मेंढक कब बोलेंगे
डॉ. भगवान सहाय मीना
जयपुर, (राजस्थान)
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असीम संभावना का धनी
आषाढ गर्मी से बेहाल,
सूखे होंठ उदास बैठा है
खेत की मुंडेर पर।
मुंह मोड़े तीतर पंखी बादली,
अलनीनो के प्रेम से बदहवास
फिरती दूर गगन के छोर पर।
किसान तीर्थ कर आया
अलसुबह, खेत सी धरा
पावन कही नहीं।
मेहनतकश पसीने से,
इस रज का कण कण
सिंचित है।
दंडवत कर निहार थे
कुएं की गहराई को,
गहरी वेदना से।
पानी उतर गया था जिसका,
पाताल में अश्विन की बादली सा।
आते हुए गांव के पलसे में,
नज़र ठिठकी तालाब पर
चौतरफ किनारे की
हरी भरी दूब सूख गई थी,
महाजन की आत्मा सी।
जो ठिठहरी सा चीक-चीक
करता है दिनभर।
जौंक सा तालाब के बाहर,
निर्मम चूस रहा है सदियों से।
पोखर में नहीं बचा था पानी
जिसमें तैर सके
कछुए और मछलियाँ,
नहा सके छलांग लगाकर
नंगदडंग बच्चे।
औरतें पिला सके गुनगुनाती हुई
गाय, भैंस, बकरियों को...