Sunday, May 19राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

Tag: श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी

काया
कविता

काया

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** आज मैंने अपनी काया से पूछा तुम्हें और क्या चाहिए, इतनी लंबी यात्रा हुई कोई तो वज़ह होगी कुछ तो चाहत होगी चलते रहने की औषधियाँ तो बहुत हुई अब कौन सा परिपूरक चाहिए ? आकार पर बहस छिड़ी जो रंग रूप पर आकर ठहरी समय ने कई निशान दिए हैं भेंट स्वरूप इन खिंचाव भरे निशान पर चिंतन करना चाहती है कोमलता नहीं दृढ़ता चाहती है, पडती हुई सिलवटों को रोकना चाहती है उन सभी जानी अनजानी औषधियों से दूर होना चाहती है जो पुनः जीवित होने का ढोंग रचती हैं, "स्वयं" के बंधन तोड़ना चाहती है नश्वर जगत को समझना चाहती है उसके सारे प्रश्न धीरे-धीरे तैयार हो रहे थे तभी कानों में धीमी सी फुसफुसाहट सुनाई दी क्या अब भी तुम मुझसे प्यार करोगी!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश...
जाल
कविता

जाल

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** प्रत्येक व्यक्ति स्वयं के लिए चहुँ ओर इच्छाओं का जाल बुनता है सुख और दुख के तराजू में तौलता हुआ कभी उठता तो कभी गिरता है, इच्छायें मरती है, जाल बिखरता है उम्मीदें समाधिस्थ होती हैं ताउम्र वो समझता है ईश्वर नाखुश है तभी तो आशाएं बिखर रही तिनका बनकर वह नहीं समझता संसार मिथ्या है कर्म शिव है! शून्य और अनंत के बीच उकेरते कुछ संवाद, जिसमें प्रार्थनाएं संजो देनी है, क्योंकि ये जाल उसने नहीं, स्वयं मनुष्य ने बुनी है!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश) सम्मान : राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच इंदौर द्वारा "जीवदया अंतर्रा...
विकल्प
कविता

विकल्प

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** समय कभी तय नहीं होता होता भी तो मेरे हाथ मे नही है किन्तु विकल्प क्या है! चाँद और सूरज ने अकेले ही मजबूत बनने के बहाने दे दिए बारिश की बूँदों ने हथेलियों पर कुछ ख्वाहिशे रख दी जिनसे हथेलियाँ तो भीगी किन्तु रेखाएं भरी नहीं, ऊँचाई ने चलते चलते पर्वत के शिखर पर पहुचा दिया आनंदित हूँ क्युकी विदा का पल निकट आता जा रहा है उस हवा की तरह जाना चाहती हूँ कि गुजरूं करीब से तो सरसराहट की भनक भी ना हो, शिकन नहीं मुस्कराहट छोड़ जाना चाहती हूँ जीवन पर्यंत प्रयासशील रही सबकी झोली खुशियों से भरना चाहती थी जीना कोई मजबूरी नहीं, बस शिवमय होना चाहती हूँ!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्...
गौरैया की वाणी
कविता

गौरैया की वाणी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** सोचती हूँ स्वयं के अस्तित्वहीन होने के पहले अपना परिचय याद दिला दूँ इसी बहाने मानव की संवेदनहीनता का परिचय दे दूँ इस स्मृति दिवस पर सबकी यादों को ताजा कर सकूं सबको बता सकूं, कभी हर घर के मुंडेर और झुरमुट में होता था घोंसला हम नन्ही परियो का फुदकते-चहचहाहते कभी इत आंगन कभी उत आँगन छोटा सा अपना जीवन गुहार लगाती, कराहती नष्ट होती जा रही हैं हम गौरैया ज्ञान विज्ञान ने ऐसा हाहाकार मचाया सुख रहे नदी गाँव और ताल बसेरा होता था हरी-भरी वृक्षों की डालियाँ, छज्जा बनती थी टहनियां, कभी किसी रोशनदान, कभी किसी आँगन में झूमा करती थी हम सब अनवरत विकास ने उजाड़ दिए वो हरियाली वो घर आंगन, कहां जाए दाना चुगने, संग अपने सखी सहेलियों के फुदकने, हम सब तो हैं पर्यावरण की सहेलियाँ घरो...
कुछ लिखूं
कविता

