जिंदगी खंडहरों में
डॉ. भगवान सहाय मीना
जयपुर, (राजस्थान)
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बिखरी हुई छोटी-छोटी खुशियों को,
नजरंदाज करके,
उलझी पड़ी है जिंदगी खंडहरों में।
बेलगाम इच्छाएं, मुंह बाए खड़ी मौत सी,
पाने की जद्दोजहद तिल तिल तनाव में।
परिवार समाज को छोड़कर,
अपनी नज़र से कभी खुद को देखो,
तुम खुद पर फ़िदा हो जाओगे।
धूल जम गई है हजारों सपनों पर,
उन सपनों को बुनने लग जाओगे।
एक बार फिर से सुन लिजिए,
ध्यान मग्न मुनियों से,
भर यौवन बहती नदी की कल-कल को।
खिल उठोगे अबोध बालक से,
चिंता को किनारे लगा,
क्षण भर निहारे खिलते फूलों को।
तितली के सुनहरे पंखों सी जिंदगी,
गुनगुना ने दो भ्रमर को,
गाने दो मन की कोयल को।
संघर्ष और जिजिविषा,
पहाड़ों की तलहटी में नदी से,
सीख ले पत्थरों को चीरना।
डूबने का डर छोड़कर जान ले,
पानी के वक्ष पर नाव से चलना।
कभी सुनो तो सही,
बाग में बैठकर शांति से,
खेलते बच्...