अपनी नज़र में
विवेक सावरीकर मृदुल
(कानपुर)
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बड़ा मानने के लिए खुद को
अपनी नज़र में
नहीं करने पड़ते कोई खास जतन
कोई छोटी-सी उपलब्धि हासिल होती है
और हो जाते हैं हम बड़े
कानो में चारो तरफ से
सुनाई देने लगती है विरुदावलियाँ
जय घोष, प्रशंसा भरी निगाहे
सुख शैया सी लगती है
खुद को विनीत खड़े देखते हैं
मंच पर
कब लोग शुरू करें तारीफों की बौछार
कब विनम्रता की शाल ओढ़े
करे हम इसका स्वीकार
कर्र ... कर्र ... कर्र ...
कर्कश घंटी अलार्म की
सुबह के स्वप्न की
असमय हत्या करती है
और एक आह के साथ
पूरे दिन की यात्रा शुरू होती है
तसल्ली देते हैं मन को बीच में कुछ समय निकाल कर
उतनी बड़ी बात नहीं होती
लोगों की नज़रों में बड़ा होना
जितना अपनी ही नज़र में छोटा रह जाना
लेखक परिचय :- विवेक सावरीकर मृदुल
जन्म :१९६५ (कानपुर)
शिक्षा : एम.कॉम, एम.सी.जे.रूसी भाषा में एडवांस डिप्लोमा
हिंदी काव्यसंग्रह : सृजनपथ २०१४ में...