कुछ लिखूं

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** मन की लिखूं तो शब्द रूठ से जाते हैं और सच लिखूं तो अपने, जिंदगी को समझना चाहूँ तो सपने टूट जाते है और हर घड़ी अपने लिखू तो क्या लिखूं अब ना अपने हैं ना सपने कुछ अजीब सा चल रहा है ये अंतर्द्वंद गहरी खामोशी है खुद के अंदर एक ऐसी जगह चाहिये जहां खुद को भी ना ढूँढ पाऊँ कभी उड़ जाऊँ स्वच्छंद सी किसी रोज़ इस जहां से गुम ही जाऊँ एक तिनका बन के लहरों की गहराई में छोड़ जाऊँ ना मिटने वाले निशान सबके हृदय में चढ़ जाऊँ किसी फूल की पंखुडी बन श्री चरणों में कभी ना मुरझाने का आशीर्वाद लिए!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी : लखनऊ (उत्तर प्र...
याचक
कविता

याचक

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** यह हार नहीं क्षणिक विराम है क्योंकि जीवन कुरुक्षेत्र का महासंग्राम है बुरे कर्म बुरे शब्द अब नहीं ग्रहण करूंगा बहुत हुआ खुद से विमुख होना दया की भीख अब नहीं मांगूंगा वरदान लूँगा, चाहे वो तमस हो, चाहे हो ताप , जान चुका हूँ सम्मान के बिना कोई अस्तित्व ही नहीं मनुष्य बन धर्म की संपूर्ण कला से विकसित करूंगा स्वयं को मुक्त आए थे जीवों का जीवन बदलने का संकल्प लिए, है सृष्टि का कर्ज इस जन्म मे मेरे लिए बार-बार आना पडे इस कर्तव्य पथ पर फिर भी, भागुंगा नहीं विक्षिप्त होकर बार-बार ही सही मुक्त आया हूँ मुक्त ही जाऊँगा, अनवरत अनन्त काल तक!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – सम...
गौशाला की रूनझुन
कविता

गौशाला की रूनझुन

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** मेरे हृदय स्थल पर मायूसी सी छा जाती है तब घोर अंधेरा छाता है जब रूनझुन की ध्वनि ना हो जेठ महीने की तपन भरी दुपहरी की क्षवरी तन मन को झुलसाती है, तब शीतल सा फव्वारा बन कर घंटी की ध्वनि छा जाती है मन मंदिर सा पुलकित हो जाता है मुरझाया मन खिल जाता है गर्वित होता मेरा जीवन इस ध्वनि के उन्माद से सांसो की लय चल पडती है प्राणों में सुर छा जाता है, कर लूं कुछ संभाषण इनसे मेरा मन अकुलाता है कूद कूद और उछल उछल रहते है ये अब मस्त मग्न इनकी रूनझुन की ध्वनि सुन कर लब झंकृत हो जाता है मंदिर की इन्हें घंटियों में मेरा मन रम जाता है कभी ओम कभी आमेन कभी अमीन निकल आ जाता है !! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : ...
पारितोषिक
कविता

पारितोषिक

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** मेरे जाने के बाद, मेरा ये प्रेम ये स्नेह यादों मे सजाए रखना मैं वहीं पारितोषिक हूँ, जिसे पाने की चाहत में खो दिया तुमने बहुत कुछ खो रहे हो, समय, तन, मन धन और बहुत कुछ मैं तुम्हारी स्मृतियों में किसी पहाड़ी जीव की तरह कुलांचे भरता यहां वहां विचरण करता रहूँगा , मेरी उपस्थिति तुम्हें राहों में, गलियों,कूंचो में दिखाई देगी तुमने तो सजाया था मुझे अपने मुकुट के मान सा औरों को ना हो पाया कभी उसका भान सा मेरे आंसुओं को खारा पानी समझ झटका करते थे जो उनकी सोच में मेरे आंसुओं की मिठास बोओगे तुम सोचता रहा उम्र भर तरसता रहा प्रेम करुना, सम्मान को जिस, मधुकर रिश्ता बनाओगे, है विश्वास इस बात का ! जब मैं विदा लुंगी, लूँगा, महसूस करोगे मुझे किसी फूल सा, महाकाया जिसने था कभी कोई घर आँगन ...
ख़त
कविता

