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कविता

माँ ….
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माँ ….

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** इंदौर रेलवेस्टेशन पर एक बुजुर्ग महिला लावारिस मिली थी, उसने बताया कि उसका बेटा उसे मुम्बई में ट्रेन में बिठा कर अभी आया बोल कर चला गया। इस मार्मिक घटना को शब्द देने का प्रयास मैंने किया है। माँ कहते है हर जगह ईश्वर नही जा सकता, इसलिए उसने बनाया तुझे। माँ नौ माह तक कितने जतन से पाला अपने भीतर तूने मुझे। माँ मेरा जन्म मर्मान्तक प्रसव पीड़ा दे गया तुझे। माँ मुझे पालते घर का पेट भी पालना था तुझे। माँ दिन रात मजदूरी करती थी तू छाती से लगा कर मुझे। माँ तू खाली पेट हो कर भी भरपेट दूध पिलाती मुझे। माँ तेरा आँचल तेरी देहगंध बेफिक्र सुला देती थी मुझे। माँ तेरे हाथ की चमड़ी खुरदरी होती रही, पॉव में छाले पड़ते रहे, माँ मैं बड़ा होता रहा अहसास न होने दिया मुझे। माँ मैं जवान हो गया कितने गर्व से तू, अपने आँसु छुपाते हुए देखती थी मुझे। माँ मेरे...
पुरुष धर्म
कविता

पुरुष धर्म

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** उर्मिला से वनगमन की सहमति नहीं ली बस भातृधर्म का पालन कर लिया तुमने आरती की थाली में दीपक सजाकर वो स्व के हर मनोभाव को अंतर्सात कर विदा करती निसंकोच करने वचन पालन और तुम बिठा देते हो देवी के पद पर बिना जानकारी दिये उस सरल स्त्री की अतृप्त अंतह् में मचलती दबी हर इच्छा उसे स्त्री धर्म के नाम पर करके कुर्बान क्योंकि तुम हो समाज के प्रतिष्ठित पुरुष पुरातन से आजतक रहोगे निर्णय कर्ता कभी स्वयं भी करो न तुम धर्म निर्वहन झुक कर लगा दो तुम भी लाल टीका कर दो दीपक को सजाकर थाल में बिना किसी तर्क के धर्म पालन हेतु विदा उसे तुम भी इक जलते हुए दीपक के इंतज़ार और पुरुष धर्म के विश्वास साथ बस जिस दिन उसके निर्णय को सहजता और पवित्रता से आत्मसात करके तुम करते मिलोगे उस उर्मिला का इंतजार लक्ष्मण तभी सही मायने में हो जाओगे भगवान बनकर उस अर्थ पूर्ण पद पर आसीन और...
कँहा है बाबा का संविधान
कविता

कँहा है बाबा का संविधान

ओम प्रकाश त्रिपाठी गोरखपुर ********************** बतलाओ अब आज कँहा है, बाबा का संविधान, ये भारत पूछ रहा है...।। प्रथम प्रहार इसके प्रयोग पर, नेहरु ने कर डाला था। कुटिल नीति पर चल कर, मौलिक नियम बदल डाला था। पूछो उस दिन कहां हुआ था, बाबा का सम्मान ये भारत पूछ....।। जब बारी इन्दिरा की आयी, उसने भी न छोडा। अपने सत्ता के सुख खातिर, खूब तोडा और मरोड़ा। ऐसा संसोधन उसनें की कि तडप उठा इन्सान ये भारत पूछ......।। संविधान को करके निलंबित, इमरजेंसी लगा डाला था। अमन पसंद सभी जन को, जेलों में, भर डाला था। फिर भी कहते हैं कि हमको पूज्य है ये संविधान ये भारत पूछ ...।। सबने बारी बारी से, निज सुविधा इसको बदला है। और बदलने को खातिर, अगला भी देखो मचला है। देश को लूटे कर संसोधन और बचा ली अपनी जान ये भारत पूछ....।। सुप्रीम कोर्ट चलता है उससे, उसको भी न चलने देते। अगर वोट होता है प्रभावित, हैं संसोधन कर लेते। अ...
ज़रा आहिस्ता चल …
कविता

