अंतस् पीड़ा
मीना भट्ट "सिद्धार्थ"
जबलपुर (मध्य प्रदेश)
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तन खंडित मन खंडित अब तो,
चले आँधियाँ दीप बुझाएँ,
पीड़ा अंतस् की है भारी,
कैसे अब मन को समझाएँ।।
छलक रहे नैनों से सागर,
नही मिला अपनों का संबल।
गहन तिमिर,उजियार नही है,
घोर उदासी के हैं बादल।।
अपने सभी पराए लगते,
व्यथा कथा हम किसे सुनाएँ।
टूट गए अनुबंध सभी हैं,
नियति चक्र से जीवन हारे।
अभिशापित है मदिर-प्रीति भी,
भटक रहे बन के बंजारे।।
तूफानों में फँसी नाव है,
अनुगामी बस हैं विपदाएँ।
संत्रासों में जीवन बीते,
नही हाथ में सुख की रेखा।
चलते हम हैं अंगारों पर,
कैसा विधि का है प्रभु लेखा।।
मरुथल-सा जीवन है सारा,
धूमिल होती सब आशाएँ।
घोर निराशा है जीवन में,
प्यासा पनघट सूखी डाली।
जाल बिछा है आघातों का,
पड़ी ग्रहण की छाया काली।।
बोझिल होते स्वर सरगम के,
मिली धूल में अभिलाषाएँ।
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