ख़त

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** डायरी के पन्नों को पलटते-पलटते हमे याद आने लगे वो तुम्हारे खत कितने महके से हुआ करते थे वो ख़त खुशी का खजाना हुआ करते थे वो ख़त गहरी नींद से जगा दिया करते थे ख़त जागती आँखों में सलोने सपने संजोया करते थे वो ख़त दिल के ज़ज्बात से मुलाकात किया करते थे वो ख़त वक़्त की इस दौड़ में कहीं विलीन हो गए वो ख़त ना वो सपने रहे ना मीठी नींद देने वाले वो ख़त दूर तक फैली ख़ामोशियां हमसे ये सवाल करती हैं कभी-कभी तो बाते हजार करती हैँ चलो पुराने ख़तों से फिर से मुलाकात करते हैं शब्द तो अब भी छुपे होंगे उन पन्नों में क्या पता फिर से चल पड़े वो सिलसिलेवार ख़त!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल...
मैं हूँ ना
कविता

मैं हूँ ना

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** आंधी और तूफ़ानों ने उजाड़ दिए हैं ज़न जीवन वृक्ष अटल एक डटा हुआ पत्ता एक ही बचा हुआ अकेला, कांपता, थरथराता ना उम्मीद हो चला है शनैः-शनैः हिलता कुछ अगल बगल ढूँढता गहन चिंतन में डूबा हुआ, ठौर ठिकाना गुनता हुआ निराश हो चला है, किस्मत से हारा हुआ सा है नई कोपलें तो आएँगी, पर उनके साथ बसेगा कौन अंतर्मन से भयभीत भी है, फिर भी उम्मीद की किरण लिए हुए उस इकलौते पक्षी को संपूर्ण आस से कहता है निडर बनो तुम डटे रहो, धीरज से धैर्य धरो वृक्ष डरता हुआ, संकुचित मन से विश्वास के दो बोल बोल ही जाता है "मैं हूँ ना" ... !! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार)...
संरक्षण
कविता

संरक्षण

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** कभी कभी लगता है मन के भावों ने ठिकाना बदल दिया हो जैसे सभी शब्द भावनाओं के पिरोए जा चुके हैं सभी अश्रु धाराएं बह चुकी हो जैसे सामर्थ्य और ताकत आजमाए जा चुके हैं प्रेम और करुणा का रस सूख गया हो जैसे सभी विकल्प ढूंढे जा चुके हैं राहें भरमाई जा रही हो जैसे वक़्त का पहिया पूरा घूम चुका है समय अधिक शेष नहीं हो जैसे भाव शून्य, दिशा शूलय, ईच्छा शक्ति टूटती सी क्या अब पुकार सुनेगा कोई डर की, रूदन की, क्रंदन की, चीख और पीड़ा, आत्मबल झकझोर रहा, नए शब्द ढूंढे जाएंगे, हिम्मत नहीं हारेंगे नई ऊँचाइयों पर चढते जाएंगे, अश्रु नहीं आस्था के गीत गाएंगे हो भले बाधाएं अनगिनत, जीवों का जीवन सुगम बनाएंगे इतिहास बन जाएंगे करुणा और संरक्षण का इतिहास बनाएंगे!! परिचय :- श्री...
संरक्षण
कविता

संरक्षण

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** कभी कभी लगता है मन के भावों ने ठिकाना बदल दिया हो जैसे सभी शब्द भावनाओं के पिरोए जा चुके हैं सभी अश्रु धाराएं बह चुकी हो जैसे सामर्थ्य और ताकत आजमाए जा चुके हैं प्रेम और करुणा का रस सूख गया हो जैसे सभी विकल्प ढूंढे जा चुके हैं राहें भरमाई जा रही हो जैसे वक़्त का पहिया पूरा घूम चुका है समय अधिक शेष नहीं हो जैसे भाव शून्य, दिशा शूलय, ईच्छा शक्ति टूटती सी क्या अब पुकार सुनेगा कोई डर की, रूदन की, क्रंदन की, चीख और पीड़ा, आत्मबल झकझोर रहा, नए शब्द ढूंढे जाएंगे, हिम्मत नहीं हारेंगे नई ऊँचाइयों पर चढते जाएंगे, अश्रु नहीं आस्था के गीत गाएंगे हो भले बाधाएं अनगिनत, जीवों का जीवन सुगम बनाएंगे इतिहास बन जाएंगे करुणा और संरक्षण का इतिहास बनाएंगे!! परिचय :- श्रीमत...
दीवारें
कविता

