भ्रास
हितेश्वर बर्मन 'चैतन्य'
डंगनिया, सारंगढ़ (छत्तीसगढ़)
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जरुरी नहीं है कि सिर्फ
काँटा ही तकलीफ दे
काँटे का क्या है ?
वो तो कभी न कभी
निकल ही जाएगा।
पर मैं मन में छुपे हुए,
भ्रास को कैसे बाहर निकालूं ?
जो यदि बाहर निकल गया,
तो दूसरों को तीर
की भांति चुभेगा।
और यदि बाहर न निकला,
तो मुझे भीतर ही भीतर
सीना भेदकर गहरी
ज़ख्म पहुँचायेगा।
न किसी से कुछ कह सकूंगा
न तो ज्यादा दिन
गले अंदर रख सकूंगा !
ये भ्रास मुझे दीमक
की तरह खायेगा।
मैं मन ही मन
जलकर खाक हो जाऊंगा
ज़ुबान होते हुए
भी बोल न पाऊंगा
क्रोधाग्नि मे मेरा
कलेजा जल जाएगा
फिर भी बाहर से
कुछ नज़र नहीं आयेगा।
ये भ्रास मुझ पर ही वार करेगा
गले से उतरकर सीने में,
तीर की भांति जा चुभेगा
मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा
ये मेरे ही जिस्म
को ढाल बनायेगा।
सोचता हूँ मन की
भ्रास निकाल दूँ
गले में अटके हुए
को...