प्रेम-तरंगिणी:
भारमल गर्ग "विलक्षण"
जालोर (राजस्थान)
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तुम शिला बन अरुणाचल पर, मैं निर्झर बहता जल हूँ।
तपते तव मौन-तप में, मेरा स्वर सागर-सा ढल हूँ॥
तुम वेदों के अग्नि-सूत्र हो, मैं हवि बन जलता धुआँ।
प्रेम यज्ञ की ज्वाला में, दोनों एकाकार हुए आँ॥
तुम्हारी आँखों के तारों ने, नभ का मौन तोड़ा है।
मेरी पृथ्वी की गोद में, उनकी ज्योति बिखरा दी है।
तुम्हारे स्पर्श की लहरें, वसंत की पुष्प-वृष्टि लायीं।
मेरे विरह के शरद में, पत्ते सूखकर राख बन गयीं॥
तुम वटवृक्ष, मैं उसकी छाया, जड़ों में गूँथा सन्नाटा।
तुम नभ के गगन-गायक, मैं धरती का अधूरा गाथा॥
तुम सिन्धु हो, मैं तट बन बैठा, लहरों से गूँथे बंधन।
बंधन में स्वतंत्रता का रस, यही प्रेम का महामंत्र॥
तुम मेरे नभ के चन्द्रमा, मैं तुम्हारी रात का सन्नाट।
मिलन में अमावस्या बनी, विराट व्रत की यह बात॥
तुम्हारे हृदय की गुफा म...