दीवारें

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** दीवारें सब सुनती हैं, सहती है आत्मसात करती हैं खिलखिलाहट और दर्द की राज़दार होती हैं घर की दरकती दीवारें, रिश्तों के टूटन का आभास कराती हैं कभी बुने थे हजारों सपने कई आकांक्षाये कुछ कढ़ गए हैं कहानी में कशीदाकारी की तरह पुरखों की यादे समेटे स्वयं में ये दीवारें हमसे तुमसे कुछ कहना चाहती हैं समय मिले तो जरूर आकर मिलना, इन दीवारों से जिसकी नींव चुनी थी पूर्वजों ने अपने खून पसीने से संदेश सुनने को तरस रही हैं आज ये दीवारें झुक चुकी हैं, फिर भी टूटी नहीं हैं, खड़ी हैं गर्व से सिर उठाए अपने दम पर हैं इंतजार में कि गूंजेगी खिलखिलाहट और संगीत के स्वर फिर एक बार किलकारियों से सुखद अनुभूति कराएंगी नई फसले फिर से आंगन रोशनी से जगमगा उठेंगे इस कल्पना ने नए प्राण फूंक दिए है...
उदित हुआ हूँ मैं
कविता

उदित हुआ हूँ मैं

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** उदित हुआ हूँ पुनः अंधकार का सीना चीर कर मृत्यु का भय नहीं, ना कुछ खोने का डर है, अनंतर चल पड़ा हूँ अपने अग्निपथ पर संघर्षशील चुनौतियों का सामना करने! निर्मित हुआ हूँ, विकसित हुआ हूँ लौटा हूं प्रकाश पुंज बनकर दिए की लौ की भांति नहीं, दिवाकर का तेज लेकर, कर्मों के समीकरण से सुलझा सकता हूँ शतरंज की इस पारी को, जो विधाता ने बिछाई थी, किन्तु मैं अजेय होकर निखरा हूँ लिखूँगा अब जीवों का भाग्य मैं स्वयं ही, ना होगा उसमें कोई छल समझौता, ना ही असफलता की होगी कोई परिभाषा उजियारा बन छा जाऊंगा इस विशाल नभ और थल पर, पराजय कोई विकल्प नहीं, अब जीत के मंत्र की जीवनी लिखूँगा! माना कि जीवन संघर्ष का नाम है परंतु स्वयं के पुरुषार्थ से पुरुषोत्तम बनूँगा जीवों के लिए नहीं है शेष कोई उ...
हम सहेलियाँ
कविता

हम सहेलियाँ

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** हम सखियाँ, हम सहेलियाँ, हम हैं हमजोलियां, बात बहुत पुरानी है, पर प्यार, स्नेह, लगाव, परवाह अभी भी नया है जीवन की राह में मिलती हैं कई सखियाँ किन्तु कुछ ही प्रिय और अनमोल बन पाती हैं सहेलियाँ, हम भी हैं कुछ वैसी ही सलोनीयां बरसों साथ रहे, सुख दुख भी बांटे साथ-साथ बच्चे भी बन गए आपस में सहेलियाँ! कभी कहीं जाते कभी कहीं जाते, साथ थिरकते साथ गाते साथ ही साथ हर उत्सव मानते! कभी कोई रूठता कभी कोई टूटता, आपस में मिलकर उसे मनाते और फिर से जुड़ जाते गहरी सहेलियाँ! समय बीता, साल बीते, बच्चे बड़े हुए थोड़ा दूर निकल गए बालों में सफ़ेदी की चमक आई, चेहरे पर सिलवटें भी आ गयीं, थोड़ा कमर भी छुकी थोड़ा मध्यम हुए, जिम्मेदारी के बोझ तले कभी असहाय-लाचार भी हुईं हम सहेलियाँ, मगर सब...
मनुष्य
कविता