ज़रा आहिस्ता चल …

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** ऐ वक्त ज़रा आहिस्ता चल, थक चुकी, संग तेरे दौड़ते दौड़ते न मिली कोई मंजिल न सहारा मिला, बहती कश्ती को न कोई किनारा मिला, रातें ढलती रही सुबहा होती रही यूँ जिन्दगी की शाम हो गयी न सुबहा सजी, न शामें सजी जिन्दगी यूँ ही बीती, जिन्दगी खोजते खोजते, ऐ वक्त .......... मै कैसे चलूँ संग तेरे बता, किधर खो गया है नही कुछ पता, मैने पकड़ा स्वयं को तो तू खो गया, तुझको जो पकड़ा, वजू़ खो गया अब कैसे तलाशूँ तू ही बता, उम्र खोने लगी अब तुझे ढूंढते ढूंढते ऐ वक्त ज़रा .................. . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित ...
संगीत का महत्व
कविता

संगीत का महत्व

संजय जैन मुंबई ******************** सुनाकर मुझे अपना राग, मेरा मन बहलाते हो। थकान मेरी अपने गीतों से, तुम मिटाते हो। तभी तो संगीत को, महफ़िल की शान मनाते है। और हर राज दरबारों में, इन्हें स्थापित करते है।। समय ने फिर करवट ली, बदल गया सबका नजरिया। संगीत को मनोरंजन का, साधन माने जाने लगा। अब गांव और शहरों में, इसका आयोजन होने लगे। जिस से इंसानों की, थकान मिट ने लगी। और समाज में हर्ष उल्लास का, वातावरण बनने लगा।। काम के साथ साथ, लोग गीतों को सुनते है। और काम को, बड़े आनदं से करते है। मनोरंजन करके भी, वो कार्य क्षमता बढ़ाते है। तभी तो संगीत को, विशेष दर्जा दिलवा रहे है।। . लेखक परिचय :- बीना (मध्यप्रदेश) के निवासी संजय जैन वर्तमान में मुम्बई में कार्यरत हैं। करीब २५ वर्ष से बम्बई में पब्लिक लिमिटेड कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत श्री जैन शौक से लेखन में सक्रिय हैं और इ...
सौन्दर्य प्रकृति अभिन्दन
कविता

सौन्दर्य प्रकृति अभिन्दन

मनोरमा जोशी इंदौर म.प्र. ******************** अक्सर होता रहता है, भावों का स्पंदन। है आजाद विहग के खातिर, जैसे मुक्त गगन। ब्रह्म मूहर्त की छटा निराली, रुचि कर रंग अरूण, जलप्रपात के स्वर सुन, आशाऐं हुई तरूण। सुरभित होते है समीर, चलने से चमन सुमन, पुलकित अतिश्य हो उठता हैं जिससे अंतरमन। कोयल की सुमधुर कूक से, अनुप्रेरित कवि जीवन, करू रम्य प्रकृति वर्णन में कागज कलम समर्पण। चंदन वन हैं कविता, जिसमें सरस बनें यह जीवन, प्रकृति कलाओं की जननी हैं, प्रतिपल अभिनंनदन। . लेखिका का परिचय :-  श्रीमती मनोरमा जोशी का निवास मध्यप्रदेश के इंदौर में है। आपका साहित्यिक उपनाम ‘मनु’ है। आपकी जन्मतिथि १९ दिसम्बर १९५३ और जन्मस्थान नरसिंहगढ़ है। शिक्षा - स्नातकोत्तर और संगीत है। कार्यक्षेत्र - सामाजिक क्षेत्र-इन्दौर शहर ही है। लेखन विधा में कविता और लेख लिखती हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी ...
नापी है जमी
कविता

