दीप
शरद सिंह "शरद"
लखनऊ
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रात्रि के गहन अंधकार में
वह स्वयं को जलाता गया,
अश्रु बहते रहे तन पिघलता गया,
बांट कर रोशनी खुद जलता गया।
दूर कहीं जब दिन ढल गया,
रात अन्धेरा जब छाता गया,
तब वह छोटा सा दीपक जला रात भर,
राह सभी को दिखाता गया।
समझा न जहाँ उसकी पीडा़ कभी ,
होकर विकल, रात भर वह रोता गया
कहाँ समझी किसी ने अहमियत दीप की,
सुबह होते ही उसको नकारा गया।
यही तो है चलन यहाँ का सखे,
वह तो औरो की खुशियों मे खोता गया।
बस औरों की.....................।।
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लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है।
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