मनुष्य

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** यदि मनुष्य हो, मनुष्यता को अपनाओ धर्म अधर्म, रंग रूप, के भेदभाव को छोडो ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना हो, श्रेष्ठ बनकर दिखाओ! स्वयं के ज्ञान चक्षु को खोलो, धर्म की ध्वनि को पहचानो, निकल पडो इस दुरूह पथ पर पथिक बनकर, वहीं रुकना, मनुष्य की परिभाषा ढूँढने, जहां वो मिलेगा जीवों के रूप में, जो नहीं होगा घृणा, द्वेष, ईर्ष्या से संचित, वहीं मिलेगी परिभाषा तुम्हें मनुजता की, निश्चल प्रेम, स्नेह, करुणा भक्ति और बहुत कुछ, अज्ञानता के बोझ से निकल कर शाश्वत सत्य को पहचानो, यदि मानव बन मानवता को समझ सके, तो लौट आना परिपूर्ण बन अपनी उसी कुटिया में, जहाँ मिलेगा ईश्वर, अल्लाह, खुदा, हंसता-मुस्कराता, निश्चल प्रेम से सराबोर जीवों के रूप में तब कह देना तुम, सृष्टि की श्रेष्ठतम रचना हो मनुष्य क...
नंदी
कविता

नंदी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** शिव है सत्य, नंदी हैं धर्म नंदी के बिन शिव अराधना है व्यर्थ नंदी को हमने छोड़ दिया, गौ वंशों का संहार किया भूख प्यास से तड़प तड़प, सड़कों पर दम तोड़ रहे ये कैसी पूजा है शिव की ये कैसे भक्त बने शिव के ??? बछड़ो को अधिकार है जीने का, नंदी बन पूजे जाने का कैसे कहलाएंगे सनातनी, अपनी ही संस्कृति भूल रहे !! नंदी की विह्वल पुकार सुन, दिल रोता पल प्रतिपल, इनके अश्रु विध्वंस बने, विकराल, प्रचंड, विनाश बने जो लील रहा है जन-जीवन ये आँसू वो सैलाब बने! हे मनुज उठो हे जन जागो, रोको ये ध्वंस, विनाश, प्रलय, मानव के भीतर दानव का अब उठ कर के संहार करो नव चेतना नव विज्ञान से संचित करो अनमोल है हैं ये नंदी ही नंदीश्वर हैं, यही साधना नील कंठ की, नंदी ही ना बच पाए जो कैसे होगा फिर शिव पूजन!! ...
आओ साथ बैठते हैं
कविता

आओ साथ बैठते हैं

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** आओ साथ बैठते हैं ना हो कोई भीड़ ना कोलाहल, श्वेत श्याम चित्रों में रंग भरते हैं चाय की प्याली हाथों में लेकर चलचित्र सी बीती जिंदगी को पुनः सिलसिलेवार करते हैं उम्र के ढलते पडाव पर स्वयं की अभिव्यक्ति से सरोकार करते हैं जीवन आनंदमय था या थी दुःख की बदली, क्यूँ हम उस पल को याद करते हैं हम स्वयं ही अपनी देखभाल करते हैं! बच्चे बड़े हो गए उनको उड़ना हमने ही सिखाया, वो ऊंची उड़ान भर सुनहरे भविष्य का सपना साकार करते हैं, सृष्टि ने अद्भुत उपहार दिए हर रंग हर रूप में इस जग को उनके संरक्षण का प्रण लेते हैं हम ही पुराने मित्रों को फिर से नया संदेश भेजते हैं!! परमेश्वर के श्री चरणों में नमन कर, जनकल्याण का आशीष लेते हैं, जीवन जीने की कला का पुनः निर्माण करते हैं ...
पत्ते
कविता

