चखते हैं साहिल क्रमशः विमुख हो गए खंड खंड अरमान हो रहे परिचय :- प्रोफ़ेसर आर.एन. सिंह ‘साहिल’ निवासी : जौनपुर उत्तर प्रदेश सम्प्रति : मनोविज्ञान विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश रुचि : पुस्तक लेखन, सम्पादन, कविता, ग़ज़ल, १०० शोध पत्र प्रकाशित, मनोविज्ञ...
कवि का जीवन
कविता

कवि का जीवन

अख्तर अली शाह "अनन्त" नीमच (मध्य प्रदेश) ******************** कवि का जीवन संस्कारित पथ, तारणहार कवि है। कुरीतियाँ हैं व्याधि अगर तो, बस उपचार कवि है।। गुरु है वो जो "अनंत" कहता, उसकी कथनी मानें। जिसपे टिकी सभ्यता की छत, वो दीवार कवि है।। अंधकार में रहकर के कवि, करे उजाला घर-घर। भले हलाहल पीले वो पर, बनता सच्चा रहबर।। "अनन्त" धुन का मालिक है वो, निर्देशित है खुद से। उसका जीना उसका मरना, कब होता है डरकर।। खिला कमल है कवि कीचड़ में, सबकी करे भलाई। तुम बारूदी कर लो खुद को, वो है दियासलाई।। "अनन्त" नम भूमि में ही तो, जीवन नित फलता है। बिना प्रयासों के कब मिलती, लोगों दूध मलाई।। कवि वही जो संप्रभु शक्ति, से ताकत पाता है। दरबारों में नहीं उठाता, हाथ न यश गाता है।। आती-जाती सरकारों के, क्यों "अनंत" गुणगाए। सेवक बनकर बंदो का जो, ऊपर से आता है।। परिचय :- अख्तर अली शाह "अनन्त" पिता : क...
रंगो से प्रेम करके देखो
कविता

रंगो से प्रेम करके देखो

संजय जैन मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** प्रेम मोहब्बत से भरा, ये रंगों त्यौहार है। जिसमें राधा कृष्ण का जिक्र बेसुमार है। तभी तो आज तक अपनो में स्नेह प्यार है। इसलिए रंगों के त्यौहार को, हर मजहब के लोग मनाते है।। होली आपसी भाईचारे और प्रेमभाव को दर्शाती है। और सात रंगों की फुहार से, 7-फेरो का रिश्ता निभाती है। साथ ही ऊँच नीच का भेद मिटाती है। और हृदय में सभी के भाईचारे का रंग चढ़ती है।। सात रंगो के ये रबिरंगे रंग सभी को भाते है। और अपनो के दिलो से कड़वाहट मिटाते है। रंगो में रंग मिलकर नये रंग बन जाते है। आपस में रंग लगाकर नये नये दोस्त बनाते है। और नये भारत का निर्माण मिल जुलकर करते है।। परिचय :- बीना (मध्यप्रदेश) के निवासी संजय जैन वर्तमान में मुम्बई में कार्यरत हैं। करीब २५ वर्ष से बम्बई में पब्लिक लिमिटेड कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत श्री जैन शौक से लेखन में सक्र...
माँ कौशल्या ने राम जी से पूछा
कविता

माँ कौशल्या ने राम जी से पूछा

प्रेम नारायण मेहरोत्रा जानकीपुरम (लखनऊ) ******************** जब प्रभु राम १४ वर्ष के बनवास के बाद वापस आये और माँ कौशल्या से मिलने गए तो अत्यन्त दुखी होने के कारण उन्होंने अपनी कोख को ही अभागिन कह देखे प्रभु राम कितनी शालीनता से उनकी पीड़ा को हर लिया और माँ कैकेयी, हनुमान जी, भरत जी और लक्ष्मण जी का मान बढ़ाया। माँ कौशल्या ने राम जी से पूछा राम क्यों दुःख भोगने को इस अभागिन कोख आया, राज्य छुटा, वन गया, चौदह वर्ष तक कष्ट पाया। राम जी ने मुस्करा कर उत्तर दिया हूँ परम सौभग्यशाली मातु तेरी कोख पाया, शीश धर आज्ञा पिता की, मैंने जग में मान पाया। जग को कुछ आदर्श देने आया है माँ राम तेरा, तप के कंचन सा निखरना, मातु था उद्देश्य मेरा। कैकेयी माता ने अपजस सह मुझे कंचन बनाया। हूँ परम सौभग्यशाली... यदि न जाता वन तो हनुमत और लेखन सेवा न पाते, त्याग की प्रतिमूर्ति मेरे भरत भैया बन न पाते। में बंधा था ...
प्रीत कान्हा से
कविता

