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स्कूल का ताला

प्रीति धामा
दिल्ली
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आज स्कूल से गुजरते वक़्त
ताले ने आवाज़ लगाई,सुनों!
मैं भी ठिठक कर रुक गई।
कहने लगा कहो कब तक मुझें
यहां से आज़ाद करवाओगे?
कब से फिर बच्चों की
चहलक़दमी से
स्कूल सज़वाओगे।

बड़ा दुःखी मेरा स्कूल पड़ा है,
अब ये व्यथा कही नहीं जाती।
रोते-बिलखते दोस्तों की
पीड़ा सही नहीं जाती।
आश्चर्य से देखकर मैं बोली
दोस्त? कौन से भई?
मेरा दोस्त “ग्राउंड” उसका वो
सूनापन मुझसे देखा नहीं जाता,
क्यों कोई बच्चा उसपे
अब खेलने नहीं आता

मेरा दोस्त “ढ़ोल”
कब से मौन बैठा है
कब से न कोई
मीठी तान बजी, न
बच्चों की प्रार्थनाओं की
लाइनें ही सजी।
मेरा दोस्त डेस्क
न जाने क्यों उदास है,
कह रहा था नींद आने पर
बच्चा संजू कब मुझ पे फ़िर
सिर टेक कर सोयेगा?
“टंकी” का तो हाल बुरा है,
रोते-रोते मंजू को
याद बहुत वो करती है,
टीचर की डांट डपट सुन वो
यहाँ जब मुँह धोने आया करती है।

अब शिक्षा के इस मंदिर का
एकांत सहा नही जाता,
कुछ भी करकर मुझें यहां से
हटवाओ मैं बेबस लाचार
यहां न जाने कबसे लटका हूँ
काम मेरा है तो यही,लेकिन !
अब थोड़ा सा भटका हूँ

कुछ मेरी मदद गर कर पाओं।
फिर से बच्चों की वो किलकारी
कहीं से ले आओ।
अब और कुछ मुझसे
सुना न गया,
खुद को लपककर
थोड़ा आगे किया।
मन की कश्मकश में
उलझी थी मैं,
निर्जीवता की गुत्थी में
उलझी थी मैं
इतना मुखर संवाद
उसने कैसे कर दिया।
मनुष्यता की सजीवता को
कैसे बदल दिया।

परिचय :-  प्रीति धामा
निवासी :  दिल्ली
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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