पत्ते

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** जो जुबान से निकला वो शब्द थे जलजले सा भीतर थम गया वो अनुभूति थी यू ही पत्तों से रह गए जिंदगी के रिश्ते, कुछ मुरझा गए कुछ सीलन से हैं भरे हुए कुछ थे जो अपनी गुमान में गुम थे उनको भनक भी नहीं आने वाले तूफान की जो मिटा देता है मिटा सकता है अहम के अस्तित्व को रिश्तों की कहानियां भी कुछ ऐसी ही हैं कभी सूख जाते हैं कभी सीलन से बोझिल हो जाते हैं जीवन का सफर रुकता नहीं किसी के इंतजार में यूँ ही झड़ जाना है, विलीन हो जाना है कहीं बटोरते रहे इन पत्तों को आजीवन हम मिले कहीं किसी किताब के पन्नों में सूखे हुए कभी रिश्तों की तह में धूल से भरे हुए मौसम की हवाओं ने नए हरे पत्तों का संदेश भेजा है जिंदगी फिर से शोभायमान हो, ऐसे रंगों से बहारों ने चमन को घेरा है!!! परिचय :- श्री...
उत्तराधिकारी
कविता

उत्तराधिकारी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** स्वयं का उत्तराधिकारी चुनना क्यों जरूरी हुआ क्या वंश परंपरा ही है उत्तराधिकार की परिभाषा??? कितने प्रश्न कितने ऊबाल हैं मन के भीतर चिन्तित हो रहे विचार अपनी दिशाओं से मुक्त होकर स्वार्थ को कर्तव्य समझ कर ! किसको दूँ इस पथ को, संरक्षित कर निरंतर बढ़ने का संदेश किस सत्य से उजागर करूँ अपनों से अपने होने का अधिकार?? कर्म-धर्म, करुणा के संरक्षण से, चुनना चाहता हूँ एक ऐसा पथिक जो संघर्ष की शपथ ले जीवों के उद्धार का सृष्टि को संवारने का, उसका कर्ज चुकाने का जाने कैसी विडंबना है, नकार नहीं सकता बोझ से भरे रिश्तों को क्यों ढ़ो रहे हैं इन्सानियत को जिंदा लाशों की तरह आजकल हवाओं में कुछ जहर सा फैला हुआ है रक्त में समा जाने का डर है इसे, कैसे दूर करूँ इसका ये कसैलापन इस जीवन से ...
मानवता-धर्म
कविता

मानवता-धर्म

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** मानव का जन्म लिया पुण्य से, मानवता ना समझ सके प्रभु वरदान है जीवन ये भी ना पहचान सके..??? मनुष्यता का कवच ओढ़े, धर्म अधर्म को तौल रहे क्रूरता अट्टहास लगाती, निज इच्छाओं से मौन रहे??? करुणा-प्रेम, सेवा-सम्मान, है मानव धर्म की परिभाषा ईन दैव गुणों से भी तुम ये जीवन-व्यक्तित्व ना संवार सके घोर विडंबना व्याप्त हुई मानव दानव से भिन्न नहीं प्रलय विनाश के द्वार निज स्वार्थ वश खोल रहे पाशविकता है चरम चढी मनुजता पर अधम बढ़ा है करुणा हृदय से सूख गई मानव प्राणों का भूखा है...?? क्यूँ भटक गया है धर्म तत्व, उलझा है अधम अंधेरों में क्या था पौरुष कैसा मानव जब जीवन ही असंवेदनशील हुआ हे मनुज, उठो, अब भी पुण्य कमा सकते हो सत्य आचरण का संकल्प लिए इस सृष्टि को संचित कर सकते हो मत ...
नव वर्ष संकल्प करें
कविता

नव वर्ष संकल्प करें

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** आओ इस नववर्ष संकल्प करें बीते कल का आभार करें, नव संवत्सर का सत्कार करें उज्जवल भविष्य की सोच लिए अपनी मंजिल की ओर बढ़ें तमस मिटा अंतर्मन का, हर भेद भाव को दूर करें नई उमंग नई चाह लिए जीवन में नया प्रवाह भरें भूल गए जिन कर्तव्यों को संपूर्ण उन्हें इस वर्ष करें हर जीव को सम्मान मिले, जीने का अधिकार मिले, हर चेहरे पर मुस्कान खिले, हौसला ये रख हर कदम बढ़ें क्यों भूल गया मानव इनको, धरती माता के लाल हैं ये निर्बल, असहाय, कमजोर मगर ईश्वर का प्रतिरूप हैं ये ले दृढ़ प्रतिज्ञ इनके हक़ में इनका मार्ग प्रशस्त बनाना है सृष्टि के उपहार हैं ये इसका कर्ज चुकाना है ये धरा-गगन कल कल नदियां, हर जीवन का आधार हैं ये वन का मूल्य पहचान हमें इनका अस्तित्व बचाना है ले प्रण हर जीवन के संरक्षण का धरत...
मौन
कविता