नापी है जमी

मनीषा व्यास इंदौर म.प्र. ******************** नापी है जमी अभी छूना आसमा, अपने हुनर से, है अपनी पहचान। जागते चलो उठो, लक्ष्य ये महान, महज कल्पना नहीं, हकीकत की है उड़ान। कर्म का है विधान सफलता की है शान, हौसलों की यह उड़ान, खुशी का ये जहान। जिंदगी कर्मपथ है राह भी है आसान उठो, जागो, बढ़े चलो ले मशाल।   लेखिका परिचय :-  नाम :- मनीषा व्यास (लेखिका संघ) शिक्षा :- एम. फ़िल. (हिन्दी), एम. ए. (हिंदी), विशारद (कंठ संगीत) रुचि :- कविता, लेख, लघुकथा लेखन, पंजाबी पत्रिका सृजन का अनुवाद, रस-रहस्य, बिम्ब (शोध पत्र), मालवा के लघु कथाकारो पर शोध कार्य, कविता, ऐंकर, लेख, लघुकथा, लेखन आदि का पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन एवं विधालय पत्रिकाओं की सम्पादकीय और संशोधन कार्य  आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच...
बालमन
कविता, बाल कविताएं

बालमन

कंचन प्रभा दरभंगा (बिहार) ******************** टीचर से मेरा एक सवाल दे दो मुझको इसका जवाब पापा क्यों ना पहने साड़ी? दीदी को क्यों ना मूछें दाढ़ी? टी वी में कितने लोग समाते! पर क्यों ना वो बाहर आते? सूरज क्यों ना धरती पर टहले? लोरी से कैसे मुन्नी बहले? टीचर से मेरा एक सवाल दे दो मुझको इसका जवाब मुझको बता दो इसका राज क्या पशुओं को ना लगती लाज? पक्षी क्यों ना पहने चड्डी? उनको क्या ना होती हड्डी? नदियों से क्यों ना निकले आग? कौआ क्यों ना छेड़े राग? टीचर से मेरा एक सवाल दे दो मुझको इसका जवाब कौन सी मछली जल की रानी? जीवन कैसे उसका पानी? कौन सा बन्दर पहने पजामा? कैसे है वो मेरा मामा? बिल्ली को मौसी क्यों कहना? क्या वो है मम्मी की बहना? टीचर से मेरा एक सवाल दे दो मुझको इसका जवाब .... . परिचय :- कंचन प्रभा निवासी - लहेरियासराय, दरभंगा, बिहार आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, ...
ए हवा
कविता

ए हवा

सुरेखा सुनील दत्त शर्मा बेगम बाग (मेरठ) ********************** ए हवा, कितना तेज, चला, ना कीजिए, जुल्फें हमारी इस कदर, उड़ाया न कीजिए, हौसला है तुम में माना हमने, मगर इस कदर हमसे, यू शरारत न कीजिए, हमने कब कहा, बंद हो जाओ, इतना धीमा होकर भी, यूं हमें, जलाया ना कीजिए, करती है शरारत जब, हवा तेज होती है, हवा की ये गुदगुदी, हमें खूब हंसाती है, हवा तेज चली तो... आंचल भी संभालेंगे, कह देते हैं ए हवा, बार-बार शरारत यू हमसे ना कीजिए। ए हवा कितना तेज चला ना कीजिए, जुल्फें हमारी इस कदर उड़ाया न कीजिए!! . परिचय :-  सुरेखा "सुनील "दत्त शर्मा जन्मतिथि : ३१ अगस्त जन्म स्थान : मथुरा निवासी : बेगम बाग मेरठ साहित्य लेखन विधाएं : स्वतंत्र लेखन, कहानी, कविता, शायरी, उपन्यास प्रकाशित साहित्य : जिनमें कहानी और रचनाएं प्रकाशित हुई है :- पर्यावरण प्रहरी मेरठ, हिमालिनी नेपाल, हिंदी रक्षक मंच (hindirakshak.com) ...
देख हिमालय है झुका
कविता