प्रीत कान्हा से

विमल राव भोपाल मध्य प्रदेश ******************** कान्हा तुम संग प्रीत लगाई मन हीं मन पछताई मैं। विरह अगनी में ऐसी उलझी आपही रास रचाई मैं॥ भूल गई मैं सांझ सवेरा द्वार द्वार फिर आई मैं। कहाँ गयो चितचौर कन्हैया नैयनन ढूंढ ना पाई मैं॥ गोपियन संग जो रास रचायों मोहे कन्हैया नाच नचायों। घैर लयी पनघट कान्हा नें प्रेम रंग कों राग बजायों॥ मैं आगे कान्हा पीछे बृज की गलियन, दौड़ाई मैं। हिय में ऐसो, बसो नंदलला याहे एक क्षण भूल ना पाई मैं॥ सखी श्याम सलोनों कितै गयो याकि बंशी चुरा ल्ये आई मैं। काऊ देखो हैं कुँज गलिन कान्हा यासों प्रीत भुला ना पाई मैं॥ परिचय :- विमल राव "भोपाल" पिता - श्री प्रेमनारायण राव लेखक, एवं संगीतकार हैं इन्ही से प्रेरणा लेकर लिखना प्रारम्भ किया। निवास - भोजपाल की नगरी (भोपाल म.प्र) विशेष : कवि, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता एवं प्रदेश सचिव - अ.भा.वंशावली संरक्षण एवं संवर्द्धन संस्था...
मन में कोई दुविधा मत रखो
कविता

मन में कोई दुविधा मत रखो

होशियार सिंह यादव महेंद्रगढ़ हरियाणा ******************** हँसो, खेलो, कूदो, मुस्कुराओ, सुख दुख हरदम स्वाद चखो, दूसरों की सहायता कर देना, मन में कोई दुविधा मत रखो। काम करो सदा सोच समझ, वरना पड़ जाता है पछताना, जो रूठकर जाना चाहते हो, बस उन्हें प्यार से समझाना। राह चलना सदा हँसते गाते, देश विकास का एक तराना, आगे बढऩे की ललक रखो, एक दिन याद करेगा जमाना। पाप कर्म जो करता जगत में, हो जाता जन का जरूर नाश, आजादी मिली हमको प्यारी, बनकर नहीं रहना कभी दास। संसार में कुछ करने को आये, पाप कर्म में कभी नहीं गंवाये, दाता का निर्मित किया संसार, होठों पर ये खुशियां गुनगुनाये। सरस,रसधार मन में रखना है, पाप, नीच, अधम मत बनना, खुद भी बढ़ों औरों को बढ़ाए, बस दिल में ताना बाना बुनना। सिकंदर जैसे कितने ही आये, एक दिन उनका सूर्य भी अंत, बस चार दिनों की जिंदगी है, कह गये कितने ही साधु संत। मन में कोई भी...
एक अभिलाषा
कविता

एक अभिलाषा

मनोरमा जोशी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** जीवन का अंतिम पहर, चहुँ और बरस रहा कहर। क्षण भंगुर है जीवन, कब पंक्षी सा उड़ जाये, सोच मन अतीत, में खो जाता है। कभी वर्तमान, कभी भूतकाल, मैं खो जाता है। भरता हैं उडा़न, तोड़ बंधन, झरनों सा बहता। गंगा की लहरों, सा लहराता, हिलोर लेता, बन पतंगा उड़ता, कभी थमता नहीं। कुछ कर गुजरने, की प्रबल जिज्ञासा, कुछ आशा अभिलाषा। शब्दों से बुनता जाल, आता है ख्याल, अपनी यादें अमिट छाप, जिससें सार्थक हो जीवन यादों के झरोखें जहाँ हो, भूलीं बिसरी सुनहरी, यादें अपनी बातें अपनी बातें। परिचय :-  श्रीमती मनोरमा जोशी का निवास मध्यप्रदेश के इंदौर में है। आपका साहित्यिक उपनाम ‘मनु’ है। आपकी जन्मतिथि १९ दिसम्बर १९५३ और जन्मस्थान नरसिंहगढ़ है। शिक्षा - स्नातकोत्तर और संगीत है। कार्यक्षेत्र - सामाजिक क्षेत्र-इन्दौर शहर ही है। लेखन विधा में कविता और लेख लिखती हैं। ...