मौन

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** हर एक बात कही जाए, ये जरूरी तो नहीं अनकहे शब्द भी बोलते हैं ग़र सुनो कभी क्यूँ नष्ट करें शब्दों के निधान मौन ही चुना है बाकी बचे सफर के लिए इतने गहरे और लंबे सन्नाटे से गुजरे हैं हम, कितना कुछ कहना चाहा कितनी कोशिशें की कितनी चाह थी की दुनिया को पता हो जाए, दर्द की जिद थी चुप रहकर ही बसर हो जाए, आहटें और आवाज तो सबके लिए है जो अंतरात्मा को सुनाई दे उसे ही तो निशब्दता कहते हैं ! अब तो हालत भी ऐसी है, ना कही जाएंगी अनकही बातेँ अविरल धारा में बहती जाएंगी मजबूरियां टूट चुकी है हिम्मत और मजबूतियां उत्तर तो प्रत्येक सवाल का दे ही देते मगर बड़े विश्वास से टूटा भरोसा, फिर बने जरूरी तो नहीं जो करना चाहो अराधना कभी, सुनना सीखना भी तो जरूरी है सुना है हृदय के "मौन" में ईश्वर बसता...
मैं एक परिंदा हूँ
कविता

मैं एक परिंदा हूँ

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** मैं एक परिंदा हूँ इस जहां से ही शर्मिंदा हूँ, उड़ने को सारा आसमां है खाली पर कतर डाले मेरे फिर भी मैं जिंदा हूँ मैं एक परिंदा हूँ... हम परिंदे ऊंची उड़ान की ताक में हैं पर तीर आज हर मनुष की कमान में है सोचता था सब ठीक होगा एक दिन, पर मेरा भ्रम भ्रम ही रहा क्युकी मैं एक परिंदा ही तो हूँ....! मैं आजाद बेफिक्र सा पंछी, तुमने कैद कर चुरा डाली सांसे मेरी दिल पर मेरे क्या गुजरी ये तुम क्या समझो हे मानव कभी तूफ़ाँ ने उड़ा डाला घरौंदा मेरा, कभी टहनियों पर बसा उजाड़ डाला तुमने अभिलाषा उस नन्हें परिंदे सी तो थी, जो विशाल गगन में पखं फैलाने का दम भरता है क्योंकि मैं एक परिंदा हूँ...! लौट आता हूँ बार-बार उसी कूचे पर, रंग नया है पर मकां वही पुराना है, ये घर मेरा जाना पहचान...
धेनु हूँ मैं
कविता

धेनु हूँ मैं

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** माता हूँ मैं क्या माँ भी हूँ क्या हूँ पूजनीय, वंदनीय भी मैं या हूँ मनुष्य का साधन मात्र? जिसे साधते आए तुम, अपनी आस्था और धर्मों से कहते हैं भक्ति श्रद्धा का आधार हूँ मैं फिर भी सड़ती, कटती हूँ मैं, चित्कार कभी जो सुन पाओ राहों में तिल तिल मरती हूँ मैं होता नित्य प्रहार मुझ पर, घर-घर ने दुत्कारा मुझको मेरे बच्चे भूखे मरते पर मैं सबका उपकार करूँ रहे निरोगी काया जन की, नित घाव की पीड़ा सहती हूँ माँ बुढ़ी हो भारी लगती, निज स्वार्थवश ही प्यारी लगती जो ना हो आसरा श्रद्धा का माता से भी प्रेम नहीं पूजा जप-तप, और दान यज्ञ का भी कोई मोल नहीं है प्रश्न मेरे अन्तर्मन का क्या ऋण मेरा चुकाओगे??? नित-नित सहती इस पीड़ा को क्या तुम हर पाओगे???? तब उठो-उठो हे जन मानस माता को अगर बचाना है मानव...