देख हिमालय है झुका

नफे सिंह योगी मालड़ा सराय, महेंद्रगढ़(हरि) ******************** देख हिमालय है झुका, चकित खड़ाआकाश। बर्फीला तूफान भी, कर न सका कुछ खास।। पीड़ा सिर को पीटती, चीख रहे सब घाव । मन्नत माँगे मौत भी, भूल गई सब दाव।। टकरा-टकरा आ रही, पर्वत से चिंघाड़ । शंका में है शेर भी, काँपें जंगल झाड़।। माँ काली सी जब भरी, आक्रामक हुँकार । घबरा दुश्मन ने वहीं, डाल दिए हथियार।। नाड़ी फड़कें क्रोध से, आँखों में आक्रोश । दर्द दवाई माँगता, देख सिपाही जोश ।। . परिचय : नाम : नफे सिंह योगी मालड़ा माता : श्रीमती विजय देवी पिता : श्री बलवीर सिंह (शारीरिक प्रशिक्षक) पत्नी : श्रीमती सुशीला देवी संतान : रोहित कुमार, मोहित कुमार जन्म : ९ नवंबर १९७९ जन्म स्थान : गांव मालड़ा सराय, जिला महेंद्रगढ़(हरि) शैक्षिक योग्यता : जे .बी .टी. ,एम.ए.(हिंदी प्रथम श्रेणी) अन्य योग्यताएं : शिक्षा अनुदेशक कोर्स शारीरिक प्रशिक्षण कोर...
तरंगित रागिनी
कविता

तरंगित रागिनी

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** झंझावात में बिखरे वो सूखे पत्ते बिछड़ कर अपनी टहनियों से असहाय फैल जाते हैं धरा पर इकत्रित होने के क्रम में आती है आवाज झनझनाहट की अनवरत फिर भी इकट्ठा कर डाल दिए जाते उस कूड़े के ढे़र पर भस्म होने हेतु खोकर अपना वास्तविक वो आकार पर स्व का विनाश कर पाटते रहते वर्षोंं से बनी हुई उस गहरी खाई को या फिर डाले जाते उस निर्जरा पर जहाँ मिटाकर अपना स्व अस्तित्व सड़ और गल कर स्वार्थ हित से परे बनाते उर्वर भूमि सर्वहित के लिए क्योंकि पता है समय चक्र का उन्हें इक दिन तो जड़ से अलग होना है या तो उस असामयिक झंझावात से या फिर उस समय पूर्ण समयावधि से जाते हुए इक अव्यक्त झनझनाहट के असह्य दर्द को व्यक्त करते हुए ही सही अपने सम्पूर्णता को भस्मित करके भी कर जाते है बस परोपकार स्वार्थ रहित ताकि सूखे पत्तों की वो झनझनाहट भी बने सुमधुर संगीतमय तरंगित रागिनी। . पर...
उन्मुक्त
कविता

उन्मुक्त

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** तुम छूना चाहती हो सूरज को, जरूर छुओ पर अपने पंख बचाये रखना। मेरी हर नसीहत को राह का रोड़ा समझती हो नही दूंगा आज से पर अपना विवेक हर पल जगाए रखना। जो दिखता है खूबसूरत बाहर से जरूरी नही भीतर से भी हो फिसलन पर अपने पैर मजबूती से रखना जिसे समझ रहे हो बोझ संस्कारो का चाहते हो इनसे मुक्ति हो जाओ मुक्त फिर इसकी किसीसे आस न रखना। जाओ जिओ जीवन उन्मुक्त जैसे जीते है खग, विहग अरण्य मे, जंगल मे कोई संस्कार नियम, कानून नही होते होता है वहा जाल बहेलिए का बस इतनी सी बात याद रखना। बस इतनी सी बात याद रखना। . परिचय :- नाम : धैर्यशील येवले जन्म : ३१ अगस्त १९६३ शिक्षा : एम कॉम सेवासदन महाविद्याल बुरहानपुर म. प्र. से सम्प्रति : १९८७ बैच के सीधी भर्ती के पुलिस उप निरीक्षक वर्तमान में पुलिस निरीक्षक के पद पर पीटीसी इंदौर में पदस्थ। आप भी अपनी कविताएं, ...
क्या तुम मुस्करा पाते हो
कविता

क्या तुम मुस्करा पाते हो

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** क्या सितम करते हो कान्हा, मेरी नींद से बोझिल आंखो को, खोलते हो अपने स्नेहिल स्पर्श से, फिर जा छुपते हो दूर कहीं, झुरमुटो मे तरुओं के, मै बावरी हो दौड़ पड़ती हूँ, तुम्हे खोजने को यहाँ वहाँ, और तुम मुझे बदहवास होते देख निर्दयी हो मुस्कराते से बंसी बजाते हो नित ही खेलते हो यह लुकाछिपी का खेल तुम कान्हा, अँखियाँ की नींद चुरा, दिन का चैन चुरा लेते हो बन्द आँखों से अहसास होता है, खोलूं जब नयन छुपे ही रहते हो, सताते हो हर दिन यूँ ही तुम मुझे कान्हा, मुझे सताकर क्या तुम, मुस्करा पाते हो? . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक ...
सूखी रोटी खाने वाला
कविता

