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धूप-छाँव

मंजिरी पुणताम्बेकर
बडौदा (गुजरात)

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             घड़ी में शाम के चार बजे थे। रमेश अपने कॉर्पोरेट के आलिशान ऑफिस में बैठा था। तभी चपरासी चाय लेकर उसकी मेज पर रख गया। चाय के प्याले को हाथ में लिये रमेश अपने सम्पूर्ण कार्यकाल को याद करने लगा। उसका बहुराष्ट्रीय कंपनी का वो पहला दिन जहाँ सारे विदेशी कर्मचारी थे और वो अकेला हिंदुस्तानी। उसे हर दिन एक नई तकलीफ का सामना करना पड़ता था। वो विदेशी इसके साथ कार्यस्थल पर राजनीति खेलते थे। जब सारे साथ जाते तो उसे हीन नजरों से देखते थे ये सोचकर कि उसे उनकी भाषा समझ में आ भी रही है या नहीं? खाने की मेज पर बैठते तो उसको टकटकी लगाकर देखते कि वो चाकू, छुरी से खा पायेगा कि नहीं? इत्यादि इत्यादि। इन सारी तकलीफों के कारण रमेश को असंख्य बार हिंदुस्तानी कंपनी में काम करने की इच्छा हुई। उसके एक वरिष्ठ पदाधिकारी को उसकी तकलीफों का अंदाजा था। उसने रमेश का आत्मविश्वास बढ़ाया।
अब रमेश ने दृढ़निश्चय किया कि वो यहीं नौकरी करेगा और ज़्यादा मेहनत करके उच्च पद हासिल करेगा। फिर हिन्दुस्तान और उसके आजू बाजू के देशों में काम करने के लिये ज्यादा से ज्यादा भारतीयों को भर्ती करेगा। उसकी मेहनत रंग लाई। वो पाँच से सात साल में सेल्स इंजिनीयर से कंट्री इंजीनियर बन चुका था। उसने अपने हाथ के नीचे कई हिंदुस्तानी इंजीनियरों को काम पर रखा था। समय समय पर उनके साथ बैठकर, दिन रात एक कर उनसभी को विदेशी कम्पनी की कार्य पद्धति समझाता था। धीरे-धीरे रमेश ने उन सारे इंजीनियरों को कामयाबी दिलाई। कई तरह से रमेश ने उनकी मदद भी की। कभी पैसे से तो कभी काम सिखाकर तो कभी किसी की निजी मदद भी। रमेश ने उनको सम्हालते हुए उनमें इतना आत्मविश्वास भर दिया था कि वो सब विदेशियों के सामने डट कर खड़े रहते और इस रवैये से खड़े रहते कि “हम किसी से कम नहीं “। इस तरह रमेश और उसके दल ने भारत का नाम यादगार बना दिया।
उतने में उसके ऑफिस के दरवाजे पर दस्तक हुई। रमेश की यादों की निद्रा टूटी। उसकी चाय ठंडी हो चुकी थी। देखा तो उसका वही अपना दल उसे लेने आया था। उन सबको देख उसे याद आया कि आज उसके निवृत्ति की बिदाई पार्टी थी। जल्दी से उसने अपने प्रियजनों की तस्वीर अपनी मेज से उठाई। कुछ् काग़ज समेट कर बैग में रखे। आखिरी बार अपने ऑफिस को देख नम आँखों और भरे गले से वह कॉन्फरन्स हॉल की तरफ बढ़ गया। कॉन्फरन्स हॉल में एक अच्छा सा छोटा सा भाषण दे कर और फूलों का गुलदस्ता लेकर उसने कम्पनी से अंतिम विदाई ली।
बेटी रेणू की शादी के बाद रमेश और रश्मि चम्बा में रहने लगे थे। जवानी में ही रमेश ने चम्बा में एक घर बना लिया था। चम्बा का नैसर्गिक वातावरण मनमोहक था पर वहाँ रहने की परेशानियाँ कुछ कम ना थी। सर्दी में पूरा घर बर्फ से ढक जाता था। यह हिमपात अक्टूबर से मार्च के महिने तक रहता था। बारिश के दिनों में जोरदार बारिश होती। बीमार होने पर अस्पताल पहुंचने की कठिनाई होती। पहाड़ों के घुमाव दार रास्ते पर गाडी चलाना भी मुश्किल होता।
एक दिन रमेश और रश्मि को बाजार में मनोज मिल गया। मनोज ने पैर छूकर उनका आशीर्वाद लिया। उसे देखकर उन दोनों को बहुत आश्चर्य हुआ। रमेश के पूछने पर मनोज ने बताया कि फिर से वही पुराने लोग यहीं हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट में काम कर रहे है। मनोज चीफ इंजीनियर के पद पर कार्यरत है। इस कम्पनी ने दोगुना पगार का प्रस्ताव दिया इसलिए वे सब उस बहुराष्ट्रीय कम्पनी को छोड़ आये। बातों ही बातों में मनोज ने रमेश से उसका पता पूछ लिया।
एक रविवार की सुबह अचानक सारे मनोज के साथ रमेश के घर आ धमके। वो अपने साथ कम से कम एक महिने की दवाइयाँ, सूखे मेवे एवं फल लेकर आये थे। रमेश को दवाइयाँ देखकर बहोत आश्चर्य हुआ क्यूंकि वे सारी उसी की ही दवाइयाँ थीं। उसके पूछने पर आर्यन बोला कि सर कल आपको मैने दवाई की दुकान पर देखा था। उसके पास दवाइयाँ पूरी न होने से आपने उसे दवाई का पर्चा दिया था। बस वहीं से ये ले आया। रश्मि और रमेश की आँखों में खुशी के आंसू थे। लड़के जाते समय हिदायत देकर गये कि किसी भी काम की आवश्यकता हो तो हम सिर्फ पाँच मिनट की दूरी पर है l हमें फोन कर देना हम आ जायेंगे।
रश्मि ने रमेश के कंधे पर हाथ रख कर बोली कि इनका और हमारा कोई खून का रिश्ता नहीं। हमने इनके साथ आठ दस साल बिताये और आज ये हमारे हो गये। रमेश ने रश्मि का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा कि रश्मि हमने अपनी जिंदगी में जान बूझकर किसी के साथ कभी भी बुरा नहीं किया। इसलिए भगवान ने भी हमारा कभी बुरा नहीं होने दिया। ये लड़के अपने घरों से कई मील दूर हैं पर आज का वाकया अनुभव कर ऐसा लगा कि हमें हमारे परिजन मिल गये। तो “जैसी करनी वैसी भरनी “

परिचय :- मंजिरी पुणताम्बेकर
निवासी : बडौदा (गुजरात)
घोषणा पत्र : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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