सूखी रोटी खाने वाला

प्रिन्शु लोकेश तिवारी रीवा (म.प्र.) ******************** छप्पर की कुटिया में सोता सूखी रोटी खाने वाला। पाषाणों को उठा हाथ में अद्भुत महल बनाने वाला। कर को सज्जित कर वो हल से वशुधे को सहलाता है। मेढ़े से बतिया बतिया कर थोड़ी फसल उगाता है। उसी में सुख से जीता है जीवन को सहज व्यतीत करें कभी शाम को दो रोटी कभी पानी पी उठ जाता है। सत्ताधीश छछूँदरों का इन पर भी नीति चले इन पर भी दया करे न टोपी औं चोटी खाने वाला। छप्पर की कुटिया में सोता सूखी रोटी खाने वाला। धरती तेरे पुत्रों से ही धर्मों का जीवन चलता है। धर्मों का लेख मिटाने वाला इन्हीं सुतों से पलता है। पर सत्ता वालों ने दोनों को ऐसा नाच नचाया है धर्मों मे इक धर्म नहीं भूखा पालक मरता है। स्नेह कलंकित होता है आजकल के बैनो से सरिता का आंसू न छोड़ा मानव को बोटी खाने वाला। छप्पर की कुटिया में सोता सूखी रोटी खाने वाला। . ...
वह आगे बढ़ती औरत
कविता

वह आगे बढ़ती औरत

दिव्या राकेश शर्मा गुरुग्राम, हरियाणा ******************** दहलीज लांघ कर स्त्री जब पकड़ने चलती है स्वालंबन के चाँद को, तो वह अकेले नहीं होती साथ ले चलती है अनगिनत चिंताएँ। करने लगती है इंतजाम उन सभी चिंताओं का। सुबह की चाय से लेकर रात के खाने की बाबू की दवा से लेकर अम्मा के चश्मे का। चलते हुए कदमों में शामिल होती है एक बेबसी भी जो उसकी छातियों से जम जाती है और नजर आती है वह मासूम आँखें जिनमें छलकती दिखती हैं कुछ बूंदें आँसुओं की और एक मद्धिम आवाज। इन आवाजों को सीने से लगाए वह चलती रहती है। डेस्कटॉप पर निगाहें टिकी है लेकिन दिल वहाँ अटका हुआ होता है जहाँ पर छोड आती है उस मासूम चेहरे को। हाथों को चलाते दिमाग कहीं और अटकाए कर रही है साफ फिसलन भरे फर्श पर निराशाओं का जमा पानी। सफलता के लिए कर रही हैं समझौते अपनी नींद और भूख से भी यह भूख बेतरतीबी से बिखरी जिंदगी में खोए...
चांदनी से झरते मोती
कविता

चांदनी से झरते मोती

रंजना फतेपुरकर इंदौर (म.प्र.) ******************** भीगी भीगी रात की लहराती धुँध में खोने का इरादा है चांदनी से मोती झरें तो अंजुरी में भरने का इरादा है तुम अगर कह दो रुक जाओ पल भर के लिए सारी उमर इंतज़ार का इरादा है आसमां से झरती नूर की बूंदों में भीगने का इरादा है तुम्हारी झील सी नीली आंखों में डूबने का इरादा है तुम अगर कह दो मंज़िल तक साथ चलने के लिए चाँद को जमीं पर उतारने का इरादा है . परिचय :- नाम : रंजना फतेपुरकर शिक्षा : एम ए हिंदी साहित्य जन्म : २९ दिसंबर निवास : इंदौर (म.प्र.) प्रकाशित पुस्तकें ११ सम्मान ४५ पुरस्कार ३५ दूरदर्शन, आकाशवाणी इंदौर, चायना रेडियो, बीजिंग से रचनाएं प्रसारित देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएं प्रकाशित रंजन कलश, इंदौर अध्यक्ष वामा साहित्य मंच, इंदौर उपाध्यक्ष निवास : इंदौर (म.प्र.) आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी...
बेवजह तुम हमसे यूं …
कविता

बेवजह तुम हमसे यूं …

वीणा वैष्णव कांकरोली ******************** बेवजह तुम हमसे, यूं ना तकरार किया कीजिए। कसम से मर जाएंगे, एक बार मुस्कुरा दीजिए।। बेवजह दिल पर बोझ रख,ना तुम जिया कीजिए। हम आपके अपने हैं, मन की बात बता दिजिए।। गैर नजर बचा तुम, हमसे मिल लिया कीजिए । नजर लग जाएगी, थोड़ा पर्दा रखा कीजिए।। वजह ना हो तो, बेवजह मिल लिया कीजिए। करते हैं तुमसे प्यार, वजह ना ढूंढा कीजिए।। दिल ए दर्द गजल गा, बेवजह शर्मिंदा ना कीजिए। आ जाएंगे मिलने, बस एक इशारा कर दीजिए।। जीने की हमें, आप कोई एक वजह तो दीजिए। यूं ही सरेआम हमें, बदनाम ना किया कीजिए।। वजह की तलाश में, जिंदगी बर्बाद ना कीजिए। अपनों संग आ, हमें बस कबूल कर लीजिए।। बेवजह वजह मिले, आप जिंदगी रंगीन कीजिए। हासिल जहां की खुशियां, जिंदगी वजह दीजिए।। . परिचय : कांकरोली निवासी वीणा वैष्णव वर्तमान में राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय फरारा में अध्यापिका के पद पर...
चारों ओर है मस्ती छाई
कविता

चारों ओर है मस्ती छाई

भारत भूषण पाठक धौनी (झारखंड) ******************** चारों ओर है मस्ती छाई। आई देखो बाल दिवस आई।। बच्चों के मन को है भाता। हरओर उमंग है छाता।। सूर्यदेव भी हर्षित से नभमण्डल में दिख हैं रहे। बगिया में भी प्रसून असंख्य प्रफुल्लित से हो रहे।। यह पर्व बाल मन को है खूब अधिक भाता। हमसब को भी बालपन की याद है कराता।। वैसै तो सब बच्चे खुश हैं दिखते। पर कुछ बच्चे दिख जाते हैं रोते।। बेचारों के मम्मी पापा जो न होते । आओ इन बच्चों को भी गले लगाएँ। इनके मन को भी हर्षित कर जाएं।। सम्पूर्ण भू-मण्डल के बच्चों को बालदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं इस चाचा, भैया, मामा, दादा, नाना, मित्र, अध्यापक की ओर से..... . लेखक परिचय :-  नाम - भारत भूषण पाठक लेखनी नाम - तुच्छ कवि 'भारत ' निवासी - ग्राम पो०-धौनी (शुम्भेश्वर नाथ) जिला दुमका(झारखंड) कार्यक्षेत्र - आई.एस.डी., सरैयाहाट में कार्यरत शिक्षक योग्यता -...
मैं पत्थर हूँ
कविता

मैं पत्थर हूँ

रशीद अहमद शेख 'रशीद' इंदौर म.प्र. ******************** सृजन-सेवाओं में संलग्न हूँ, वर्षों से भू पर हूँ! कोई आंके न कम, मानव-हितैषी हूँ मैं पत्धर हूँ! मैं कंकर हूँ, मैं पाहन हूँ, मैं ही चट्टान भूधर की! शिला हूँ, फर्श हूँ, स्तंभ हूँ, दीवार हूँ घर की! लगा हूँ द्वार पर, दहलीज़ पर, भवनों की चौखट पर! नदी के घाट पर, पुष्कर के तट पर, कूप-पनघट पर! कहीं हूँ नींव में तो मैं कहीं ऊँचे शिखर पर हूँ ! कोई आंके न कम, मानव-हितैषी हूँ मैं पत्थर हूँ! खिलौनों में ढलूं तो मोह लेता हूँ करोड़ों मन! रत्न के रूप में करता हूँ श्रृंगारित मनुज का तन! मेरी हर जाति के पाषाण का आकार है अद्भूत ! विविध गुणधर्म आधारित है जो विस्तार है अद्भुत! वन-उपवन, ग्राम-नगरी, महानगरों की डगर पर हूँ! कोई आंके न कम, मानव-हितैषी हूँ मैं पत्थर हूँ! टूट जाता हूँ जब-जब बिखर जाता है मेरा तन! शिल्पकारों के कर से निखर जाता है मेरा तन! मे...
बचपन
कविता

बचपन

वन्दना पुणतांबेकर (इंदौर) ******************** बचपन वहीं सुहाना था। बचपन तो बस। खुशियॉ का खजाना था। खिल-खिलाती खुशियॉ, हरपल। मौसम बड़ा सुहाना था। कहॉ चाहतो का अफसाना था। बचपन वही.......। साथी, दोस्त वही पुराने थे। बचपन के मीत सुहाने थे। कहॉ अपना-पराया भेद जाना था। कहॉ गमो का फ़साना था। बचपन वही.........। दादी के हाथों का लगता अचार सुहाना था। पास जाकर कहानी सुनने का बहाना था। दादा का मीठा स्वप्न सुहाना था। कहॉ चिंताओं का फ़साना था। बचपन वही..........। छुट्टियों का अलग ही ज़माना था। लड़ना-झगड़ना तकरारो का आना-जाना था। लेकिन मन का निर्मल तराना था। कहॉ राग-देश का फ़साना था। यह भेद अब हमने जाना कि बचपन बड़ा सुहाना था। . लेखिका परिचय :- नाम : वन्दना पुणतांबेकर जन्म तिथि : ५.९.१९७० लेखन विधा : लघुकथा, कहानियां, कविताएं, हायकू कविताएं, लेख, शिक्षा : एम .ए फैशन डिजाइनिंग, आई म्यूज सितार, प्रकाशित रचनाय...
अभी मैं बच्चा हूँ
कविता

अभी मैं बच्चा हूँ

रेशमा त्रिपाठी  प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश ******************** मैं बहुत अच्छा हूँ क्योंकि अभी सच्चा हूँ मुझें क ख ग घ नहीं आता क्योंकि मैं अभी बच्चा हूँ। एक से सौं तक की गिनती मुझको नहीं आती हैं। इंग्लिश की ए, बी, सी, डी मुझको बहुत पकाती है। सुबह– सुबह मम्मी कि डांट हर रोज उठते ही खाता हूँ पांच किलों का बैग उठा हर रोज स्कूल भी जाता हूँ । स्कूल पहूँच पीटी टीचर की हर रोज मार भी खाता हूँ। और क्लास टीचर की तो हर दिन धमकी पाता हूँ । फिर ट्यूशन टीचर से तो हर रोज लाल हो घर आता हूँ घर आते ही मम्मी का ज्ञान और पापा का लेक्चर सुनता हूँ। इतना पढ़कर, खाकर सोता हूँ कि हर दिन सब कुछ भूल जाता हूँ अरें भाई बताया तो मैं बच्चा हूँ इसलिए अभी अच्छा हूँ।। . परिचय :- नाम : रेशमा त्रिपाठी  निवासी : प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोट...
घट गया पौरूख
कविता

घट गया पौरूख

शिवम यादव ''आशा'' (कानपुर) ******************** वो सफ़र था सुहाना जब शरीर में भरपूर चेतना थी हमारे घट गया है पौरुख ये शरीर हुआ अब तुम्हारे हवाले। डर लगता है बुढ़ापे से दबा दबा सा रहता हूँ कहीं बुढ़ापा बिगाड़ न दें ये नए खून के दीवाने। आजकल बुजुर्गों के हाल बद से बदतर हो जा रहे हैं दुतकारते हैं बेटे माँ-बाप को ऐसे परिणामों का डर पल रहा है दिल में हमारे। . लेखक परिचय :-  आपका नाम शिवम यादव रामप्रसाद सिहं ''आशा'' है इनका जन्म ७ जुलाई सन् १९९८ को उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात ग्राम अन्तापुर में हुआ था पढ़ाई के शुरूआत से ही लेखन प्रिय है, आप कवि, लेखक, ग़ज़लकार व गीतकार हैं, अपनी लेखनी में दमखम रखता हूँ !! अपनी व माँ सरस्वती को नमन करता हूँ !! काव्य संग्रह :- ''राहों हवाओं में मन" आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच प...
पहली मुहब्बत
कविता

पहली मुहब्बत

रुचिता नीमा इंदौर म.प्र. ******************** वो गजब सी कशिश वो गजब सा एहसास, हा तुम ही तो थे वो तेरा मुस्कुराना जैसे कई कलियों का खिल जाना, कई भवरों का एक साथ गुनगुनाना, जैसे बादलों में इंद्रधनुष का निकल जाना, और सतरंगी सपनों का सच हो जाना, ख्वाब नही था मेरा, हकीकत थी तुम्हारा मिल जाना, जब में, में न रही, बस तुम ही तो थे और सब तुम ही थे और कुछ न था वो गजब सा एहसास वो साँसों की झनकार सब तुम ही थे बस तुम ही थे वो तेरा मिलना जैसे मिल गया कोई अनमोल खजाना वो तेरा होले से छू जाना या जैसे आ गई समंदर में नई तरंग वो पतझड़ में बहारों का आ जाना वो दिल मे खुशी का सैलाब बनकर हा वो तुम ही थे, मेरी जान वो तुम ही थे . लेखिका परिचय :-  रुचिता नीमा जन्म २ जुलाई १९८२ आप एक कुशल ग्रहणी हैं, कविता लेखन व सोशल वर्क में आपकी गहरी रूचि है आपने जूलॉजी में एम.एस.सी., मइक्रोबॉयोलॉजी में बी.एस.सी. व इग्नू ...
अंतर्निहित
कविता

अंतर्निहित

चेतना ठाकुर चंपारण (बिहार) ******************** हमें उनसे अंतर्निहित हुआ प्रेम था। आज उच्छ्वास है। आज भी उनके जाने की वेदना उद्गित स्वर में जैसी रोती चेतना। कहां तिरोहित हो गए ? जब बढी आस्न्ताए चले गए हो कहां? दक्षता थी उनके अंदर। वो है कहां किसी में वे थी वियुक्त इसीलिए लगे उपयुक्त। नीर बहाए कंद्रन आहत जैसी निर्झरिणी बहती अविरल उनकी सुधि हम कैसे भूल जाए ? आज भी आगम की देखती हूं राहे । इतना ही ज्ञान सही  । राहे आज भी देख रही ••••••• . लेखक परिचय :-  नाम - चेतना ठाकुर ग्राम - गंगापीपर जिला -पूर्वी चंपारण (बिहार) आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमें hindirakshak17@gmail.comपर अणु ...
क्या कोई जानता है
कविता

क्या कोई जानता है

संजय जैन मुंबई ******************** जन्म से पहले और मृत्यु के बाद, क्या किसीको कोई जानता है? ये प्रश्न दुनियां बनाने वाले ने, हर किसी के मन में उलझाया है। और जीवो को उनकी शैली अनुसार, जीने का तरीका सिखलाया है। और इस भू-मंडल में सभी को, स्वंय की करनी के अनुसार उलझाया है।। जन्म से लेकर बोलने तक, मन ह्रदय पवित्र होता है। फिर मायावी लोगो का, खेल शुरू होता है। किसको क्या बुलवाना है, और ध्यान केंद्रित किस पर कराना है। जो कहा न सके सीधे सीधे, वो बात बच्चो से बुलबाते है। और अपना उल्लू सीधा करवाते है।। वाह री दुनियां और इसे बनाने वाले, क्या तूने दुनियां बनाई है। रिश्तों का अंबार लगाया, फिर अपास में लड़वाया। देख तमाशा इस दुनियां का, फिर कैसे रिश्तों को धूल चटवाया। सारी हदें पार करा दी, जब बेटा-बेटी को माँ बाप से, भाई बहिन को अपास में खूब लड़वाता है।। तभी तो कहते है जन्म से पहले, और मृत्यु...